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________________ यदि ब्रह्म में लग गया तो अपार सुख का कारण बनता है, पर यदि। और उसी को सबसे बड़ा धन मानते हैंभ्रम में लग गया तो अपार दुःख का कारण सिद्ध होगा। इसीलिए १. 'गाहु संतोष सदा मन रे, जा सम और नहीं घर रे' त्रिलोक में मन से बली और कोई नहीं (द्यानतराय) मन सोंबली नदूसरौ, देख्यौइहि संसार, २. 'गोधन, गजधन, बाजिधन और रतन धन खान। तीन लोक में फिरत ही, जतन लागैबार। जब आवै संतोष धन, सब धन धूरि समान।' मनदासन को दास है, मन भूपन को भूप (रहीम) ३. 'रे मन करहुँ सदा संतोष।' (बनारसीदास) मन सब बातनि योग्य है, मन की कथा अनूप। ४. 'रे मन भज-भज दीनदयाल। इसीलिए जब मन मूंधौं ध्यान में, इन्द्रिय भई निरास जाके नाम लेत इक छिन में, कटें कोटि अघजाल।' तब इह आतम ब्रह्म ने, कीने निज परकास। (द्यानतराय) (ब्रह्मविलास)। वस्तुस्थिति तो यह है कि मन की चंचलता को तो हम इतना ही नहीं, अधिकांश संतों ने 'मन' को 'करहा' सभी स्वीकार कर लेते हैं, पर मन से मन की साधना भी की जाती (हाथी) की उपमा दी है हैं, इसे भूल जाते हैं। मन द्वारा मन को समझाने पर चरम सत्य की 'मन करहा भव बनिमा चरइ, तदिविष-वेल्हारी बहुत। उपलब्धि होती है। चंचल मन को निश्चल करने पर ही रामवहँ चरहँ बहु दुखुपाइयउ, तब जानहु गौ मीत॥' (कवि ब्रह्मदीप) रसायन का पान किया जा सकता है। कबीर ने कहा भी हैअर्थात् इस सांसारिक विषयवासना में शाश्वत सुख की 'यह काचा खेलन होई,जन षट्तरखेले कोई। प्राप्ति नहीं होगी इसलिए रे मूढ़। इस मन रूपी हाथी को विन्ध्य चित्त चंचल निहचल कीजे, तब राम रसायन पीजै॥' की ओर जाने से रोक, नहीं तो यह तुम्हारे शील रूपी वन को इसीलिए कबीर ने मन को संयमित रखने की सलाह देते तहस-नहस कर देगा। हुए कहा है'मन' के संदर्भ में अध्यात्मक साधक कवि भूधरदास ने 'मन के मतेनचालिए, मनके मते अनेक। मन को 'सुआ' और परमात्म पद को 'पिंजरा' का रूपक देकर जो मन पर असवार हैं, ते साधुकोई एक॥' सुआ के पिंजरे में बैठने की सलाह दी। आगे भी मन को मूर्ख (कबीर ग्रंथावली) इस प्रकार मन की महत्ता न केवल दर्शन, मनोविज्ञान, कहकर हंस के सांगरुपक द्वारा उसे सांसारिक विषय वासनाओं से मनोचिकित्सा जैसे विषयों तक सीमित है, वरन् अध्यात्म की दृष्टि विरक्त रहने का उपदेश दिया है और परमात्म-पद में बैठकर से मन के नकारात्मक और सकारात्मक पक्षों का महत्व कहीं सद्गुरु के वचन रूपी मोतियों को चुनने की सलाह दी है- 'मन अधिक है। मन का नकारात्मक पक्ष जहाँ साधक के आध्यात्मिक हंस, हमारी ले शिक्षा हितकारी' (भूधर-विलास, पद ३३) विकास में बाधक है, वहीं उसका सकारात्मक पक्ष भगवत्-भक्ति 'मन' की पहेली को कवि दौलतराम ने समझा तो वे कह उठे- 'रे मन, तेरी को कुटैव यह।' तेरी यह कैसी प्रवृत्ति है कि तू में साधक को प्रवृत्त करके अलौकिक आनंद की उपलब्धि कराता सदैव इन्द्रिय सुखों में लगा रहता है। इन्हीं के कारण तू निज है। आइये, आज हम सब अपने मन को संतुलित कर पर्यावरण स्वरूप को पहचान नहीं सका और शाश्वत सुख को प्राप्त नहीं कर को प्रदूषित होने से रोकें और संतोषी प्राणी बनने का प्रयास करें। सका। (अध्यात्म पदावली, पद १) इसीलिए कविवर द्यानतराय तुकाराम चाल जैसे सभी संत मन को संतोष धारण करने का उदबोधन देते हैं सदर एक्सटेंशन, नागपुर (महाराष्ट्र) आचार्य श्री विद्यासागर जी के सुभाषित * जीवन में ज्ञान का प्रयोजन मात्र क्षयोपशम में वृद्धि नहीं वरन् विवेक में भी वृद्धि हो। * ज्ञान रूपी दीपक में संयम रूपी चिमनी आवश्यक है अन्यथा वह राग द्वेष की हवा से बुझ जायेगा। * दीपक लेकर चलने पर भी चरण तो अन्धकार में ही चलते हैं। जब चरण भी प्रकाशित होंगे तब केवलज्ञान प्रगट होगा। * प्रयोग (अनुभव) के अभाव में बढ़ा हुआ मात्र शाब्दिक ज्ञान अनुपयोगी व्यर्थ ही साबित होता है। स्वस्थ ज्ञान का नाम ध्यान है और अस्वस्थ ज्ञान का नाम विज्ञान। * ज्ञान स्वयं में सुखद है किन्तु जब वह मद के रूप में विकृत हो जाता है तब घातक बन जाता है। 'सागर बूंद समाय' से साभार - मई 2004 जिनभाषित 29 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524285
Book TitleJinabhashita 2004 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2004
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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