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सर्वप्रथम 52 वर्ष की आयु में सन् 1947 में आपने अजमेर | कोसों दूर मुनि ज्ञानसागर जी ने मुनिपद की सरलता और गंभीरता नगर में ही आचार्य श्री वीर सागरजी महाराज से सप्तम प्रतिमा के व्रत अंगीकार किये। 54 वर्ष की आयु में आपने पूर्णरूपेण गृहत्याग कर आत्मकल्याण हेतु जैन सिद्धान्त के गहन अध्ययन में लग गये। सन् 1955 में 60 वर्ष की आयु में आपने आचार्य श्री वीरसागर जी महाराज से ही रेनवाल में क्षुल्लक दीक्षा लेकर ज्ञानभूषण के नाम से विख्यात हुए। सन् 1959 में 62 वर्ष की आयु में आचार्य श्री शिवसागर जी महाराज से खानियाँ (जयपुर) में मुनि दीक्षा अंगीकार कर 108मुनि श्री ज्ञानसागर जी के नाम से विभूषित हुए। और आपको आचार्य श्री का प्रथम शिष्य होने का गौरव प्राप्त हुआ। संघ में आपने उपाध्याय पद के कार्य को पूर्ण विद्वता एवं सजगता से साथ सम्पन्न किया। रूढ़िवाद से
को धारण कर मन, वचन और काय से दिगम्बरत्व की साधना में लग गये। दिन रात आपका समय आगमानुकुल मुनिचर्या की साधना, ध्यान, अध्ययन-अध्यापन एवं लेखन में व्यतीत होता रहा। फिर राजस्थान प्रान्त में ही विहार करने निकल गए। उस समय आपके साथ मात्र दो-चार त्यागी व्रती थे, विशेष रूप से ऐलक श्री सन्मतिसागर जी, क्षुल्लक श्री संभवसागर जी व सुखसागर जी तथा एक-दो ब्रह्मचारी थे। मुनिश्री उच्च कोटि के शास्त्र - ज्ञाता, विद्वान एवं तात्विक वक्ता थे। पंथवाद से दूर रहते हुए आपने सदा जैन सिद्धान्तों को जीवन में उतारने की प्रेरणा दी और एक सदगृहस्थ का जीवन जीने का आव्हान किया। आर. के. हाऊस, मदनगंज - किशनगढ़
जैन अल्प संख्यक समुदाय घोषित होने से समाज में व्याप्त
भ्रान्ति का स्पष्टीकरण
कुछ जैन बंधु वर्तमान पत्रों के माध्यम से भ्रमित प्रचार कर रहे हैं कि जैन समुदाय अल्पसंख्यक नहीं है अपितु वैदिक धर्म का अनुयायी है इसलिये न तो हमें अल्पसंख्यक का दर्जा दिया जाये और न ही उसकी सुविधाएँ।
इस तरह का प्रचार या तो पूर्ण जानकारी के अभाव एवं दुष्प्रचार की भावना से अथवा भ्रान्तियों से प्रमुख रूप से ग्रसित होने के कारण किये जाते हैं। पूर्ण जानकारी के अभाव में की गई ऐसी टिप्पणियाँ सम्पूर्ण समुदाय का मत नहीं हो सकता।
'जैनधर्म, वैदिकधर्म की एक शाखा है', ऐसा कहना अथवा समझना भी सर्वथा अनुचित है। जैनधर्म विशुद्ध रूप से स्वतंत्र धर्म होते हुए भी न जाने क्यों, कुछ जैन बांधव इस प्रकार का गलत प्रचार कर रहे हैं, जो समझ से परे है।
हमारे देश के पूर्व राष्ट्रपति स्व. डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन जैसे महान् दार्शनिक, शिक्षाविद् थे, ने भी मान्य किया है कि, 'जैन धर्म एक स्वतंत्र धर्म है । '
हजारों वर्षों से वैदिक एवं जैन धर्मावलम्बी एकत्रित रूप से रहते आ रहे हैं। अतः उनके रहन-सहन, बोल-चाल एवं व्यवहार में एक-दूसरे की संस्कृति का समन्वय होना स्वाभाविक है। रीति-रिवाज में भी समानता परिलक्षित हो सकती है। और संभवत: इस कारण से वे लोग ऐसी
मनोभावना बना लें कि हम दोनों धर्मों में कोई अंतर नहीं है। यह आपका स्वयं का मत हो सकता है, जन-साधारण की आम सहमति इसे कदापि नहीं मानी जा सकती। समुदाय या समाज समग्र होता है। वह व्यक्ति विशेष अथवा एक की
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धारणा पर नहीं चलता। जैनधर्म भी वैदिकधर्म की एक शाखा है, यह कैसे हो सकता है ? जब कि वैदिकधर्म के विद्वान भी मान्य करते हैं कि वैदिकधर्म और जैनधर्म दोनों अलग-अलग धर्म हैं। इस बात का देश के प्रथम प्रधानमंत्री स्व. पं. जवाहरलाल नेहरू ने अपनी पुस्तक 'डिस्कवरी ऑफ इंडिया' में भी उल्लेख किया है। गहराई से जानें एवं अध्ययन करें तो सभी जैन बंधुओं, समुदायों के लोगों को यह ज्ञात हो जावेगा कि उनका धर्म वैदिकधर्म से भिन्न है। अतः अपनी अनभिज्ञता एवं स्वार्थ के लिये संपूर्ण जैन समुदाय समाज धर्म को ही वैदिक धर्म बनाने या मानने की भूल न करें। ऐसा कोई भी कदम सम्पूर्ण समाज के लिये अहितकारी होगा, हमारी अखंडता के प्रति कुठाराघात होगा।
गौरतलब है कि किसी भी समुदाय को अल्पसंख्यक होने का दर्जा भारतीय संविधान में निहित है। भारतीय संविधान की धारा २५ से धारा ३० के तहत सभी धार्मिक तथा भाषायी अल्पसंख्यक समुदायों के प्रति सकारात्मक रूख रखने का अधिकार राज्य सरकारों को भारतीय गणतंत्र में दिया गया है, जिसके तहत ही समुदायों को अल्पसंख्यक संवैधानिक कवच है। अपनी नादानी एवं भ्रान्तियों अथवा का दर्जा घोषित हुआ है। यह जैनसमाज को प्राप्त एक दुर्भावना से इसे कुंठित न होने दिया जावे। देश के सर्वोच्च न्यायालय ने इसे राज्य सरकारों के अधिकारों की परिधि में निर्देशित किया है, तब फिर भ्रान्ति क्यों ? राज्य सरकारें अपने-अपने राज्य के अल्पसंख्यक समुदाय के उत्थान में कुछ कर रहीं हैं, तो वह हमें शिरोधार्य होना चाहिये ।
संपादक
जून जिनभाषित 2004 11
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