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आपके पत्र, धन्यवाद : सुझाव शिरोधार्य
'जिनभाषित' प्रतिमाह नई सज्जा एवं सामग्री के साथ प्राप्त | 'जिनभाषित' का मार्च, 2004 अंक मिला, धन्यवाद। हो रही है। पत्रिका प्राप्त होने पर बच्चे जब मेरे-कमरे में, मुझे | पत्रिका में रामटेक के श्री दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र का बहुत देने आते हैं तो मुझसे पहले मेरे पतिदेव, जो पैरालिसेस से ग्रस्त | अच्छा वर्णन दिया गया है। रामटेक तो बहुत पुरानी धर्म-स्थली बिस्तर पर हैं, अपना हाथ आगे बढ़ाकर पत्रिका ग्रहण कर लेते | है, यहाँ प्रसिद्ध राम मंदिर भी है। यह वही रामटेक है जहाँ
और खोलकर पढ़ने लगते हैं। जब तक उनका मन होता है बहुत | कालीदास जी ने मेघदूत की रचना की थी। रामटेक प्रकृति की ध्यान से पढ़ते हैं। शेष समय में पत्रिका मेरी और पुत्रवधु की | गोद में बसा हुआ बहुत सुन्दर गाँव है जहाँ पर जाने में मन पूरी होती है।
तरह तृप्त हो जाता है। प्रत्येक पत्रिका के मुखपृष्ठ एवं आवरण पृष्ठ पर आकर्षक डॉ. वंदना जैन ने 'प्राकृतिक चिकित्सा में काफ़ी अच्छी और दर्शनीय चैत्यालय, जिनबिंब एवं मुनिराज के चित्रों के | जानकारियाँ प्रस्तुत की हैं। आज हम प्राकृतिक चिकित्सा को दर्शन घर बैठे ही भक्ति-विभोर हो, वृद्धावस्था सार्थक मान लेते | भूलते जा रहे हैं। अंग्रेजी दवाईयों की अंधी दौड़ में दौड़े जा रहे
हैं, इससे नुकसान अधिक फायदे कम हैं, खर्च भी बहुत होता माह अक्टूबर से कविताओं में निरंतरता आ रही है। संक्षिप्त | है। 'प्राकृतिक चिकित्सा' तो बहुत सीधे, सरल, कम खर्च में कहँ तो सभी विद्वानों के लेख एवं कवियों की कविताएं | वाली ऐसी चिकित्सा है जिसके माध्यम से हम लंबे अरसे तक प्रशंसनीय रही हैं। सभी रचनाकारों को धन्यवाद। अक्टूबर 2003
स्वस्थ रह सकते हैं। हमें एलोपैथी चिकित्सा से दूर रहकर "रे मन तु व्यवसायी है" कविता के लिए- प्रो. भागचंद जी । 'प्राकृतिक चिकित्सा' के और नज़दीक आना होगा, जो आज जैन "भास्कर" को मेरी ओर से (आपके अभिन्न मित्र डॉ. | समय की सबसे बड़ी माँग है। आप जिस मनोयोग से पत्रिका प्रेमचंद जी जैन चंडीगढ़ की अग्रजा की ओर से) बहुत-बहुत | निकालते हैं, वह सचमुच बहुत स्वागतयोग्य है। बधाई। डॉ. विमला जी "विमल" के दोहे सार्थक संदर्भ लिए
राजेन्द्र पटोरिया अच्छे लगते हैं। जनवरी 2004 में डॉ. वंदना जैन की कविता
संपादक, खनन भारती, नागपुर "और वह चली गई" मन को छू गई। काश! ऐसी जिजीविषा
अपनी प्रियता की ओर कदम बढाती हई 'जिनभाषित' सभी को होती। कवि की कल्पना साकार भी हो जाती है। माह
पत्रिका मिली। अप्रैल और मई अंक में प्रकाशित संवेदनाओं से अप्रैल में कविता- "विद्यासागर" के लिए नवयुग कवि श्री
भरपूर, प्रकृति और यथार्थ को अपने में समेटे हए संवेदनशील मनोज जैन "मधुर" हार्दिक बधाई के पात्र हैं। मनोकामना है
कवि मुनिवर 'क्षमासागरजी' की मार्मिक कविताएं पढ़ी। कि "मधुर जी" कविता के गगन में जगमगाते सितारे बनें।
हम जितने खुले और पवित्र मन से उस परमात्मा का इन सबसे भी ऊपर हैं सम्पादकीय लेख जो विद्वता की
आवहान करते हैं, सचमुच हम उसके उतने ही करीब अपने को चरम सीमा को छूते हैं। विशेष कर मार्च, अप्रैल के सम्पादकीय
पाते हैं। बहुत सच लिखा कवि ने कि-'जितना जिसके धन्यवाद। और अंत में
जीवन में समा जाए, भगवान उतना ही बड़ा है।' और फिर "जिज्ञासा समाधान"
ऊँचाईयों का स्पर्श देती हुई ये पंक्तियाँ कि 'अपनी आवाज, "जिनभाषित का प्राण"
अपने तक आती रहे, इतना ही ऊँचे उड़ना है।' आशा, अभिलाषा एवं विश्वास है कि पत्रिका इसी प्रकार
तथा मेरे जीवन की धार, निर्बाध बहती रहे परमात्मा से प्रगति के सोपानों पर चढ़ती हुई मार्गदर्शक साहित्य का सृजन | प्रार्थना है कि इस साधक की साधना निरन्तर और निर्विघ्न करने में तत्पर रहेगी।
चलती रहे। इन चरणों में मेरे बारम्बार नमन। ज्ञानमाला जैन
__ अरुणा जैन भोपाल
तुलसी आँगन, वाशीनगर, नई मुम्बई (महा.)
जून जिनभाषित 2004 1
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