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रात्रि - भोजन त्याग
ऐसा कौन प्राणी है जो भोजन बिना जीवित रह सके। जब तक शरीर है उसकी स्थिति के लिए भोजन भी साथ है। और तो क्या वीतरागी नि:स्पृही साधुओं को भी शरीर कायम रखने के लिए भोजन की आवश्यकता पड़ती ही है, तो भी जिस प्रकार विवेकवानों के अन्य कार्य विचार के साथ सम्पादन किये जाते हैं उस तरह भोजन में भी योग्यायोग्य का ख्याल रखा जाता है। कौन भोजन शुद्ध है, कौन अशुद्ध है, किस समय खाना, किस समय नहीं खाना आदि विचार ज्ञानवानों के अतिरिक्त अन्य मूढ़ जन के क्या हो सकते हैं। कहा है - " ज्ञानेन हीनाः पशुभिः समाना: " वास्तव में जो मनुष्य खाने-पीने मौज उड़ाने में ही अपने जीवन की इतिश्री समझे हुए हैं उन्हें तो उपदेश ही क्या दिया जा सकता है, किन्तु नरभव को पाकर जो हेयोपादेय का ख्याल रखते हैं और अपनी आत्मा को इस लोक से भी बढ़कर परजन्म में सुख पहुँचाने की जिनकी पवित्र भावना है उनके लिए ही सब प्रकार का आदेश उपदेश दिया जाता है। तथा ऐसों ही के लिए आगमों की रचना कार्यकारी है।
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आगम में श्रावकों के आठ मूलगुण कहे हैं, जिनमें रात्रि भोजन त्याग भी एक मूलगुण है जैसा कि निम्न श्लोक से प्रगट है
आप्तपंचनु तिर्जीवदया सलिलगालनम् । त्रिमद्यादि निशाहारोदुंबराणां च वर्जनम् ॥ -धर्म संग्रह श्रावकाचार
इसमें देव वंदना, जीवदया पालन, जल छानकर पीना, मद्य, मांस, मधु का त्याग, रात्रि भोजन त्याग और पंचोदंबर फल त्याग, ये आठ मूलगुण बताये हैं। जब रात्रि भोजन त्याग श्रावकों के उन कर्त्तव्यों में है जिन्हें मूल (खास) गुण कहा गया है तब यदि कोई इसका पालन नहीं करता तो उसे श्रावक की कोटि में गिना जाना क्यों कर उचित कहा जायेगा ? यदि कोई कहे कि रात्रिभुक्ति त्याग तो छठवीं प्रतिमा में है इसका समाधान यह है कि - छठवीं प्रतिमा को कई ग्रंथकारों ने तो दिवामैथुन त्याग नाम से कही है। हाँ ! कुछ ने रात्रिभुक्ति त्याग नाम से भी वर्णन की जिसका मतलब यही हो सकता है कि इसके पहिले रात्रि भोजन त्याग में कुछ अतीचार लगते थे सो इस छठवीं प्रतिमा में पूर्ण रूप से निरतिचार त्याग हो जाता है। यदि ऐसा न माना जावे तो रात्रि भोजन त्याग को मूलगुणों में क्यों कथन किया जावे बल्कि वसुनन्दि श्रावकाचार में तो यहाँ तक कहा है कि रात्रि भोजन करने वाला ग्यारह प्रतिमाओं में
12 जून जिनभाषित 2004
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स्व. पं. मिलापचन्द्र कटारिया
पहिली प्रतिमा का धारी भी नहीं हो सकता है यथाएयादसेसु पढगं विजदो णिसिभोयणं कुणं तस्स । ठा म्हणिसिभुत्तं परिहरे णियमा ॥ ३१४॥ - बसुनन्दि श्रावकाचार छपी हरिवंश पुराण हिन्दी टीका के पृष्ठ ५२९ में कहा है
कि
"मद्य, मांस, मधु, जुआ, वेश्या, परस्त्री, रात्रि भोजन, त्याग करना चाहिए। ये भोगोपभोग कंदमूल इनका तो सर्वथा परिमाण में नहीं हैं।" मतलब कि हरएक श्रावक को चाहे वह किसी श्रेणी का हो रात्रि भोजन का त्याग अत्यंत आवश्यक है। यहाँ भोजन से मतलब लड्डू आदि खाद्य; इलायची, तांबूल आदि स्वाद्य; रबड़ी आदि लेह्य; पानी आदि पेय इन चारों प्रकार के आहारों से है। रात्रि के समय उक्त चार प्रकार के आहार के त्याग को रात्रि भोजन त्याग कहते हैं। शास्त्रकारों ने तो यहाँ तक जोर दिया है कि सूर्योदय और सूर्यास्त से दो घड़ी पूर्व भोजन करना भी रात्रि भोजन में शुमार किया गया है। यथा
वासरस्य मुखे चांते विमुच्य घटिकाद्वयम् । योऽशनं सम्यगाधत्ते तस्यानस्तमितव्रतम् ॥
पद्मपुराण में कथन है-जिस समय लक्ष्मण जी जाने लगे तो उनकी नव विवाहिता वधू वनमाला ने कहा कि - "हे प्राणनाथ मुझ अकेली को छोड़ कर जो आप जाने का विचार करते हो तो मुझ विरहिणी का क्या हाल होगा ?" तब लक्ष्मण जी क्या उत्तर देते हैं सुनिये -
स्ववधूं लक्ष्मणः प्राह मुंच मां वनमालिके । कार्ये त्वां लातुमेष्यामि देवादिशपथोऽस्तु मे ॥ २८ ॥ पुनरूचे तयेतीश: कथमप्यप्रतीतया । ब्रूहि चेन्नैमि लिप्येऽहं रात्रिभुक्तेरयैस्तदा ॥ २९ ॥
भावार्थ- हे वनमाले मुझे जाने दो, अभीष्ट कार्य के हो जाने पर मैं तुम्हें लेने के लिए अवश्य आऊँगा। मैं प्रतिज्ञा करता हूँ कि अगर मैं अपने वचनों को पूरा न करूँ तो जो दोष हिंसादि के करने से लगता है उसी दोष का मैं भागी होऊँ ।
सुनकर वनमाला लक्ष्मण जी से बोली-मुझे आपके आने में फिर भी संदेह है इसलिए आप यह प्रतिज्ञा करें कि "यदि मैं न आऊँ तो रात्रि भोजन के पाप का भोगने वाला होऊँ" ।
देखा पाठक ! रात्रि भोजन का पाप कितना भयंकर है।
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