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________________ सुरक्षा का दायित्व साधु एवं श्रावकों पर ही निर्भर है। साधु न्यायपालिका की तरह आचार-विचार जगत् का मार्गदर्शक है, तो श्रावक कार्यपालिका की तरह सामाजिक-धार्मिक संरचना का सर्जक है। यह अधिवेशन सभी पूज्य साधुवृन्द और श्रावकों से आगम के प्रकाश में आत्मालोचन करते हुए जागृत होकर दूर करने की प्रार्थना करता है । यह अधिवेशन समाज में सेवारत सभी अखिल भारतीय स्तर की दिगम्बर जैन संस्थाओं से यह अपील करता है कि 1. वे जहाँ-जहाँ उनकी शाखायें हैं, वहाँ-वहाँ नियमित स्वाध्याय गोष्ठियों और धार्मिक रात्रि-पाठशालाओं का स्थानीय विद्वानों के सहयोग से स्थापन एवं संचालन करें। 2. वे अपनी-अपनी शाखाओं के माध्यम से रात्रि भोजन, अभक्ष्य भक्षण मुख्यतः मादक पदार्थों के सेवन तथा बहुप्रचलित डिनर आदि से गृहस्थों को विरत करने के लिए पत्रों, पत्रकों, ट्रेक्टों तथा अन्य माध्यमों से एक सशक्त आंदोलन चलायें। 3. वे विवाह कार्य दिन में ही सम्पादित करने के लिये समाज को प्रेरित करें, ताकि जीवहिंसा में निमित्त आतिशबाजी, मद्यपान, रात्रि के विद्युत प्रदूषण, अश्लील भण्ड नृत्यादिकों से आ रही विकृतियों को दूर किया जा सके। 4. वे सामाजिक जैन उत्सवों में होने वाले सांस्कृतिक कार्यक्रमों के अंतर्गत जैनाचार और संस्कृति के संवर्धक कार्यक्रमों के आयोजनों के लिए वातावरण बनायें तथा श्रृंगार- प्रधान काव्यपाठादि या नृत्य-नाटिकाओं के आयोजन न करने के लिए प्रेरणा दें। 5. जैन उत्सवों में होने वाले खानपानादि में लोग जूतेचप्पल पहनकर भोजन आदि न करें तथा आलू आदि कंदमूल बनाये या परोसे न जायें, यह भी सुनिश्चित करें। 6. अन्तर्जातीय विवाह के नाम पर जैनेतरों (सिख, मुसलमान, खत्री, ईसाई आदि) के साथ विवाह संबंध स्थापित करने की प्रवृत्ति संस्कृति के लिए घातक है। ऐसे धर्म निषिद्ध विवाह संबंध करने वालों को कम से कम संस्था के पदों पर बनाये रखने पर तुरन्त विचार करें, ताकि लोग ऐसे कार्यों के प्रति निरुत्साहित हों । यह अधिवेशन हम सबकी आराधना के केंद्र एवं सम्यग्दर्शन - ज्ञान - चरित्र के मूर्त्तिमान स्वरुप परम पूज्य आचार्यों, साधुओं, आर्यिका माताओं एवं त्यागी वृंद से यह विनम्र प्रार्थना करता है कि : 1. वे 'मेरा शत्रु भी एकाकी विचरण न करे' इस जिनाज्ञा का अक्षरशः पालन स्वयं करें और करायें । 30 जून निर्माण कार्यों में स्वयं या अपने संघस्थ त्यागी या संघ-संचालक आदि के माध्यम से चल रही प्रवृत्तियों से अपनी रत्नस्वरुप इस देवदुर्लभ पर्याय को मलिन न होने दें। अधिक से अधिक स्वयं को ऐसे सत्कार्यों के लिए गृहस्थों या सम्बद्ध प्रबंध समितियों को प्रेरित करने तक ही सीमित रखें। Jain Education International 3. ख्याति - लाभ - पूजादि की चाह से स्वयं को विरत रखते हुए लौकिक क्रियाओं मे ही अनुरक्त न रहें, उपाधियों आदि के व्यामोह से बचें तथा अनियत-विहार के नियम का पालन करें। 4. गृहस्थों को रात्रिभोजन न करने, सप्त-व्यसनों से बचने, अष्टमूलगुणों का पालन करने, नित्य देवदर्शन, स्वाध्याय आदि करने की विशेष प्रेरणा दें। 5. मूलाचार में निर्दिष्ट साधुयोग्य उपकरणों के अतिरिक्त अन्य प्रकार के संसाधनों के प्रवेश से संघ एवं स्वयं को बचायें । 6. पूज्य संतजन वैचारिक असहिष्णुता से बचें तथा अपने पुनीत सान्निध्य में किसी की निंदा, भर्त्सना, बहिष्कार जैसे प्रसंगों को उपस्थित न होने दें। इससे वीतरागता लांछित होती है । अखिल भारतीय दिगम्बर जैन शास्त्रि-परिषद् के सभी विद्वान् इस प्रस्ताव के क्रियान्वयन में समर्पित होकर मनसा वाचा कर्मणा सहयोग करेंगे। प्रस्ताव क्र. 3 अखिल भारतवर्षीय दिगम्बर जैन शास्त्रिपरिषद् का अतिशय क्षेत्र कुरगवाँ जी (झाँसी) में पूज्य उपाध्याय श्री ज्ञानसागर जी महाराज के सान्निध्य में आयोजित इस खुले अधिवेशन में परिषद् ने शिक्षण-प्रशिक्षण शिविरों की निरन्तरता 2. वे मंदिर, आश्रम, मानस्तम्भ, पाठशालाओं आदि के को बनाए रखने तथा उसके लिए सुनिश्चित पाठ्यक्रम एवं उन्हें 'जिनभाषित 2004 प्रस्तावक : नरेन्द्रप्रकाश जैन समर्थक : डॉ. श्रेयांस कुमार जैन प्रस्ताव क्र. 2 अखिल भारतवर्षीय दिगम्बर जैन शास्त्रिपरिषद् का दिनांक 24 मई 2004 को अतिशय क्षेत्र कुरगवाँ जी (झाँसी) में सम्पन्न यह अधिवेशन अपने वरिष्ठ सदस्य प्रो. रतनचंद्र जैन द्वारा भोपाल से प्रकाशित पत्रिका 'जिनभाषित' में आदिकुमार की रात्रि में निकाली गई बारात के विरोध में व्यक्त विचारों को आगमोक्त मानता है। प्रोफेसर सा. के विरुद्ध एक वर्ग विशेष द्वारा जिस अशोभन एवं निंदापरक शब्दावली का प्रयोग किया गया, उस पर यह अधिवेशन घोर चिंता प्रकट करते हुए आगमानुकूल विचाराभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का हनन मानता है। भविष्य में समाज में क्षोभ उत्पन्न करने वाले ऐसे अवांछनीय प्रसंगों से संत और समाज दोनों को बचना चाहिए। For Private & Personal Use Only प्रस्तावक : प्रा. अरुण कुमार जैन, ब्यावर समर्थक : डॉ. कमलेश कुमार जैन, वाराणसी www.jainelibrary.org
SR No.524286
Book TitleJinabhashita 2004 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2004
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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