SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 14
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आदर्श गुरु के आदर्शमयी शिष्य : मुनि श्री प्रवचनसागर जी मुनि श्री अजितसागर जी जिन्दगी का सफर चलता है | साधक के लिए श्री और स्त्री दोनों से दूर रहना चाहिए। जो श्री और जीव इस सफर का यात्री बन करके | की उपासना में लगा, उस ओर अपना उपयोग ले गया, बस वहीं अपनी यात्रा प्रारंभ करता है। यात्रा करने से शिथिलाचार का आचरण प्रारंभ हो गया, इसलिए इन दोनों से वाले जीव का अपना एक उद्देश्य होता | बचकर रहने वाला ही साधना के मार्ग का निर्दोष साधक बन है। कुछ जीव अपने सफर को अच्छे से | सकता है। ऐसे गुरुदेव की बात को आत्मसात करने वाले मुनि जान पहचान करके और अपने मानस को अच्छे से तैयार करके | श्री प्रवचनसागर जी का पूरा साधना काल था। मुनि श्री प्रवचनसागर प्रारंभ करते हैं। उनका उद्देश्य सिर्फ उपादेय तत्त्व को पाना ही | जी तो एक आदर्श गुरु के आदर्श शिष्य बनकर रहे। गुरु को ही एक मात्र लक्ष्य होता है। ऐसे ही एक व्यक्ति के बारे में कुछ | अपने जीवन का आदर्श बनाया। हम लोगों के बीच में एक दर्पण लिखना चाह रहा हूँ। वह एक साधक ही नहीं,वह तो उपादेय | की भांति रहे, जिन्हें हम देखकर एक नई प्रेरणा और ऊर्जा शक्ति तत्व को पाने के लिए उसका आराधक था। उसने अपना ध्येय | को पाते थे। उनके व्यक्तित्व को देखकर हम सब को एक दिशा उपादेय के स्वरूप अपने देव, शास्त्र और गुरु को बनाया। देव की प्राप्त होती थी। आज जब वो हमारे बीच में नहीं तब भी प्रेरणा के आराधना, शास्त्र की उपासना के साथ उसके अनुसार चलना | प्रकाश पुंज बन कर गये और यह कहकर गये हर समय सावधान प्रारंभ किया और गुरुभक्ति में सदा तत्पर रहने वाला था। इस | रहो, तुम्हारी साधना की परीक्षा कभी भी हो सकती है, इसलिए पंचम काल में साधना के मार्ग पर चलने के लिए गुरु ही सही। गुरुदेव के दिये हुए सूत्रों को सदा याद रखो, आगम को अपनी मार्ग दृष्टा होता है। सही गुरु का मिलना बहुत कठिन होता है। चर्या में रखो, यह तुम्हें सफलता के शिखर पर पहुँचाने वाले हैं। इस काल में सच्चे गुरु का सहारा मिल जाना बहुत कठिन है। परम पूज्य आचार्य श्री कहा करते हैं- 'देखो हम लोगों को सदा जिस साधक को सच्चे गुरु का सहारा मिल गया वह बड़ा याद रखना चाहिए कि जिस समय हमने व्रतों को स्वीकारा था, सौभाग्यशाली है। और जिसके ऊपर ऐसे वीतरागी परम गुरु की उसी समय तुम्हारा एक लक्ष्य था, कि मुझे इस जीवन का उपसंहार कृपा हो जाये वह परम सौभाग्यशाली है। भौतिकता की चकाचौंध | समाधिमरण पूर्वक करना है, इसलिए हमें सदा तैयार रहना चाहिए, का जहाँ चारों तरफ वातावरण बना हो, ऐसे समय में हम लोगों | डरना नहीं चाहिए।' परमपूज्य मुनिश्री ने गुरुदेव के इस संदेश को को आचार्य कुन्द-कुन्द आदि के समान, जीवन्त मूलाचार के साकार करके दिखाया अपनी आकस्मिक परीक्षा में सफल होकर स्वरूप, आज के जन-जन के आदर्श गुरु संत शिरोमणि आचार्य | दिखलाया। उन्होंने मौन संकेत में यही कहा कोई भरोसा नहीं कि श्री विद्यासागर जी परम गुरुदेव के आशीर्वाद का सहारा जिन्हें | जीवन के अन्त में ही समाधिमरण का अवसर आये? उनकी मिल गया हो वह साधक भटक नहीं सकता, वह कहीं पर हो | सावधान वृत्ति, जागृति ने हम सबको सावधान किया है। यह तो संकेत मात्र से अपने लक्ष्य तक पहुँच ही जाता है। संयोग ही उनका था एक कुत्ता का काटना और असाताकर्म की मैं ऐसे गुरु के एक साधक के बारे में लिखने जा रहा हूँ, । तीव्र उदीरणा का होना। बाह्य संयोग बहुत जुटाये पर कर्म का जिसे आचार्य गुरुदेव ने संवारा था, मोक्षमार्ग में लगाया था, ऐसे | उदय ऐसा था कि उन सबने काम नहीं किया। पर मेरा ऐसा हम सभी साधर्मियों के आदर्श परमपूज्य मुनि श्री प्रवचनसागर | दुर्भाग्य रहा, ऐसे समय, मैं उनसे दूर, पथरिया में, गुरुदेव की जी महाराज परम सौभाग्यशाली थे, जिन्होंने परमपूज्य आचार्य श्री | आज्ञा से चातुर्मास कर रहा था। सुना की अमरकंटक में मुनिश्री को के परम सान्निध्य में सब कुछ पाया और साधना के मार्ग को प्राप्त कुत्ते ने काटा है। लोगों ने बताया उपचार हो गया है चिन्ता की करके आदर्श शिष्य बनकर अपनी चर्या आचार्य श्री के अनुसार कोई बात नहीं है। मैंने मुनिश्री जी को पत्र के द्वारा समाचार माँगा, बनाकर अपने लक्ष्य को पाया। पूज्य आचार्य श्री हमेशा अपने | उन्होंने सिर्फ इतना ही लिखा, 'चिन्ता की कोई बात नहीं आचार्य शिष्य समुदाय को कहते रहते हैं, 'साधना के मार्ग में सांसारिक | श्री के आशीर्वाद से मैं पूर्णरुप से स्वस्थ्य हो गया हूँ। संघ के उपासना की बात नहीं करना और अपने आपको जिनमार्ग पर | सभी साधकगण देखरेख में लगे हुए हैं, आप अपना ध्यान रखना लगाये रखना। इस मार्ग में प्रभु की आराधना और जिनवाणी के | और धर्म की प्रभावना करना' ये शब्द हमारे लिए प्रेरणा के रुप में अनुसार चलने के लिए उसकी उपासना करते रहना चाहिए। | आज बस स्मृति के रुप में हैं, पर यह साधक हमारे बीच से चला 12 मई 2004 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524285
Book TitleJinabhashita 2004 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2004
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy