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सम्पादकीय
गत कुछ वर्षों से दि. जैन मंदिरों में पद्मावती माता एवं क्षेत्रपाल बाबा की मूर्तियों की स्थापना एवं उनकी स्तुति पूजा आरती रूप उपासना का प्रचार बढ़ रहा है। मध्यकाल में परिग्रहधारी मठाधीश भट्टारकों ने अपने अस्तित्व के लिए एक सुविचारित योजनाबद्ध षडयंत्र रचा। वे जानते थे कि दि. जैन धर्मावलम्बी जब तक वीतराग देवशास्त्रगुरू की उपासना में संलग्न रहते हुए जैन आगम का पठन-पाठन करते रहेंगे तब तक भ्रष्ट मुनियों के रूप परिग्रही भट्टारकों को मुनिवत मान्य नहीं करेंगे। अतः उन्होंने साधारण गृहस्थ जैनों को जैन तत्व ज्ञान से वंचित रखते हुए उनकी ऐसी नस को पकड़ा कि वे भयग्रस्त, लोभग्रस्त होकर विवेक हीन हो गए और उनके चंगुल में फंसे रहते हुए उनको गुरू मानने लगे। साधारण धर्मभीरू व्यक्ति के मनोविज्ञान को जानकर उन्होंने अपनी मंत्र तंत्र की साधना एवं चमत्कार की बातें प्रचारित कर लोगों को सम्मोहित कर लिया एवं अनिष्ट का भय दिखाकर किसी में विरोध के स्वर उठाने का साहस उत्पन्न नहीं होने दिया । लौकिक दुःख संकटों से त्रस्त साधारण व्यक्तियों को उनसे छुटकारा पाने के लोभ में भट्टारकों को अनुयायी बना दिया। भट्टारकों ने धीरे धीरे वीतराग जिनेन्द्र देव के स्थान पर जैन नाम का मुखौटा पहनाकर पद्मावती यक्ष आदि देवी देवताओं की उपासना की और जैन लोगों को आकृष्ट कर लिया। उन विद्वान भट्टारकों ने पद्मावती यक्ष आदि देवी देवताओं के मंत्र एवं पूजा उपासना का विधान करने वाले शास्त्रों की रचना कर दी। उन शास्त्रों को पढ़कर साधारण अल्पज्ञानी गृहस्थों की तो बात ही क्या अच्छे-अच्छे साधुगण भी प्रभावित हो गये और उन मिथ्या देवी देवताओं की पूजा उपासना का प्रबल समर्थन करने लगे। यह है दिगम्बर जैन धर्म में पद्मावती यक्ष आदि देवी देवताओं के उदय का संक्षिप्त इतिहास।
मिथ्यात्व का प्रचार
अभी जैन गजट दिनांक १५ अप्रैल, २००४ के अंक में 'आस्था का केन्द्र माता पद्मावती जी की प्रतिमा' हैडिंग वाले सहारनपुर के समाचार प्रकाशित हुए हैं। समाचारों में लिखा है कि तीर्थंकर भगवान पार्श्वनाथ के मुनि अवस्था में कमठ द्वारा किए गए उपसर्ग के समय पद्मावती माता ने अपनी फण फैलाकर बनाए गए सिंहासन पर उनको विराजमान किया व धरणेन्द्र के जीव ने फण फैलाकर मुनि पार्श्वनाथ के सिर पर छत्र बना दिया और इस प्रकार उपसर्ग दूर हुआ और मुनि पार्श्वनाथ को कैवल्य ज्ञान की उत्पत्ति हुई। यहीं से माता पद्मावती का उदय हुआ तथा प्रत्येक शुक्रवार को स्त्री पुरूष माता पद्मावती जी के व्रत उपवास आदि करते हैं। माता पद्मावती अपने भक्तों की रक्षा करती हैं। तथा मनोकामना पूर्ण करती हैं।
यहां कैसा असंगत, असंभव और मिथ्या विवरण प्रस्तुत कर इतिहास को एवं सिद्धांत को तोड़ मरोड़कर विकृत किया गया है। जैन आगम में पार्श्वनाथ मुनि महाराज के उपसर्ग दूर करने के लिए धरणेन्द्र के द्वारा छत्र ताने जाने का कथन मिलता है । उपसर्ग के समय ध्यानस्थ मुनि महाराज को पद्मावती देवी ने अपने फण पर कैसे बैठा लिया ? पद्मावती देवी ने अपनी स्त्री पर्याय को ध्यान में रखते हुए मुनि महाराज के शरीर का कभी स्पर्श नहीं किया होगा। फिर पद्मावती देवी के फण के ऊपर मुनि महाराज कैसे बैठ सकते थे। स्वयंभू स्तोत्र में भगवान पार्श्वनाथ की स्तुति में आचार्य भगवान समंतभद्र देव ने धरणेन्द्र द्वारा ही उपसर्ग से मुनि पार्श्वनाथ स्वामी की रक्षा करने का वर्णन किया है। उत्तर पुराण में लिखा है धरणेन्द्र ने मुनि महाराज को फण पर उठाया और उनकी देवी मुनि महाराज के ऊपर छत्र तानकर खड़ी रही। पार्श्वपुराण में धरणेन्द्र द्वारा ही फण को फैलाये जाने का उल्लेख है । अतः पद्मावती के फण पर मुनि पार्श्वनाथ की प्रतिमा का बैठाना आगम और सिद्धांत दोनों से बाधित है।
जिन शासन के भक्त सम्यग्दृष्टी देव और मनुष्य ही नहीं तिर्यन्च भी धर्मायतनों, गुरूओं एवं धार्मिक व्यक्तियों पर आए उपसर्ग को दूर करने के लिए यथा शक्ति तत्पर रहते हैं। सम्यग्दर्शन के अस्तित्व के कारण उनकी ऐसी साहजिक प्रवृत्ति होती है। मुनि पार्श्वनाथ के पुण्योदय और धरणेन्द्र के अपने धर्म प्रेम के कारण सहज ही धरणेन्द्र अपनी पत्नी सहित मुनि महाराज का उपसर्ग दूर करने उपस्थित हुए थे। इसमें पार्श्वनाथ द्वारा नाग नागनी पर पूर्व भव में किए गए उपकार का स्मरण भी कारण रहा हो सकता है। किन्तु मुनि पार्श्वनाथ के हृदय में उपसर्ग के कारण किसी प्रकार का दुःख संताप उत्पन्न नहीं हुआ था। उन्होंने धरणेन्द्र को सहायता के लिए न स्मरण किया था और न निवेदन किया था।
समाचार लेखक के इस कथन से कि पार्श्वनाथ मुनि महाराज के उपसर्ग निवारण की घटना से ही माता पद्मावती का
2 जून जिनभाषित 2004
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