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________________ हमारे पीछे एक चर्या है। इस चर्या को आदर्श मानकर हम यत्र- | बारे में कटिबद्ध होकर काम होना चाहिए। जैन-दर्शन से विपरीत तत्र विचरण करते हैं। जहाँ पर श्रावक नहीं हैं। आगम में कहा | चलेंगे, तो कौन इसका निर्वाह करेगा? एकता के बल पर देव, गुरु, है- वहाँ पर न जाये। जहाँ पर उपसर्ग होते हों, कषाय उद्भूत | शास्त्र की रक्षा के लिए तीनों समितियों को काम करना चाहिए। होती हो- वहाँ पर न जायें। वीतरागता की उपासना करने में जहाँ इनकी आपस में जितनी वैमनस्यताएँ हैं, उन्हें अपने अन्दर ही पर श्रावक तल्लीन हो, वहाँ पर जायें। उस समय कई भट्टारक सीमित रखना चाहिए। उन्हें अखबार इत्यादि तक नहीं ले जाना विदेश यात्रा करके आये। वहाँ उनसे पूछा गया था कि 'जैन साधु चाहिये। दिगम्बरत्व तब ही सुरक्षित रह सकता है, अन्यथा सुरक्षित तो दिगम्बर होते हैं और आप तो वस्त्र में हैं।' प्रश्न का उत्तर दिया | नहीं रह सकता। इसका कोई जवाब नहीं दिया गया। मठाधीश गया- 'हम श्रमण परंपरा के अंतिम साधु हैं।' अंतिम साधु के | होने वाला क्षुल्लक नहीं होता। इन भट्टारकों से हमारा पूछना है उत्तर पर मैंने कहा, अंतिम साधु कौन होता है ? इसका भी कोई | कि क्या वे अपने आप को क्षुल्लक मानते हैं ? नहीं मानते हैं, तो हल होना चाहिए। आचार्य कुंदकुंद के अनुसार तीन ही लिंग हैं- क्या ऐलक मानते हैं ? नहीं मान सकते हैं, तो क्या मुनि मानते हैं ? पहला श्रमण-दिगम्बर मुनि रुप, दूसरा श्रावक रुप ऐलक-क्षुल्लक, | नहीं मान सकते, तो फिर पिच्छी हाथ में क्यों है? जिन्हें श्रावक शिरोमणी भी कह सकते हैं और तीसरा स्त्री समाज यदि भट्टारक अपने आप को क्षुल्लक मानते हैं तो उन्हें में आर्यिका का, उसी में श्राविकारुप क्षुल्लिका को भी रख सकते | आरंभ एवं परिग्रह की अनुमति नहीं दी जा सकती तथा वे मठ में हैं। दिगम्बर जैन साहित्य में ये ही तीन लिंग हैं। क्षुल्लक-पद भी नहीं रह सकते। उन्हें ग्यारह प्रतिमाओं का पालन करना और वर्तमान में भट्टारक का पद एक समान माना जा रहा है, ये आवश्यक है। उन्हें आरंभ-सारंभ की तथा उद्दिष्ट भोजन की गलत है। क्षुल्लक एक स्थान पर रुक नहीं सकता है। वह मुनि के | अनुमति नहीं है। महान दार्शनिक आचार्य समन्तभद्र स्वामी ने पास रहा करता है। मुनि महाराज, आचार्य महाराज जैसा कहते हैं | रत्नकरण्ड-श्रावकाचार में क्षुल्लक पद का स्परुप उल्लेखित किया उसके अनुसार वह अपनी वृत्ति रखता है। काल मान की अपेक्षा है। वह मात्र चादर एवं लंगोटी ही अपने पास रखता है, पर वे भी से कहीं एकादि रह गया हो, तो यह बात अलग है। उसे विधान | फनाफन नहीं रहते। जो उदिष्ट भोजन ग्रहण करता हो अथवा नहीं माना जा सकता। आज के भट्टारक न मुनि हैं, न ऐलक हैं, मठाधीश हो वह क्षुल्लक नहीं है। ऐसी दशा में वह ऐलक या न क्षुल्लक हैं। क्योंकि क्षुल्लक-पद के योग्य ग्यारह प्रतिमाएँ | मुनि भी नहीं है, तो फिर हाथ में पिच्छीका क्यों रखते हैं ? जिन निर्धारित की गई हैं। इन भट्टारकों के पास कौन सी प्रतिमाएँ हैं, लिंग के संबंध में मूलाचार आदि अधिकांश ग्रंथ हमने पढ़े हैं। यह प्रश्न हमने उठाया? कुछ भी जवाब नहीं दिया गया। कुछ | पिच्छी को श्रमण का लिंग, चिन्ह माना गया है। इस चिन्ह को लोग कहते हैं कि आज भट्टारकों की बड़ी आवश्यकता है। लेकर स्वयं को क्षुल्लक रूप कहकर के यद्वा-तद्वा प्रचार करना हमने कहा १००८ भट्टारक बना लो। लेकिन उसका लिंग जैन-दर्शन के लिये मान्य नहीं है। इन सब बातों को आप वर्षों से निर्धारित कर दो। वह आगम के अनुकूल होना चाहिए। नहीं तो कैसे सुन रहे हैं? क्या कर रहे हैं? यह हमें समझ में नहीं आता। उनके साथ समाचार करना, गलत व्यवहार हो जायेगा। यदि | ड्रेस और एड्रेस मुख्य माने जाते हैं। शास्त्र में भी इसी प्रकार से क्षुल्लक के रूप में व्यवहार होता है तो मार्ग दूषित हो जायेगा। मिलावट आने लग जाये, तो दिगम्बरत्व को कैसे सुरक्षित रखेंगे? समाज में विप्लव हो सकता है। हमारे पास संघ बहुत बड़ा है। केवल जय बोलने मात्र से दिगम्बरत्व सुरक्षित नहीं रहने वाला है। उनके साथ कैसा व्यवहार, समाचार किया जाये? यदि ऐसा नहीं | आपस के मनमुटाव को बंद करके सोचना चाहिये। यदि जैनकरते हैं तो जैनेतर लोग देखकर के हँसेंगे। एक मुद्रा है, एक | समाज नहीं सोचता है तो कई व्यक्तियों ने मेरे पास जो पत्र भेजे हैं. आदर्श है, एक पद होता है, इसका निर्धारण करो। इस बात को | तब हम कह सकते हैं आप मेरे पास पत्र मत भेजा करो। पत्र किसी ने भी आज तक नहीं सुना। बड़ी-बड़ी, लम्बी-चौड़ी बातें | भेजकर आप हमें अगुआ करना चाहते हैं। आप हमारी बात सुनते तो होती हैं, लेकिन आगम के आधार पर नहीं होती हैं। महाराजों | तक नहीं हैं। यह आप लोगों के लिये उचित नहीं लगता। अभीके पास बैठक रखी जाती है। अनेक प्रकार की बातें समाज में की | अभी यहाँ भी कई पत्र आये थे। एक भट्टारक ने दिगम्बरत्व मुनि जाती हैं। किंतु इस बारे में सोचा नहीं गया। को भट्टारक बनाने का संकल्प लिया था। जब मालूम पड़ा तो हमने कहा, तीन प्रमुग शीर्ष संस्थाएँ समाज की हैं। बात वापस ले ली। क्यों ली बताओ? क्यों पीछे ली? क्या एक महासभा, महासमिति और परिषद्। यदि इस ओर इन्होंने नहीं भट्टारक मुनि महाराज को भट्टारक बना सकता है? क्या एक देखा तो हम अपनी बात जनता अर्थात् (समाज) के सामने रख | वस्त्रधारी भट्टारक सीधे-सीधे क्षुल्लक बना सकता है ? दीक्षा दे सकते हैं। तब एकमात्र (भारतवर्षीय नाम की) आप लोगों की सकता है ? क्या एक भट्टारक किसी को मुनि बनाकर के उसको उपाधि समाप्त हो जायेगी, ध्यान रखना। इसलिये कहीं भी एक | क्षुल्लक बना सकता है ? यह ऐसे प्रश्न हैं, जिनके उत्तर किसी के मीटींग रख ली और स्वयं को भारतवर्षीय कहने लगे। भारतवर्षीय | पास नहीं हैं। न श्रीमान्जी के पास, न धीमान्जी के पास। तो समाज है। आप समाज से कोई संस्था खड़ी करना चाहते हैं, | धीमानजी के पास उत्तर तो हैं लेकिन वह डरते हैं। इनके कोई भी तो वह आगम के लिये सम्मत प्रतिबद्ध होना चाहिए। आगम के | शास्त्रोक्त उत्तर नहीं मिलते। यदि कोई विद्वान शास्त्रोक्त लिख भी मई 2004 जिनभाषित 9 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524285
Book TitleJinabhashita 2004 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2004
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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