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सम्पादकीय
थोड़ी सी और सुनिये 'उस' दृष्टान्त की निर्दोषता उन्हें भी स्वीकार्य
'जिनभाषित' (अप्रैल २००४) के सम्पादकीय में मैंने लिखा था कि मेरे जिस दृष्टान्त को मुद्दा बनाकर भोपाल के कुछ जैन बन्धुओं ने जैनत्व को लजाने वाला व्यवहार किया था, वह वास्तविक मुद्दा नहीं था। उस दृष्टान्त की निर्दोषता उन्हें भी स्वीकार्य थी। इसका प्रमाण यह है कि ६ अप्रैल २००४ को किये गये कृत्य के बाद भी उन्हें शान्ति नहीं मिली। शान्ति प्राप्त करने के लिए वे मुझसे 'जिनभाषित' के आगामी अंक में खेद व्यक्त करवाना चाहते थे। मेरे पास सन्देश भिजवाया गया कि मैं अगले अंक में यह छाप दें कि रात में बारात निकालने की अनमति मनिश्री ने नहीं दी थी। पर्ण जानकारी के अभाव में मैंने अनुमति की बात लिख दी थी। सन्देश में आगे कहा गया कि इसे मैं अपनी भूल बतलाऊँ और खेद व्यक्त करूँ।
इस सन्देश को पाकर मैं चकित रह गया कि बारात के मुद्दे को लेकर तो मेरी निन्दा और बहिष्कार किया ही नहीं गया था। निन्दा और बहिष्कार का मुद्दा तो मेरे द्वारा दिया गया दृष्टान्त था। उसके लिए मुझसे खेद व्यक्त करने के लिए न कहकर बारात के लिए मुनिश्री की अनुमति होने का समाचार छापने के विषय में खेद व्यक्त करने के लिए कहा गया। इससे स्पष्ट है कि उन्होंने मेरे दृष्टान्त को खेद व्यक्त किये जाने योग्य (आपत्तिजनक) नहीं माना था। उसकी निर्दोषता उन्हें स्वीकार्य थी। केवल मेरे प्रति साधर्मियों के मन में आक्रोश उत्पन्न करने के लिए उसके आपत्तिजनक (मुनिलांछनकारी) होने का प्रचार किया था। उनके क्रोध का वास्तविक कारण 'जिनभाषित' में इस समाचार का छापा जाना था कि "मुनिश्री की अनुमति से रात में बारात निकाली गयी।" इसलिए मुझसे इसी के विषय में भूल स्वीकार करते हुए खेद व्यक्त करने के लिए कहा गया।
किन्त मैं भूल की ही नहीं थी। मैंने तो बारात के विषय में उन बन्धुओं से जानकारी प्राप्त की थी, जिन्होंने नाटक में भगवान् आदिकुमार, उनके पिता नाभिराय और सौधर्मेन्द्र की भूमिका निभायी थी। इन सभी ने मुझे बतलाया कि "महाराज जी ने कहा था कि यह तो नाटक है, यथार्थ नहीं। इसलिए रात्रि में बारात निकालने में कोई हर्ज नहीं हैं।" ये समाज के गण्यमान्य व्यक्ति हैं और नाटक में भगवान् तथा भगवान के पिता जैसी पवित्र आत्माओं का रोल कर रहे थे, जिसे करने का अवसर श्रावकधर्म का निरतिचार पालन करनेवाले को ही मिलता है। तथा ये बन्धु पूज्य मुनिद्वय श्री समतासागर जी एवं श्री प्रमाणसागर जी के भी भक्त हैं, जिनके उपदेश से इन्होंने रात में विवाहादि न करने और उसमें शामिल न होने की प्रतिज्ञा की थी। अत: इनकी बात में अविश्वास करने का कोई कारण नहीं था। रात में बारात निकाले जाने को ये मन के किसी कोने में अनुचित जरूर समझ रहे थे। इसलिए उन्होंने स्वयं को निर्दोष सिद्ध करने के लिए मुनिश्री के द्वारा उसे नाटक के अन्तर्गत उचित बतलाये जाने की बात कही। इस प्रकार मुझे इन गण्यमान्य धार्मिक बन्धुओं ने जैसी जानकारी दी थी, वैसी ही मैंने अपने लेख में छापी थी। मैंने कोई भूल नहीं की थी।
किन्तु ६ अप्रैल २००४ की सभा में कहा गया कि मुनिश्री ने रात में बारात निकालने की अनुमति नहीं दी थी, आयोजकों और अभिनेताओं ने स्वेच्छा से यह कार्य किया था। यदि ऐसा था, तो उन्होंने मुझे गलत जानकारी दी थी और ऐसा करके उन्होंने मुनिश्री की छवि को विकृत करने का प्रयत्न किया था। इसके अतिरिक्त यदि मुनिश्री की अनुमति के बिना और उनके रोकने पर भी उन्होंने रात को बारात निकाली थी, तो उन्होंने चार मनिवरों की आज्ञा का अनाद (दो मुनिवर वे, जिन्होंने पहले रात्रि में विवाहादि न करने की प्रतिज्ञा दिलायी थी और दो मुनिवर ये जिन्होंने आदिकुमार की बारात को रात में निकालने से रोका था)। मुनि गुरु होते हैं, गुरु की आज्ञा शास्त्र पर आश्रित होती है, शास्त्र देव की
मई 2004 जिनभाषित
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