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________________ 6 दिव्यध्वनि पर । अतः गुरु की आज्ञा का तिरस्कार कर उन्होंने देवशास्त्रगुरु तीनों का तिरस्कार किया था, देवशास्त्रगुरु में घोर अश्रद्धा और अभक्ति प्रदर्शित की थी, और जिस दृश्य का रात्रि में सड़कों पर दिखाया जाना निषिद्ध है उसे जैनधर्म की प्रभावना के नाम पर रात्रि में सड़कों पर प्रदर्शित कर जैनधर्म की महान दुष्प्रभावना की थी। इस प्रकार वास्तव में दोषी लोग थे । इनके दोषों का उद्घाटन उस सभा में किया जाना चाहिए था और इनसे प्रायश्चित्त कराया जाना चाहिए था । किन्तु किसी ने भी इन पर अँगुली नहीं उठाई। इन्हें आँचल में छिपा लिया गया। इनका सम्मान किया गया और सारा दोष मुझ पर मढ़ दिया । वास्तव में उस दिन अपराधी ही न्यायाधीश बन गये थे, तो ऐसा तो होना ही था । इस तरह रात्रि में बारात निकालने के लिए मुनिश्री द्वारा अनुमति दिये जाने की बात इन लोगों की सूचना के आधार पर छापी थी। अतः यदि वह सूचना गलत थी, तो मुझे 'जिनभाषित' के अगले अंक में मेरी तरफ से यह छापने लिए कहा जाना चाहिए था कि "उक्त बन्धुओं ने मुझे जो यह जानकारी दी थी कि उन्होंने मुनिश्री की अनुमति से रात में बारात निकाली थी, वह गलत थी । उन्होंने मुनिश्री की आज्ञा की अवहेलना कर स्वेच्छा से ही यह कार्य किया था। अतः दोषी वे लोग हैं, मुनिश्री नहीं।" किन्तु इसके बदले मुझसे यह छापने के लिए कहा गया कि "मैंने पूर्ण जानकारी के अभाव में यह लिख दिया था कि मुनिश्री की अनुमति से रात में बारात निकाली गयी। बाद में मुझे पता चला कि मुनिश्री ने अनुमति नहीं दी थी। अतः मैं अपनी भूल के लिए खेद व्यक्त करता हूँ ।" इस प्रकार जो वास्तविक अपराधी थे उन्हें बचाकर मुझसे स्वयं को अपराधी घोषित कर खेद व्यक्त करने के लिए कहा गया । अन्याय की भी कोई हद होती है। किन्तु सन्देश भेजनेवालों ने वह हद भी पार कर दी। एक वाणिज्यजीवी बन्धु ने, जो नाटक के प्रमुख पात्रों में से थे, मुझसे कहा कि आपको रात में बारात निकालने की बात छापनी नहीं चाहिए थी, क्योंकि इससे जैनधर्म की बदनामी हुई है। मैंने पूछा जिस कृत्य का समाचार छपने मात्र से जैनधर्म की बदनामी हो सकती है, उसे श्रावकों के विशाल समूह द्वारा भोपाल के हजारों जैनेतर दर्शकों के सामने प्रदर्शित करने से कितनी बदनामी हुई होगी, यह आपने सोचा है ? 'जिनभाषित' में छपी खबर तो केवल तीन हजार जैन घरों में पहुँचती है, आपने तो यह खबर भोपाल की समूची अजैन जनता की आँखों में छाप दी। क्या इससे जैनधर्म की नाम नहीं हुई ? जहाँ जैन श्रावकों का विशाल समूह स्वयं अजैन जनता के सामने अपने जैनधर्म विरुद्ध आचरण का प्रदर्शन ( अनुपगूहन) कर रहा हो, वहाँ दूसरों से उपगूहन के लिए कहा जाना क्या मजाक नहीं है ? प्रदर्शन को ही रोकना तो उपगूहन कहलाता है। जब प्रदर्शन हो चुका, तब उपगूहन कैसे संभव है ? मैंने उन वाणिज्यजीवी बन्धु से कहा कि मुनिश्री की उपस्थिति में (भोपाल में रहते हुए) रात में बारात निकालकर आपने लोगों के मन में दो विचारों को जन्म लेने का अवसर दिया है। एक तो यह कि मुनिश्री की उपस्थिति में रात को बारात निकाली गयी, इसलिए उसमें उनकी अनुमति होगी। दूसरा यह कि यदि मुनिश्री की अनुमति के बिना यह कार्य किया गया, तो आपने मुनिश्री आँखों के सामने ही उनकी आज्ञा का तिरस्कार कर उनका घोर अपमान किया है और देवशास्त्रगुरु तीनों के प्रति अश्रद्धा और अभक्ति प्रकट की है। आगम में धर्म विरुद्ध आचार-विचार के हर प्रकरण में उपगूहन (मुँह और कलम बन्द रखने) का उपदेश नहीं है । 'ज्ञानार्णव' में कहा गया है धर्मनाशे क्रियाध्वंसे सुसिद्धान्तार्थविप्लवे । अपृष्टैरपि वक्तव्यं तत्स्वरूपप्रकाशने ॥ ९ / १५ ॥ अर्थ- जब धर्म का नाश होने लगे, आचार के ध्वस्त होने की नौबत आ जाय और समीचीन सिद्धान्त संकट में पड़ जाय, तब इनके सम्यक् स्वरूप को प्रकाशित करने के लिए ज्ञानियों को स्वयं ही मुँह खोलना चाहिए। तात्पर्य यह कि जब किसी मुनि या श्रावक के द्वारा अथवा उनके समूह के द्वारा जिनशासन विरुद्ध आचार मई 2004 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524285
Book TitleJinabhashita 2004 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2004
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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