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________________ आचार्य श्री ज्ञानसागर जी की जीवन यात्रा : आँखों देखी सुशीला पाटनी प्राचीन काल से ही भारत वसुन्धरा ने अनेक महापुरुषों | भूरामल जी न्याय, व्याकरण एवं प्राकृत ग्रन्थों को जैन एवं नर-पुंगवों को जन्म दिया है। इन नररत्नों ने भारत के सिद्धान्तानुसार पढ़ना चाहते थे, जिसकी उस समय वाराणसी में सामाजिक, राजनैतिक, धार्मिक, आध्यात्मिक एवं शौर्यता के | समुचित व्यवस्था नहीं थी। आपका मन क्षुब्ध हो उठा, परिणामतः क्षेत्र में अनेकों कीर्तिमान स्थापित किये हैं। जैन धर्म भी भारत आपने जैन साहित्य, न्याय और व्याकरण को पुनर्जीवित करने भूमि का एक प्राचीन धर्म है, जहाँ तीर्थंकर, श्रुतकेवली, केवली | का भी दृढ़ संकल्प लिया। अडिग विश्वास, निष्ठा एवं संकल्प भगवान के साथ-साथ अनेकों आचार्यों, मुनियों एवं सन्तों ने के धनी श्री भूरामल जी ने कई जैन एवं जैनेतर विद्वानों से जैन इस धर्म का अनुसरण कर मानव समाज के लिए मुक्ति एवं वाँङ्गमय की शिक्षा प्राप्त की। वाराणसी में रहकर ही आपने आत्मकल्याण का मार्ग प्रशस्त किया है। स्याद्वाद महाविद्यालय से 'शास्त्री' की परीक्षा पास कर आप पं. इस 19-20 वीं शताब्दी के प्रथम दिगम्बर जैनाचार्य | भूरामल जी नाम से विख्यात हुए। वाराणसी में ही आपने जैनाचार्यों परमपूज्य, चारित्रचक्रवर्ती आचार्य 108 श्री शांतिसागर जी महाराज द्वारा लिखित न्याय, व्याकरण, साहित्य, सिद्धान्त एवं आध्यात्म थे जिनकी परम्परा में आचार्य श्री वीरसागर जी. आचार्य श्री | विषयों से अनेक ग्रन्थों का गहन अध्ययन किया। शिवसागर जी इत्यादि तपस्वी साधुगण हुए। मुनि श्री ज्ञानसागर | बनारस से लौटकर आपने अपने ही ग्रामीण विद्यालय में जी, आचार्य श्री शिवसागर जी महाराज से वि.सं. 2016में खानियाँ | अवैतनिक अध्यापन कार्य प्रारम्भ किया, लेकिन साथ में, निरन्तर (जयपुर) में मुनि दीक्षा लेकर अपने आत्मकल्याण के मार्ग पर | साहित्य साधना एवं साहित्य लेखन के कार्य में भी अग्रसर होते सत्तारूढ़ हो गये थे। आप शिवसागर आचार्य महाराज के प्रथम | गये। आपकी लेखनी से एक से एक सुन्दर काव्यकृतियाँ जन्म शिष्य थे। लेती रही। आपकी तरुणाई विद्वता और आजीविकोपार्जन की मनि श्री ज्ञानसागर जी का जन्म राणोली ग्राम (सीकर- | क्षमता देखकर आपके विवाह के लिए अनेकों प्रस्ताव आये. राजस्थान) में दिगम्बर जैन के छाबडा कल में सेठ सखदेवी जी | सगे सम्बन्धियों ने भी आग्रह किया। लेकिन आपने वाराणसी में के पुत्र श्री चतुर्भुज जी की धर्मपत्नी घृतावरी देवी की कोख से | अध्ययन करते हुए ही संकल्प ले लिया था कि आजीवन ब्रह्मचारी हुआ था। आपके बड़े भ्राता श्री छगनलाल जी थे तथा दो छोटे रहकर माँ सरस्वती और जिनवाणी की सेवा में, अध्ययनभाई और थे तथा एक भाई का जन्म तो पिता श्री के देहान्त के | अध्यापन तथा साहित्य सृजन में ही अपने आपको समर्पित बाद हआ था। आप स्वयं भरामल के नाम से विख्यात हए। करुंगा। इस तरह जीवन के 50 वर्ष साहित्य साधना, लेखन, प्रारम्भिक शिक्षा गाँव के प्राथमिक विद्यालय में हई। साधनों के | मनन एवं अध्ययन में व्यतीत कर पूर्ण पांडित्य प्राप्त कर लिया। अभाव में आप आगे विद्याध्ययन न कर अपने बड़े भाई जी के | इसी अवधि में आपने दयोदय, भद्रोदय, वीरोदय, सुदर्शनोदय साथ नौकरी हेतु गयाजी (बिहार) आ गये। वहाँ 13-14 वर्ष आदि साहित्यिक रचनायें संस्कृत तथा हिन्दी भाषा में प्रस्तुत की की आयु में एक जैनी सेठ की दुकान पर आजीविका हेतु कार्य वर्तमान शताब्दी में संस्कृत भाषा के महाकाव्यों की रचना की। करते रहे। लेकिन आपका मन आगे पढ़ने के लिए छटपटा रहा परम्परा को जीवित रखने वाले मूर्धन्य विद्वानों में आपका नाम था संयोगवश स्याद्वाद महाविद्यालय वाराणसी के छात्र किसी । विशेष रूप से उल्लेखनीय है। काशी के दिग्गज विद्वानों की समारोह में भाग लेने हेतु गयाजी (बिहार) आये। उनके प्रभावपूर्ण | प्रतिक्रिया थी "इस काल में भी कालीदास और माघकवि की कार्यक्रमों को देखकर युवा भरामल के भाव भी विद्या प्राप्ति हेत | टक्कर लेने वाले विद्वान हैं, यह जानकर प्रसन्नता होती है।" इस वाराणसी जाने के हुए। विद्या-अध्ययन के प्रति आपकी तीव्र तरह पूर्ण उदासीनता के साथ, जिनवाणी माँ की अविरत सेवा में भावना एवं दृढ़ता देखकर आपके बड़े भ्राता ने 15 वर्ष की आयु आपने गृहस्थाश्रम में ही जीवन के 50 वर्ष पूर्ण किये। जैन में आपको वाराणसी जाने की स्वीकृति प्रदान कर दी। सिद्धान्त के हृदय को आत्मसात करने हेतु आपने सिद्धान्त ग्रन्थों श्री भूरामल जी बचपन से ही कठिन परिश्रमी अध्यवसायी, श्री धवल, महाधवल, जयधवल, महाबन्ध आदि ग्रन्थों का स्वावलम्बी एवं निष्ठावान थे। वाराणसी में आपने पूर्ण निष्ठा के विधिवत स्वाध्याय किया। "ज्ञान भारं क्रिया बिना" क्रिया के साथ विद्याध्ययन किया और संस्कृत एवं जैन सिद्धान्त का गहन बिना ज्ञान भार स्वरूप है - इस मंत्र को जीवन में उतारने हेत अध्ययन कर शास्त्री परीक्षा पास की। जैन धर्म से संस्कारित श्री | आप त्याग मार्ग पर प्रवृत्त हुए। 10 जून जिनभाषित 2004 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524286
Book TitleJinabhashita 2004 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2004
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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