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________________ आज्ञाकारी चाकर हैं। वह अतुल बलशाली वैभवशाली एवं सामर्थ्यशाली होता है। उनकी मूर्तियों की स्थापना कर पूजा करना अधिक उपयुक्त माना जाना चाहिए। अस्तुः भट्टारकों द्वारा स्वार्थसिद्धि एवं अपने अस्तित्व के लिए डाली गई इन सरागी देवी देवताओं की पूजा उपासना की मिथ्या परंपराओं को तोड़ा जाना चाहिए। कार्तिकेयानुप्रेक्षा में लौकिक सिद्धियों लिए इन सरागी मिथ्या देवी-देवताओं की पूजा उपासना का सबल शब्दों में निषेध किया गया है। जिनेन्द्र भक्त की यह दृढ श्रद्धा होती है कि अपने पुण्य-पाप कर्मों के अतिरिक्त मुझे सुख-दुःख देने की सामर्थ्य किसी देवी-देवता में नहीं है। आचार्य समंतभद्र का स्पष्ट उद्घोष 'नान्यथा ह्याप्तता भवेत्' हमारा मार्गदर्शन करता है कि सर्वज्ञ वीतरागी के अतिरिक्त और कोई हमारा उपास्य कभी नहीं हो सकता। हमारी पूजा के पात्र केवल नव देवता होते हैं। इसके बाद संयम के आधार पर आदराभिव्यक्ति की व्यवस्था होती है। सरागी देवी-देवताओं को यदि कदाचित सम्यग्दृष्टि भी मान लिया जाय तो ये अविरत सम्यग्दृष्टि हम देशव्रती श्रावकों के द्वारा किस रूप में सम्मान्य हो सकते हैं। फिर इन अविरत् सम्यग्दृष्टियों की मूर्तियों की जिन मंदिर में स्थापना किसी भी आगम और तर्क से उचित नहीं ठहराई जा सकती है। उनके स्वतन्त्र मंदिर का निर्माण तो मिथ्यात्व के प्रचार का और दि. जैन धर्म के अपवाद का एक अत्यन्त बीभत्स रूप है। पद्मावती क्षेत्रपालादिक यदि सम्यग्दृष्टि हैं तो वे श्रावकों के द्वारा अपनी पूजा कराने का स्वयं घोर विरोध करेंगे। ऐसे मिथ्यात्व के प्रचार में वे अपने नाम और मूर्ति के निमित्त को कैसे अच्छा मानेंगे। वे तो कदाचित जिनेन्द्र भगवान के अनन्य भक्तों की धार्मिक जीवन में आए संकटों में सहायता करते हैं न कि स्वयं के भक्तों की। सरागी देवी-देवताओं के भक्त तो दो कारणों से सम्यग्दृष्टि नहीं होते। एक इसलिए कि वे सरागी देवी-देवताओं की उपासना करते हैं और दूसरा इसलिए कि वह उपासना लौकिक सिद्धियों के लिए की गई है जिससे सम्यग्दर्शन के निकांक्षित अंगका भंग होता है। श्रावकों की बात तो दूर रही वर्तमान में तो कतिपय मुनिराज भी पद्मावती अथवा शासन देवताओं को सिद्ध कर उस सिद्धि के बल पर अपने भक्तों के लौकिक दुःख दूर करने एवं उन्हें लौकिक वैभव प्राप्त करने में लगे हुए हैं। इस विषय में " प्राकृत विद्या" के वर्ष 15 संयुक्तांक 3-4 " शांतिसागर विशेषांक" के पृष्ठ 126 पर प्रकाशित निम्न संस्मरण ध्यान देने योग्य हैं " आचार्य श्री के भक्तों में अग्रगण्य बाबू तेजपाल काला नांदगांव लिखते हैं कि आज से करीब 30 वर्ष पहले कोल्हापुर के रुपड़ी गांव में पंचकल्याणक महोत्सव था । आचार्य श्री वहां आए थे। सुप्रसिद्ध विद्वान पं. धन्नालाल जी कासलीवाल ने आचार्य श्री से कहा "महाराज आप किसी शासन देवता का आराधन कर ऐसा चमत्कार बताइए कि जिससे जैन धर्म के प्रति लोगों का आकर्षण हो" । आचार्य महाराज हंसने लगे। उन्होंने स्पष्ट कहा " पंडित जी इतने बड़े विद्वान होकर भी ऐसी मिथ्यात्व पूर्ण बात हमारे लिए कैसे कहते हो ? संसार शरीर और भोगों से विरक्त मुनियों के लिए शासन देवता की आराधना की बात कैसे संभव है ? और क्या यह मिथ्यात्व नहीं है"। पंडित जी महाराज की बात सुनकर अवाक् रह गए। एक बार एक वृद्ध पंडित आचार्य श्री से कहने लगा "उत्तर की जनता वक्र पद्धति की है। कभी दिगम्बर मुनियों का विहार जीवन में नहीं देखा। जब आपका संघ आता है तो उसको देखकर विद्वेषियों द्वारा विघ्न प्राप्त होगा तब धर्म पर संकट आ जायेगा। अतः यह उचित होगा कि पहले आप किसी देवता को सिद्ध कर लें। इससे कोई बाधा नहीं होगी, महाराज बोले 'मालूम होता है अब तक आप का मिथ्यात्व नहीं गया जो हमें आगम की आज्ञा के विरुद्ध सलाह देते हो" । पंडित जी बोले 'आपका भाव मेरे ध्यान में नहीं आया स्पष्टीकरण की प्रार्थना है।' महाराज श्री ने कहा 'क्या महाव्रती अव्रती को नमस्कार करेगा ?' पंडित जी बोले 'नहीं, महाराज व्रती अव्रती को नमस्कार नहीं करेगा।' महाराज श्री बोले 'विद्या या देवता सिद्ध करने के लिए नमस्कार करना आवश्यक है। देवता अव्रती होते हैं। तब अव्रती को नमस्कार करना महाव्रती को दोषप्रद नहीं होगा ? डरने की क्या बात है। हमारा पंच परमेष्टी पर विश्वास है। उनके प्रसाद से विघ्न नहीं आयेगा ।' संसार परिभ्रमण के दुःखों से छुड़ाने में समर्थ सर्वज्ञ वीतरागी देव, आरंभ परिग्रह से मुक्त गुरू और पर पदार्थों की आकांक्षाओं को छुड़ाकर आत्म रूचि जाग्रत कराने वाले सच्चे शास्त्र की शरण को प्राप्त करके भी क्षुद्र लौकिक आंकाक्षाओं की पूर्ती के जघन्य उद्देश्य से सरागी देवी-देवताओं की पूजा आराधना में संलग्न रहने की अनादि कालीन भूल को नहीं मिटा सके तो आगामी जन्मों में अपने कल्याण की ऐसी अनुकूलताएं प्राप्त होना कठिन है। परम कल्याणकारक सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति और संरक्षण के लिए मिथ्या देवी-देवताओं की पूजा उपासना के इस मिथ्यात्व के प्रचार से हमें स्वयं को और दूसरों को बचाना चाहिए। मूलचंद लुहाड़िया 4 जून जिनभाषित 2004 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524286
Book TitleJinabhashita 2004 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2004
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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