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________________ करते थे, ध्यान रखना। लेकिन आज मुनियों के बराबर पद देकर | कहना चाहूँगा कि, मेरा समर्थन तो केवल देव, शास्त्र, गुरु के उनको बहुमान मिल रहा है। ऐसा अंधविश्वास समाज में समझ लिये ही रहेगा। मुझे कोई श्रीमान् माने या ना माने, कोई मतलब नहीं आता। थोड़ा बहुत शास्त्र को अवश्य ही पढ़ना चाहिये। फिर | नहीं। जिन-वाणी की सेवा करूँगा तथा जो प्रतिज्ञा आचार्य गुरुवर बाद में इस प्रकार के समर्थन में खड़े होना चाहिए। यदि नहीं है, | ज्ञानसागर जी महाराज से ली है, उस प्रतिज्ञा को जब तक इस ऐसा ही करना है, तो हमारे पास नहीं आवें। इसका क्या इलाज शरीर में, घट में प्राण रहेंगे तब तक वीर प्रभु को याद करते हुए है? इसका क्या जवाब है? सब जवाब तो आगम में विद्यमान हैं। | उसका निर्वाह करने के लिये मैं संकल्पित हूँ। भगवान से प्रार्थना आज महावीर भगवान के निर्वाण को हुए २५०० वर्ष पूर्ण हो गये | करता हूँ की मेरा यह संकल्प जब तक प्राण रहे, जब तक जीवित हैं। आज तक जो ये श्रमण-परंपरा चली, यह उसी वीतराग परंपरा | | रहूँ, तब तक इस भोली जनता, जैन समाज को बता सकूँ। जैनका प्रतीक है। धर्म में विकार सहनीय नहीं है। जिस प्रकार शरीर में रोग सहनीय हम लोगों के लिये जो मार्ग मिला है वह भावपरक मार्ग | नहीं होता, उसी प्रकार धर्म-मार्ग में दूषण इस आत्मा को सहन है। जो किंचित् मात्र भी परिग्रह रखता है, वहाँ पर वीतरागता तीन | नहीं होता। काल में संभव नहीं है। महान् आचार्य कुंदकुंद की घोषणा है की लालनात् बहवो दोषाः, ताडनात् बहवो गुणाः । वस्त्रधारी सिद्धि को प्राप्त नहीं कर सकते हैं । वस्त्रधारी जो घर में तस्मात् पुत्रंचि शिष्यंचि, ताडयेद् न तु लालयेत॥ तीर्थंकर जैसे भी रहते हैं, उनको मुक्ति नहीं मिलती। घर बसाने यह नीति है। इसके अनुसार पुत्र तथा शिष्यों को लालित वालों को मुक्ति नहीं मिल सकती। घर बसाकर के छोड़ दें तो | करते या अधिक लाड़-प्यार करते हैं तो हम ही उसे दोषों का । यदि अपने नाम से कोई भी तिलतुस मात्र भी | भण्डार बना रहे हैं। यदि उन्हें ताड़ते हैं तो अवगुण दूर होंगे तथा परिग्रह रखा तो मुक्ति नहीं मिल सकती। ऑनरशिप, स्वामीपन | वे गुणी बनेंगे। रखने से मुक्ती नहीं मिलेगी।आज तो सारा का सारा स्वामीपन हमने जो दिशा ली है, उसी दिशा में जिस ओर महावीर रखा जा रहा है। इसकी यदि आवश्यकता है, तो आप रख | भगवान के कदम उठे हैं, उसी ओर हम अपने कदम बढ़ाना लीजिये। क्षेत्रों का जीर्णोद्धार, रक्षा, नवनिर्माण आदि के लिये चाहेंगे। यही बात दूसरों के लिये भी संकल्प पूर्वक कहना चाहते आवश्यकता होती है। यह सब पिच्छी के साथ न करिये। | हैं। आप यदि अपने को महावीर भगवान की संतान या उनका कोई आशीर्वाद निर्देशन माँगता हो तो आप उन्हें उपदेश दे | समर्थक मानते हो, तो ध्यान रखना अभी इस गाड़ी को बहुत आगे सकते हैं किंतु एक स्थान पर बैठकर मठाधीश बनना जैन धर्म के | बढ़ाना है। यदि आप आगे नहीं बढ़ाते हैं तो आपकी आने वाली