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________________ देता है तो उसका मुख बंद कर दिया जाता है। हमें भी ऐसा कह दें कि आप इसके बारे में बोलिये नहीं। पर हम अवश्य बोलेंगे। आपको इस बारे में निर्णय करना होगा। यदि निर्णय नहीं किया जाता है तो हम समाज के सामने आव्हान कर सकते हैं क्योंकि इस प्रकार की परम्परा की कोई आवश्यकता नहीं है ? कुछ समय के लिये क्षेत्रों इत्यादि के लिये व्यवस्था कर दी गई है। लेकिन पिच्छी के साथ कोई ट्रस्टी बन सकता है क्या ? क्या पिच्छी के साथ ताला- कूँची ले सकता है ? क्या पिच्छी के साथ बैंक बेलेंस रख सकता है ? क्या पिच्छी के साथ कोई खेतीबाड़ी कर सकता है ? आप लोगों को कोई आदर नहीं है। आप लोगों को श्रमण-परंपरा के प्रति क्या कोई आदर नहीं है ? आप लोगों को स्वाभिमान नहीं है ? क्या विद्वान् इस बात को नहीं जानते ? इस बात को उठाने से दबाया क्यों जाता है ? (इनडायरेक्ट) अप्रत्यक्ष क्यों जवाब दिया जाता है ? वर्षों से हमने इस बात को इसलिये नहीं उठाई, जिस समय हमारे पास भट्टारकजी (भट्टारक चारुकीर्ति, श्रवणबेलगोला ) आये थे, यह बात मढ़ियाजी (जबलपुर) की है, और उनके सम्मान करने की बात आ गयी । हमारे सान्निध्य की बात करके भट्टारकजी के सम्मान की बात करते हैं, तो मैं भट्टारक की व्याख्या करके रहूँगा और हमने भट्टारक की व्याख्या की है। उस व्याख्या को दुबारा करने की आवश्यकता नहीं है। यदि चाहें तो हम पुन: कर सकते हैं। उससे भी बढ़िया व्याख्या कर सकते हैं। अभी तक इस बात को आठ-दस साल हो गये, किसी भट्टारक ने गौर नहीं किया। क्योंकि उसके पीछे समर्थन है । आप समर्थन करना चाहते हैं तो करिये, लेकिन मार्ग को दूषित न करिये। अब हम इस बात को सहन नहीं कर सकते। कई व्यक्तियों ने इनडायरेक्ट बात की, जो गलत बात है। गृहस्थ अलग और श्रमण-परंपरा अलग होती है। गृहस्थ की एक मर्यादा होती है। क्षेत्रों का रख रखाव, उन्नति, सुरक्षा आदि आवश्यक होते हैं। इस बात को तो हम मान्य करते हैं ऐसा आदर्श कार्य कोई भट्टारक करे तो उसे गृहस्थाचार्य बोला जा सकता है। उन्हें एक उपाधि दीजिये। उनके हाथ में पिच्छी अवैध है। कि यूँ कहिये दिगम्बर समाज के लिये इसमें बहुत नीचा देखना पड़ता है। हम उसको कौन सा पद मानेंगे ? उनका पूरा का पूरा कार्य क्षुल्लकवत् चल रहा है। यह ठीक नहीं है। आप आगम को आदर दे दो। आपको सहर्ष स्वीकार करना चाहिये । भट्टारक लोग पढ़े लिखे हैं । कुछ डबल एम. ए. हैं। सब कुछ जानते हैं । वर्तमान में पाँच-पाँच, छः-छः भट्टारकों को दीक्षा दे दी गई है। और इस सबका समर्थन किया गया है। लेकिन मैं इनका समर्थन नहीं करने वाला हूँ। और कोई समर्थन करना चाहे तो उनकी बात नहीं कह सकता। इसलिये की यह एक प्रकार से जैन - साहित्य, दर्शन, आचार-संहिता के लिये महादोष माना गया है। शैथिल्य अलग वस्तु और मार्ग दूषण अलग वस्तु है । शैथिल्य किसी वजह से हो सकता है, जो किसी व्यक्ति तक सीमित रहता है ।। 