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________________ उदय हुआ यह तो लेखक स्वयं मानते हैं कि इससे पूर्व पद्मावती माता का उदय नहीं हुआ था। इस घटना के बाद भी भट्टारकीय काल के पूर्व तक पद्मावती माता की उपासना भक्ति का उल्लेख कहीं किसी ग्रंथ में नहीं आया है। उत्तर पुराण व महावीर पुराण एवं अन्य पश्चात् कालीन पुराणों में पद्मावती की भक्ति पूजा आदि का उल्लेख नहीं आया है। पार्श्वनाथ मुनिराज के उपसर्ग के पूर्व में भी पद्मावती देवी का अस्तित्व तो था फिर उदय क्यों नहीं हुआ? क्या धार्मिक जनों की सहायता की भावना का उनमें अभाव था? उपसर्ग निवारण में पुराणों में धरणेन्द्र की मुख्यता का वर्णन मिलता है। उनकी पत्नी पद्मावती तो केवल वहां उपस्थित रहीं थी। फिर पद्मावती माता का ऐसा तीव्र उदय क्यों हुआ कि भक्त लोग उनके नाम पर व्रत उपवास करने लगे लगे, उनकी पूजा आरती करने लगे और उपसर्ग दूर करने में मुख्य भूमिका निभाने वाले धरणेन्द्र गौण हो गए। पद्मावती माता भक्ति करने वाले भक्तों की रक्षा करने लगी और माता उनकी मनोकामना पूर्ण करने लगी। वस्तुतः निष्पक्ष होकर इतिहास के अंतर में खोज करने पर हम पायेंगे कि जैसा ऊपर लिखा है देश में भट्टारकों के उदय के साथ ही पद्मावती माता का भी उदय हुआ है। धनार्थी एवं दुःख भीरू व्यक्ति अज्ञान के कारण चमत्कारों के प्रभाव में आकर पद्मावती आदि देवी देवताओं की पूजा उपासना की और आकृष्ट हो गए। आगम स्वाध्याय से रहित भोले व्यक्ति की धारणाओं के अनुसार लौकिक सुख दुःख ईश्वर अथवा देवी देवताओं की कृपा अकृपा से होते हैं। अतः दुःख से बचने और सुख प्राप्त करने के लिए वह देवी देवताओं की उपासना भक्ति कर उन्हें प्रसन्न करना चाहता है। अजैन लोग जिस प्रकार अपने अपने देवी देवताओं की पूजा भक्ति करते हैं जैन लोग भी वैसे ही पद्मावती यक्ष आदि को जैनियों के देवी देवता मानते हुए उनकी भक्ति उपासना करने लगे है। किंतु वैज्ञानिक आधार सहित युक्ति युक्त जैन तत्व दर्शन में किसी भी जीव का भला बुरा करने की सामर्थ्य न ईश्वर में है न अन्य देवी देवताओं में । अत: किसी भी प्रकार की लौकिक लाभ की आकांक्षा से देवी देवताओं की पूजा आराधना निरर्थक है। जैन दर्शन में वीतरागी भगवान जिनेन्द्र की उपासना का उद्देश्य भी किसी प्रकार का लौकिक लाभ प्राप्त करना नहीं है बल्कि आध्यत्मिक शांति एवं संतोष जाग्रत कर स्वयं वीतराग बन जाना है। भट्टारक काल में ही पद्मावती आदि देवियों और शासन देवताओं की स्वतन्त्र मूर्तियों का निर्माण प्रारंभ हुआ था। यह काल लगभग बारहवीं शताब्दी का रहा है। इससे पूर्व वीतराग भगवान जिनेन्द्र की प्रतिमा के दोनों पार्श्व भाग में यक्ष यक्षिणियों की मूर्तियां चमर ढोरने, नृत्य करने आदि की मुद्रा में अवश्य पाई जाती हैं। किंतु किसी भी देवी देवता की स्वतन्त्र मूर्ति का निर्माण नहीं होता था। भट्टारकीय काल में धनादि लौकिक अनुकूलताओं के आकांक्षी लोगों का ध्यान धर्म की आध्यात्मिक तात्विक पक्ष की ओर से हटाकर बाह्य क्रिया कांडों में उलझाए रखने के उद्देश्य से सरागी देवी देवताओं की स्वतंत्र मूर्तियों का निर्माण किया गया और इन देवी देवताओं की उपासना के मंत्र तंत्रादि की साधना विधि वाले पूजा विधान लिखे गये। सरागी मिथ्यादृष्टि अथवा अविरत सम्यग्दृष्टी देवी देवताओं की भी लौकिक आकांक्षाओं के लिए पूजा उपासना करना साक्षात् मिथ्यात्व है। यह मिथ्यात्व का प्रचार पद्मावती क्षेत्रपाल आदि देवी देवताओं की मूर्ति निर्माण से आगे बढ़कर उनके स्वतंत्र मंदिरों के निर्माण तक पहुंच गया है। अनेक विद्वान व साधुगण समझौतावादी नीति का अनुसरण करते हुए एक मध्यम मार्गीय व्यवस्था देते हुए कहते हैं कि पद्मावती क्षेत्रपाल आदि सरागी देवी देवता पूज्य नहीं हैं किन्तु सम्मान्य हैं। ऊपरी तौर पर बात कुछ ठीक सी प्रतीत होती है और हम उन देवी देवताओं की उपासना को पूजा के दायरे से निकालकर सम्मान्य के रूप में सहन करते हुए संतुष्ट हो जाते हैं। यह स्थिति हमारी श्रद्धा की समीचीनता के लिए समान रूप से खतरनाक है और मीठे जहर के रूप में हमारे धार्मिक स्वास्थ्य को नष्ट करने वाली है। जहां तक सम्मान्य या समुचित आदर करने का एवं अनादर नहीं करने का प्रश्र है, हमारे आचार्यों का उपदेश है कि हमें संसार के सभी जीवों के प्रति मैत्री भाव रखना चाहिए। मैत्रीभाव ही तो सम्मान्य है। मैत्री भाव में अनादर का अभाव निहित है। वास्तव में हम पद्मावती यक्षादि देवी देवताओं का विरोध नहीं करते हैं। वे तो जैन धर्म के श्रद्धालु होने के नाते साधर्मी हैं। अन्य साधर्मी जनों की भांति उनके प्रति भी हमारा मैत्री भाव वात्सल्य भाव है। विरोध तो उनकी स्वतन्त्र मूर्तियां बनाकर मंदिर में स्थापित करने, उनके स्वतन्त्र मंदिर बनाने, उनकी पूजा स्तुति भक्ति आरती आदि करने, उनकी माला मंत्र जपने, उनके नाम पर उपवास व्रत करने का है। ये सब मिथ्यात्व पोषक क्रियाएं हैं। इनका प्रचार मिथ्यात्व का प्रचार है। यदि जिनेन्द्र भक्त होने के आधार पर इन पद्मावती यक्षादि देवी देवताओं की उपासना किया जाना संगत माना जाए तो इन भवनवासी देवों से ऊंची जाति के एवं इनसे अधिक शक्तिशाली वैमानिक देव इन्द्र आदि इनसे विशिष्ट जिनेन्द्र भक्त हैं। सौधर्म इन्द्र तो नियम से सम्यग्दृष्टि होने के साथ द्वादशांग का ज्ञाता भी होता है। ये भवनत्रिक के देव तो उसके -जून जिनभाषित 2004 3 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524286
Book TitleJinabhashita 2004 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2004
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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