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________________ भट्टारक स्वरूप समझें आचार्य श्री विद्यासागर जी सोमवार, ८ नवम्बर १९९९ कार्तिक वदी अमावस्या दीपावली, गोम्मटगिरि, इन्दौर पर दिया गया ऐतिहासिक प्रवचन) कार्तिक वदी अमावस्या के दिन चातुर्मास वर्षायोग का निष्ठापन किया जाता है जिस दिन वीर भगवान का निर्वाण हुआ था । वर्षायोग के समय में श्रमण अपनी चर्या को साधना के लिये बाँध लेते हैं । जैन सिद्धांत और आचार संहिता के अनुसार जैन श्रमण-साधक एक स्थान पर कहीं भी रुक नहीं सकते। जैन श्रावक साधु को रोकने की इच्छा तो करते हैं, लेकिन संतों ने इस आग्रह को स्वीकार नहीं किया। काल तथा परिस्थिति के अनुसार कितनी भी विकट परिस्थितियाँ आ जायें, किंतु एक स्थान पर रुक कर के मोह के कारण वे आश्रय नहीं ले सकते। वे साधु- श्रमण कहलाते हैं । श्रमण जिस दिन इस क्रिया को छोड़ देंगे, उस दिन धर्म के अस्तित्व पर प्रश्न चिन्ह आ जायेगा। यह कार्य बिना मोह तब इन्हें बहुत पश्चाताप करना पड़ेगा। इस संबंध में एकान्त में भी कहा, सुना तो, लेकिन इन लोगों ने इस बात को (हमारी बात को) स्वीकारा नहीं । या तो बात सुन ली या कुछ सामाजिक समस्याओं का बहाना कर आनाकानी कर दी । आज समाज के सामने मैं संदेह का कारण बन चुका हूँ। आप क्यों नहीं बोलते हैं ? हमारे पास खुले पत्र आते हैं : 'क्यों महाराज! आप इस बारे में बोलते क्यों नहीं हैं ? संभव है आप ख्याति, पूजा के चक्कर में हैं।' अनेक ऐसे श्रीमान् (समाज प्रमुख) जानते हुए भी इस दूषण को दूर करने का प्रयास नहीं कर रहे हैं। भट्टारकों की इस प्रकार की परंपरा आगमोक्त अनुसार नहीं है। जैन साहित्य में इस चर्या के बारे में कोई उल्लेख नहीं है। उस चर्या का बड़े-बड़े सेठ, साहुकार आँख मीचकर समर्थन कर रहे हैं। उनके कारण महान् कुंदकुंद-साहित्य को एक प्रकार से धक्का लग रहा है। आचार्य शांतिसागरजी महाराज, आचार्य समंतभद्र महाराज तथा और भी अनेक आचार्य हुए हैं। उन्होंने भी इस परंपरा को आगमोक्त नहीं माना। किंतु कई सेठ, साहुकारों ने इसे आगमोक्त कहते हुए इसका समर्थन किया है। इस (भट्टारक) परंपरा को निश्चित रूप से बंद कर देना चाहिये। समाज की निष्क्रियता का परिणाम यह हुआ है। कि वर्तमान में उत्तर भारत में मुनियों को भट्टारक परंपरा बनाने और उसे विशेष रुप से प्रोत्साहित करने का कार्य किया जाना है। मेरे सामने यह समस्या आयी है तो मैंने कहा इसका सर्मथन करने वाले कौन हैं ? तब पता चला दक्षिण के भट्टारकों ने दिगम्बर मुनि महाराज को भट्टारक बनाने का एक बीड़ा उठाया है। उनके समर्थक जो कोई भी होंगे, जैन-शासन को जानने वाले नहीं होंगे। जो जैन-शासन को जानते हैं तो उन्हें चाहिए की वे इस कदम को वापस ले लें। यदि ऐसा नहीं होता है, कदम पीछे नहीं लिया जाता है तो भयानक स्थिति होगी, ध्यान रखना । यहाँ पर केवल एक बार भोजन करने मात्र से श्रमण परंपरा निश्चित नहीं की जा सकती । ध्यान रखो, जो व्यक्ति परिग्रह का समर्थन करेगा और परिग्रह, आरंभ का समर्थन करेगा, जैन शासन में उसे श्रमण कहने / कहलाने का अधिकार नहीं है। जो मठाधीश होकर के बैठ रहे हैं, वे कभी भी जैन शासन के प्रभावक नहीं माने जावेंगे। संभव नहीं हो सकता । काल, मान, परिस्थिति अथवा राजकीय सत्ताओं के कारण पूर्व में कुछ ऐसा समय आ गया था और उस समय कुछ परिधियाँ बँध गयी थीं। कुछ प्रदेशों में विहार होता था, कुछ में नहीं हो पाता था। उन थपेड़ों को सहन करते हुए भी परंपरा अक्षुण्ण रूप से आज तक कायम है। किसी-किसी क्षेत्र में अपवाद देखने को मिलते हैं, उसकी दशा किस ढंग से भयानक हुई है, जो समाज के सामने आज विद्यमान है ? उसी का परिणाम है कि श्रमणों अर्थात् साधुओं के सामने विहार की एक समस्या आ गयी। इसी कारण भारत में एक प्रकार से भट्टारक परंपरा उद्भूत हो गयी । भट्टारक मठाधीश बन गये। कालांतर में श्रमणों ने एक स्थान पर रहते हुए भी वस्त्रों को अंगीकार कर लिया । श्रमण संस्कृति का उज्ज्वल साहित्य अपने यहाँ विद्यमान है। किंतु भट्टारकों की परंपरा के संबंध में कोई साहित्य अपने यहाँ उपलब्ध नहीं है। जो अपवाद मार्ग होता है उसके लिये कोई साहित्य की रचना नहीं की जाती है। आज बड़े-बड़े विद्वान और सेठ, साहुकार भी इसका कड़वा घूँट पीते चले जा रहे हैं। उनके लिये हमारा विशेष रूप से निवेदन है यदि वे नेता (समाज के) जैन समाज के दूषण को समाप्त करने के लिये इस कार्य में भाग लें और मिटाने के लिये संकल्प कर लें तो बड़ा काम होगा। जैन- समाज का वे बड़ा काम कर देंगे। समाज के नेता लोगों को अब इस ओर काम करना चाहिए। कल ही मैं कहना चाहता था लेकिन बंधन था (चातुर्मास - निष्ठापन नहीं हुआ था)। अब आज मैं बँधन मुक्त हो गया हूँ। हमारे यहाँ श्रीमान् बहुत हैं, लेकिन स्वाध्यायशील नहीं हैं। भारतवर्षीय दिगम्बर जैन महासभा है, महासमिति है और अन्य संस्थाएँ भी हैं। ये हमारे सामने समस्या लेकर तो आ जाते हैं किंतु जब हम शास्त्रोक्त पद्धति से कहते हैं तो उसके लिये आनाकानी कर देते हैं। एक समय इन श्रीमानों के सामने ऐसा आ सकता है, 8 मई 2004 जिनभाषित Jain Education International भट्टारक परंपरा ने प्राचीन समय में बहुत काम किया हो, तो मैं मानता हूँ, वह कार्य उस समय रक्षा के लिये ठीक था । पर वह एक परम्परा, पंथ, मार्ग नहीं बन सकता। उसे एक आदर्श नहीं माना जा सकता। २५०० वाँ निर्वाण महोत्सव मनाया जा रहा था। उस समय मैं अजमेर में था। तब एक व्यक्ति ने आकर कहा'महाराज ! विदेश में भी कुछ लोगों को, श्रमणों को जाना चाहिए। ताकि वहाँ के लोग भी श्रमण-परंपरा से अवगत हों।' मैंने कहा For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524285
Book TitleJinabhashita 2004 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2004
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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