लिये उचित नहीं है। जैन समाज २५०० वर्षों से तन, मन एवं धन | पीढ़ी कहेगी कि हमारे बाप दादाओं ने हमारे लिये धर्म-कर्म नहीं से क्षेत्र आदि की रक्षा करती आयी है। सिखाया। यदि सिखाया है, तो भट्टारकों को ही मुनि मानो, यह यदि ऐसा नहीं करते तो यह श्रेय आप पर ही आवेगा की सिखाया है, यह बात गलत हो जायेगी। आज हमारे सामने जो आपने सुरक्षा की अथवा बाधा पैदा की? प्रत्येक व्यक्ति को इसका जवान-जवान युवक गुरुकुल मढ़ियाजी (जबलपुर) में पढ़कर के सर्मथन करने पर श्रेय आवेगा। लॉ पढ़ने से वह वकील बन | गये हैं, हमसे आशीर्वाद प्राप्त किया है, उन चारों को भट्टारक सकता है। हाईकोर्ट आदि में वकालत कर सकता है परन्तु वह लॉ बनाया गया है। हमें इस बात का खेद है कि हमने भट्टारक की किताब नहीं लिख सकता। जो किताबें लिखी हैं, उन्हें ही बनाने के लिये आशीर्वाद नहीं दिया था। समाज का पैसा लगाकर, पढ़कर वकालत कर सकता है। किंतु उनमें संशोधन नहीं कर | समय निकालकर प्रोत्साहित करके उन्हें बनाया। आज उनको सकता। जज ही कर सकता है। वह जज वकील से कहते हैं कि | भट्टारक बनाकर प्रचार-प्रसार किया जा रहा है। यह सही परंपरा तुम्हें मात्र वकालत करनी है, जजमेंट नहीं देना। आज तो हर | नहीं है। विद्वानों को भी सोचना चाहिए की भट्टारक बनाने के व्यक्ति अपनी परंपरा बनाने में, ग्रंथ लिखने में लगा हुआ है। लिये इन लोगों को नहीं पढ़ाया था। जैन धर्म की प्रभावना के कुंदकुंद की बात करते, वह तो पर है। कुंदकुंद आचार्य ने तीन ही लिये पढ़ाया गया है। यह बात इसलिये आज मैं कह रहा हूँ कि लिंग कहे हैं, उन्हें सुरक्षित रखना तो धर्म की रक्षा करना है, नहीं | आज चातुर्मास का निष्ठापन हो चुका है। अब हमारा कहीं भी तो आपके कारण धर्म सुरक्षित नहीं रह पायेगा। इस पर समाज के | विहार हो सकता है। आप इन्दौर में ही रहेंगे और हमें इन्दौर में सभी प्रतिष्ठित व्यक्ति, मूर्धन्य विद्वान तथा श्रीमान् मिलकर अवश्य रहना है ही नहीं। परिग्रह के साथ जो धर्म की प्रभावना करना ही विचार करेंगे। इस संबंध में प्रमाद करते हैं, तो मैं समझूगा ये चाहते हैं, वे घर में रह करके करें, किंतु हाथ में पिच्छी लेकर के कोरी बातें हैं। बात को मूर्त रूप देना नहीं चाहते हैं। अब मैं इन | और परिग्रह रखकर के चलें, यह उसकी (पिच्छी की) शोभा बातों को सुनना नहीं चाहता। ये कुछ कहते नहीं, तो सन्देह का | नहीं है। मयूर-पिच्छी की कीमत, मूल्य गरिमा बनाये रखने के चिन्ह बन जाता है। अब तो कई लोग मुझ पर संदेह करने लगे हैं | लिये मैं आप लोगों से कह रहा हूँ। की महाराज! बताओ आप किसके समर्थक हो? इसलिये मैं | प्रस्तुति : निर्मल कुमार पाटोदी, २२, जाय बिल्डर्स कॉलोनी, इन्दौर - मई 2004 जिनभाषित 11 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524285
Book TitleJinabhashita 2004 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2004
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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