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________________ प्रीतंकर के पूर्व भव के स्याल के जीव ने मुनीश्वर के उपदेश से | अर्थ- रात्रि में भोजन करने वालों की थालियों में डाँस, रात्रि में जल पीने का त्याग किया था जिसके प्रताप से वह मुहा | मच्छर, पतंगे आदि छोटे-छोटे जीव आ पड़ते हैं। यदि दीपक न पुन्यवान् समृद्धिशाली प्रीतंकर हुआ था। वास्तव में बात सोलह जलाया जाय तो स्थूल जीव भी दिखाई नहीं पड़ते और यदि आना ठीक है कि रात्रि भोजन अनेक दोषों का घर है। जो पुरुष | दीपक जला लिया जाय तो उसके प्रकाश से और अनेक जीव रात्रि का भोजन करता है वह समस्त प्रकार की धर्म क्रिया से | आ जाते हैं। भोजन पकते समय भी उस अन्न की वायु गंध हीन है, उसमें और पशु में सिवाय सींग के कोई भेद नहीं है। | चारों ओर फैलती है अत: उसके कारण उन पात्रों में जीव जिस रात्रि में सूक्ष्म कीट आदि का संचार रहता है मुनि लोग | आकर पड़ते हैं। पापों से डरने वालों को ऊपर लिखित अनेक चलते-फिरते नहीं, भक्ष्याभक्ष्य का भेद मालूम नहीं होता, आहार | दोषों से भरे हुए रात्रि भोजन को विष मिले अन्न के समान सदा पर आये हुए बारीक जीव दीखते नहीं ऐसी रात्रि में दयालु के लिए अवश्य त्याग कर देना चाहिए। चतुर पुरुषों को रात्रि में श्रावकों को कदापि भोजन नहीं करना चाहिए। जगह-जगह | सुपारी, जावित्री, तांबूल आदि भी नहीं खाने चाहिए क्योंकि जैन ग्रंथों में स्पष्ट निषेध होते हुए भी आज हमारे कई जैनी भाई | इनमें अनेक कीड़ों की संभावना है अतः इनका खाना भी रात्रि में खूब माल उड़ाते हैं। कई प्रांतों के जैनियों ने तो ऐसा पापोत्पादक है। धीर वीरों को दया धर्म पालनार्थ प्यास लगने नियम बना रखा है कि रात्रि में अन्न की चीज न खानी- शेष | पर भी अनेक सूक्ष्म जीवों से भरे जल को भी रात्रि में कदापि न पेड़ा, बरफी आदि खाने में कोई हर्ज ही नहीं समझते। न मालूम | पीना चाहिए। इस प्रकार रात्रि में चारों प्रकार के आहार को ऐसा नियम इन लोगों ने किस शास्त्र के आधार पर बनाया है। छोड़ने वालों के प्रत्येक मास में पंद्रह दिन उपवास करने का खेद है जिन कलाकंद, बरफी आदि पदार्थों के मिठाई के प्रसंग | फल प्राप्त होता है। के अधिक जीव घात होना संभव है उन्हें ही उदरस्थ करने की | रात्रि भोजन के दोष के वर्णन में जैन धर्म के ग्रंथों के ग्रंथ इन भोले आदमियों ने प्रवृत्ति कर अपनी अज्ञानता और जिह्वा भरे पड़े हैं। यदि उन सबको यहाँ उद्धृत किया जावे तो एक लंपटता का खूब परिचय दिया है। श्री सकलकीर्ति जी ने बहुत बड़ा ग्रंथ हो सकता है। अतः हम भी इतने से ही विश्राम श्रावकाचार में साफ कहा है कि लेते हैं। भक्षितं येन रात्रौ च स्वाद्यं तेनान्नमंजसा। रात्रि भोजन खाली धार्मिक विषय ही नहीं है किन्तु यह यतोऽन्नस्वाद्ययोर्भेदो न स्याद्वान्नादियोगतः॥८३॥ शरीर शास्त्र में भी बहुत अधिक संबंध रखता है। प्रायः रात्रि अर्थ- जो रात्रि में अन्न के पदार्थों को छोड़कर पेड़ा, | भोजन से आरोग्यता की हानि होने की भी काफी संभावना हो बरफी आदि खाद्य पदार्थों को खाते हैं वे भी पापी हैं क्योंकि सकती है। जैसे कहा है किअन्न और स्वाद्य पदार्थों में कोई भेद नहीं है। तथा और भी कहा मक्षिका वमनाय स्यात्स्वरभंगाय मूर्द्धजः। है कि यूका जलोदरे विष्टिः कुष्टाय गृहकोकिली। दंशकीट पतंगादि सूक्ष्मजीवा अनेकधाः। _ -धर्म संग्रह श्रावकाचार (मेधावीकृत) स्थालमध्ये पतन्त्येव रात्रिभोजनसंगिनाम्॥७८॥ अर्थ- रात्रि में भोजन करते समय अगर मक्षिका खाने में दीपकेन बिना स्थूला दृश्यन्ते नांगिनः क्वचित्। आ जाय तो वमन होती है, केश खाने में आ जाये तो स्वर भंग, तद्द्योतवशादन्ये प्रागच्छन्तीव भाजने॥७९॥ गँवा खाने में आ जाय तो जलोदर और छिपकली खाने में आ पाकभाजनमध्ये तु पतन्त्येवांगिनो ध्वम्। जाय तो कोढ़ उत्पन्न होता है। इसके अलावा सूर्यास्त के पहिले अन्नादिपचनादात्रौ म्रियन्तेऽनंतराशयः॥ ८०॥ किया हुआ भोजन जठराग्नि की ज्वाला पर चढ़ जाता है-पच इत्येवं दोषसंयुक्तं त्याज्यं संभोजनं निशि। जाता है इसलिए निद्रा पर उसका असर नहीं होता है। मगर इसके विपरीत करने से रात को खाकर थोड़ी सी देर में सो जाने विषान्नमिव निःशेष पापभीतैनरैः सदा॥ ८१॥ से चलना फिरना नहीं होता अतः पेट में तत्काल का भरा हुआ भक्षणीयं भवेन्नैव पत्रपूगीफलादिकम्। अन्न कई बार गंभीर रोग उत्पन्न कर देता है। डाक्टरी नियम है कीटाढ्यं सर्वथा दक्षैर्भूरिपापप्रदं निशि ॥ ८४॥ कि भोजन करने के बाद थोड़ा-थोड़ा जल पीना चाहिए यह न ग्राह्यं प्रोदकं धीरैर्विभावाँ कदाचन। नियम रात्रि में भोजन करने से नहीं पाला जा सकता है क्योंकि तृट्शांतये स्वधर्माय सूक्ष्मजन्तुसमाकुलम्॥८५॥ इसके लिए अवकाश ही नहीं मिलता है। इसका परिणाम अजीर्ण चतुर्विधं सदाहारं ये त्यजन्ति बुधा निशि। होता है। हर एक जानता है कि अजीर्ण सब रोगों का घर होता तेषां पक्षोपवासस्य फलं मासस्य जायते॥८६॥ है। "अजीर्ण प्रसवा रोगाः" इस प्रकार हिंसा की बात को -जून जिनभाषित 2004 13 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524286
Book TitleJinabhashita 2004 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2004
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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