10 मई 2004 जिनभाषित Jain Education International शैथिल्य विधान नहीं हो सकता। आज भट्टारक पद को वैधानिक रूप दिया जा रहा है और उसमें बहुत बड़े-बड़े सच्चे देव, गुरु एवं शास्त्र को मानने वाले ही उनकी रक्षा करने में जो लगे हैं, उनको सोचना चाहिए। शास्त्र का मार्ग तो उन्होंने बिल्कुल ही परिवर्तित कर दिया है। विद्वानों के बारे में मैं ज्यादा तो नहीं कह सकता । श्रीमानों के लिये भी में इतना कह सकता हूँ की वे जो मुझे पत्र भेजते हैं, उनको सोचना चाहिए। मुझे आगे करके वह क्या करना चाहते हैं ? मार्ग तो मार्ग माना जाता है। यदि शैथिल्य का कोप हो जाता है तो मार्ग दूषित हो जायेगा। उसे वैधानिक रूप नहीं दिया जा सकता। फिर उनका लिंग क्या हुआ ? उनकी व्यवस्था क्या होगी ? इन बातों को आप लोग जहाँ-कहीं भी जावेंगे, अवश्य रखेंगे। हम अपनी तरफ से इस बारे में अवश्य सोचेंगे और उसे मूर्त रूप देने का विचार करेंगे। अभी-अभी हमें पढ़ने में आया है कि, दक्षिण भारत में भट्टारक परंपरा की आवश्यकता है, तो पिच्छी रखकर के (अलग करके) आप भट्टारक परंपरा चला सकते हैं, इसमें कोई बाधा नहीं है। इसे आदर्श के रूप में आप चला सकते हैं। लेकिन भट्टारकों को पिच्छी की आवश्यकता है, तो आपको (भट्टारकों) ग्यारह प्रतिमा का पालन करना होगा। यह ध्यान रखना जितने जितने व्यक्तियों को आपने दीक्षा दी है, दिलवायी है उनको भी ठीक, वैधानिक रूप में नहीं माना जा सकता। एक भट्टारक जो. किसी पद पर नहीं है उसे पिच्छी दिलाने का किसी को कोई अधिकार नहीं है । पिच्छी श्रमण के पास यानी तीन लिंग के अलावा किसी के पास नहीं रह सकती। यह आचार्य कुंदकुंद भगवान को घोषणा २००० वर्ष पूर्व की है और आज उसकी आनाकानी की जा रही है। अन्य कोई व्यक्ति पूछता है, इसका रूप क्या है ? आप लोगों को बताना होगा। यह भी आपको ज्ञात नहीं है और आप लम्बी-चौड़ी बातें कर रहे हैं । समयसार की तो आप वाचना के लिये तैयार हैं किंतु यह ज्ञात नहीं है कि क्षुल्लक कौन होता है ? और भट्टारक का रूप क्या होता है ? अरहंत परमेष्ठी को भी भट्टारक कहा गया है। बड़े-बड़े आचार्यों को भी भट्टारक कहा गया है। भट्टारक पद इस ढंग से नहीं मिलता। वे श्रमणों में श्रमणोत्तम, प्रभावक होते थे । अन्य व्यक्तियों पर उनके वचनों का प्रभाव रहता था, उज्ज्वल चरित्र रहता था। उनके लिये भट्टारक उपाधि 'भटान पण्डितान् स्याद्वाद परीक्षणार्थं आरयति, प्रेरयति इति स भट्टारकः' होती थी। ऐसे मुनि महाराज की भट्टारक संज्ञा होती थी जो स्याद्वाद के माध्यम से, अनेकांत के माध्यम से, वस्तु तत्व को समझाने में माहिर रहते थे, उनको भट्टारक की उपाधि दी जाती थी। वे विद्वानों को चुनौती देते थे। जो जिनत्व स्वीकारता नहीं था, जिनत्व में कमी मानता था, उसके लिये वह प्रेरित करते थे कहते थे। हमारे से शास्त्रार्थ कर लीजिये । अनेकांत क्या है ? स्याद्वाद क्या है ? श्रमणत्व क्या है ? उसे सुनना और समझना हो, तो आईये मेरे सामने। वे इस प्रकार की खुली चुनौती देने वाले होते थे। वे वस्त्रधारी भट्टारक नहीं हुआ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524285
Book TitleJinabhashita 2004 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2004
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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