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विचार को जिनशासन-सम्मत सिद्ध करने की चेष्टा की जा रही हो, जब जिनशासन-प्रतिकूल आचरण अपनाकर श्रावकों से उसे मान्यता दिलायी जा रही हो और ऐसा करके जिनशासन के मूलस्वरूप का विध्वंस किया जा रहा हो, तब जिनशासन-भक्त मुनियों और श्रावकों को उसे रोकने का प्रयत्न करना चाहिए और समीचीन आचार-विचार का प्रकाशन और प्रचार करना चाहिए। अन्यथा जिनशासनविरुद्ध आचार-विचार फैलता ही जायेगा और एक दिन वह जिनशासन के मूलस्वरूप को लील जायेगा। अतः ऐसे दावानलवत् जिनशासनघाती आचार-विचार के उपगूहन का उपदेश आगम में नहीं है।
___ आज हम देखते हैं कि एक तरफ एकान्तनिश्चयवाद पाँव पसार रहा है। वर्तमान में अनेक मुनिसंघ आगमानुकूलचर्या करते हुए प्रत्यक्ष दिखाई दे रहे हैं। फिर भी यह आगमविरुद्ध विचारधारा फैलाई जा रही है कि पंचमकाल में कोई सच्चा मुनि नहीं हो सकता, सब मुनि द्रव्यलिंगी होते है, अतः कोई भी मुनि पूज्य नहीं है। व्रतसंयमादि को मात्र पुण्यबन्ध का कारण, निमित्त को अकिंचित्कर और जीव की प्रत्येक पर्याय को क्रमबद्ध (नियत)बतलाया जा रहा है, जिसके फलस्वरूप श्रावक अकर्मण्य और व्रतसंयमादि से विमुख हो रहे हैं। दूसरी ओर अनेक मुनि घोर शिथिलाचारी हो रहे हैं। अट्ठाईस मूलगुणों का भी पालन नियमपूर्वक नहीं करते। परीषहों से बचने का प्रयत्न करते हैं, और लौकिक ख्याति की तीव्र आकांक्षा से ग्रस्त हैं। वे श्रावकों को पंचपरमेष्ठी की भक्ति से विमुखकर लौकिक आकांक्षाओं की पूर्ति के लिए क्षेत्रपाल-पद्मावती आदि शासन-देवताओं की पूजा-भक्ति हेतु प्रेरित करते हैं। मंत्र-तंत्र द्वारा ऐहिक कार्यों की सिद्धि का प्रलोभन देकर भक्तों की भीड़ जुटाते हैं । मुनिवेश में रहते हुए भी गृहस्थों की भट्टारकगद्दी पर आसीन हो जाते हैं और मन्दिर-मठ-तीर्थ आदि की व्यवस्था का गृहस्थोचित कार्य करने लगते हैं अथवा मुनिवेश छोड़कर और सर्वांगवस्त्र धारणकर 'भट्टारक' नामक गृहस्थ बन जाते हैं और यही कार्य करने लगते हैं, फिर भी पिच्छी-कमण्डलु रखते हैं और अपने को क्षल्लक कहकर पजवाते हैं।
ये उन्मार्गी एकान्तनिश्चयवाद और एकान्तव्यवहारवाद, दोनों जिनशासन की दुष्प्रभावना करते हुए उसके मूलस्वरूप की जड़ों पर कुठाराघात कर रहे हैं। क्या जिनेन्द्रदेव की इनके उपगूहन की आज्ञा हो सकती है? कदापि नहीं, क्योंकि इनका उपगूहन जिनशासन की अन्त्येष्टि का कारण होगा। इसीलिए आचार्य शुभचन्द्र ने ज्ञानार्णव के पूर्वोद्धृत श्लोक में कहा है कि विद्वानों को आगमविरुद्ध आचार-विचार का डटकर विरोध करना चाहिए और आगमसम्मत आचार-विचार का उपदेश देना चाहिए। अर्थात् मुनिराजों, पण्डितों और पत्रकारों का यह कर्त्तव्य होता है
नों. भाषणों और लेखों से उपर्यक्त प्रकार के जिनशासनविरुद्ध आचार-विचारों का विरोध करें और उन्हें फैलने से रोकें। मुनिश्री के भोपाल में रहते हुए रात में बारात निकाल कर जैन बन्धुओं ने सम्पूर्ण भारत के जैनों में यह आगमविरुद्ध विचार फैलाने की भयंकर भूल की है कि नाटक के अन्तर्गत रात में सड़कों पर बारात निकालना आगमविरुद्ध नहीं है। इसलिए मैंने 'ज्ञानार्णव' के उपर्युक्त वचनों का पालन करते हुए 'जिनभाषित' में लेख लिखकर इस विचार को आगम विरुद्ध बतलाया है, जिससे अन्य स्थानों के जैनबन्धु इसका अनुकरण न करें। अतः पर्वोक्त वाणिज्यजीवी बन्धु का यह कथन आगमसम्मत और जिनशासन-हितकारी नहीं है कि मुझे बारात निकालने की बात नहीं छापनी चाहिए थी। ___यदि पत्र-पत्रिकाओं में कोई समाचार गलत छपता है, तो उन्हीं पत्र-पत्रिकाओं में स्पष्टीकरण छपवाकर उसका खण्डन किया जा सकता है। यदि स्पष्टीकरण सही है, तो सम्पादक अपनी गलती के लिए खेद व्यक्त करता है। किन्तु स्पष्टीकरण न छपवाकर पत्रिका को जलाने और सम्पादक को मिटाने का विचार मन में लाना तो जैनों का चरित्र नहीं है, जैनधर्म को मिटानेवालों का चरित्र है। जिनशासन-भक्तों को ऐसे चरित्रवालों से सावधान रहने की आवश्यकता है।
रतनचन्द्र जैन
मई 2004 जिनभाषित
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