SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 11
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ऊपर से काटा गया वृक्ष पुनः पल्लवित हो जाता है। पर तौलकर विद्या को तिरस्कृत करते हैं उन्हें आचार्य श्री की एक बार आचार्य श्री विद्यासागर जी ने पूछा कि जब आप यह सीख सदा स्मरण रखनी चाहिए कि धर्म से पार तो हो नहीं होंगे और मैं विहार करूँगा तब मुझसे धर्म की प्रभावना सकता है व्यापार नहीं। किस प्रकार हो सकेगी? तब आचार्य श्री ज्ञानसागर जी ने उत्तर राजा यशोधर की कथा के माध्यम से आचार्य श्री का यह दिया था कि - मार्मिक उपदेश ही हमारे लिए सार्थक है - 'अप्रभावना नहीं करना ही सबसे बड़ी प्रभावना है।' 'जिनवाणी का है यही मित्र सुनो व्याख्यान वास्तव में ये पंक्तियाँ कितनी विधायी सोच को अभिव्यक्त अभिरुचि परोपकार में निज हित का हो ध्यान। करती हैं। उनका मानना था कि जहाँ विचार ठीक हुए कि फिर निज हित का हो ध्यान करे फिर बिलम्ब कैसे, सुधार सहज है। यहीं वे संत की कोटि से उठकर एक संत तजे नहीं क्यों जगविभूति को विभूति जैसे।' दार्शनिक की कोटि पर विराजे प्रतीत होते हैं क्योंकि दार्शनिक इस तरह आचार्य श्री ज्ञानसागर जी की वाणी हमें पग-पग तो मात्र विचार करता है जबकि संत-दार्शनिक उन विचारों को | पर सम्बोधती चलती है, गिरने से बचाती है। उनके जैसा संत क्रियारूप मेव अपनाता भी है । आचार महान है और जिनका | संसार में कभी-कभी उत्पन्न होता है। आज यह हमारा सौभाग्य आचार महान होता है वे व्यक्ति भी महान होते हैं आचार्य है कि जिन्होंने उनसे दीक्षा ली ऐसे आचार्य श्री विद्यासागर जी ज्ञानसागर जी ऐसे ही महान संत थे। वे यह अच्छी तरह जानते । महाराज में उनकी चर्या को देख पा रहे हैं और यह भी सौभाग्य थे कि आज जैनधर्म के मुख्य पालक वणिक हैं। इसलिए वे है कि उनके विपुल साहित्य में हम उनके हृदय को पढ़ पा रहे कहा करते थे कि 'सामने आयी पुस्तक को उठाकर यह नहीं | हैं। सोचना कि इसमें क्या मिलेगा या यह कितने की है? नहीं तो वणिक के आगे नहीं बढ़ोगे।' आज जो धर्म को धन के तराज घर के.आर. पथिक घर उनका है ही नहीं वे रहते हैं इस शान से जैसे बनाया गया है घर उन्हीं के लिये। और था जिनका घर वे चले गये छोड़कर हमेशा हमेशा के लिये किसी नये घर की तलाश में। मैं सोचता हूँ कितना कष्ट प्रद होता है बार बार घर का बदलना और बार बार का बनाना नये घर का बसाना। मेरे आराध्य अब तो इतना समर्थ बनादे कि हो जाऊँ मुक्त बार बार बनाने और बदलने से किसी भी घर के। 172, दुर्गा मार्ग, विदिशा -जून जिनभाषित 2004 9 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524286
Book TitleJinabhashita 2004 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2004
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy