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________________ कहना ही क्या? पं. दौलतराम जी लिखते हैं कि .. | आपके द्वारा रचित कुल पदों की संख्या १५० है। विभिन्न भगवानों हम तो कबहुँन निजघर आये, की स्तुतियाँ भी आपने पदरुप में लिखीं। 'देखो जी आदीश्वर परघरफिरत बहुत दिन बीते, नाम अनेक धराये।। स्वामी', 'हमारी वीर हरो भवपीर', 'नेमिप्रभु की श्याम बरन परपद निजपद मान मगन है, पर परणति लिपटाये। | छवि नैनन छाय रही' आदि स्तुतियाँ बड़ी प्रसिद्ध हैं। शुद्ध बुद्ध सुख कंद मनोहर, चेतन भावनभाये॥१॥ कवि ने एक ओर जहाँ स्वाध्याय में चित्त लगाया, छहढाला, नरपशु देव नरक निज जान्यो, परजय बुद्धि लहाये। स्फुट पदों की रचना की वहीं तीर्थयात्राएँ कर अपने लिए भक्तिमार्ग अमलअखंडअतुल अविनाशी, आतमगुणनहिंगाये॥२॥ पर चलाया। उन्होंने एक बार वन्दे जो कोई, ताहि नरक पशु गति यह बहुभूल भई हमरी फिर, कहा काज पछताये। नहिं होई, की भावना के साथ माघ वदी चतुर्दशी संवत् १९१० में 'दौल'तजोअजहूँविषयन को, सतगुरु वचनसुनाये॥३॥ सम्मेदशिखर जी की यात्रा की। यात्रा करते हुए उनके मन में कवि की स्वाध्यायशीलता और सर्जनात्मक क्षमता का विचार आया कि हे भगवान! वह दिन कब आये जब मैं भी सम्यक् परिपाक हमें उनकी कृति 'छहढाला' में देखने को मिलता | आपकी तरह सिद्ध पद-प्राप्त कर सकूँ, निज स्वरूप में रमण कर है जिसकी रचना आपने संवत् १८९१ में की थी। यह कोई एक | कृति मात्र नहीं है अपितु इसमें कवि ने अपने सुदीर्घ स्वाध्याय से चिदराय गुन सुनो मुनो प्रशस्त गुरु गिरा। प्राप्त ज्ञान का अध्यात्म की भावभूमि के साथ प्रस्तुत किया है। यह समस्त तज विभाव, हो स्वकीय में थिरा॥ छहढालें बाह्य-संसार से बचाव का उपाय बताकर आत्मिक वैभव अबेसुथल सुकुल सुसंग बोधलहि खरा। प्राप्ति तक का मार्ग प्रशस्त करती हैं। ढाल तो मात्र तलवार का 'दौलत' त्रिरत्न साधलाधपद अनुत्तरा। प्रहार रोकती है यह तो संसार का प्रभाव रोकने में समर्थ है। यही ऐसा कहा जाता है कि कविवर पं. दौलतराम जी को कारण है कि यह कृति स्वाध्याय के लिए आद्य ग्रन्थ बन गयी है। अपनी मृत्यु का बोध छह दिन पहले ही हो गया था अतः उन्होंने 'छहढाला' के अतिरिक्त आपने अनेक पदों की रचना की, जिन्हें | अपने कुटुम्बियों परिजनों को एकत्रित कर उनसे अपनी भूलों के सर्वप्रथम पं. पन्नालाल बाकलीवाल ने संग्रहीत कर 'दौलत विलास | प्रति क्षमायाचना की तथा स्वयं का सभी के प्रति क्षमाभाव है ऐसा प्रथम भाग' के नाम से प्रकाशित किया। कालान्तर में कलकत्ता से | | कहकर कहा कि- 'आज से छठवें दिन मध्याह्न के पश्चात् मैं इस 'दौलत-पद संग्रह' नाम से कुछ और पदों को संग्रह कर प्रकाशित | शरीर से निकलकर अन्य शरीर धारण करूँगा।' इस प्रकार परिजनों किया गया, फिर भी अनेक पद अब भी प्रकाशित होने से बचे | के प्रति मोह छोड़ते हुए मार्गशीर्ष कृष्ण अमावस्या संवत् १९२३ रहे। इस हेतु सम्यक् प्रयास सन् १९५५ में अलीगंज (एटा) से | को अपने नश्वर शरीर का त्याग किया। अपनी मृत्यु के दिन ही हुआ और सम्पूर्ण पदों का संग्रह कर 'दौलत विलास' नाम से | उन्होंने 'गोम्मटसार' ग्रन्थ का स्वाध्याय पूर्ण किया था। जब उनके प्रकाशन हुआ। यह पद अध्यात्म रस के रसिकों के लिए सरसता | प्राण निकले वे महामन्त्र णमोकार का जाप कर रहे थे। इस तरह के भण्डार सदश हैं। उनकी चाह है उनके जीवन की श्रुतसाधना फलीभूत हुई। उनकी तो भावना ही राग-द्वेषदावानलतेंबचि.समता रस में भीज। हेजिन.॥१॥ सुरपति नरपति खगपति हू की, भाग न आस निवारी। पर कोत्यागअपनपोनिज में,लागनकबहँछीजे। 'दौल' त्याग अब भज विरागसुख, ज्यौं पावै शिवनारी॥ हेजिन.॥२॥ मत कीज्यौ जी यारी॥ कर्मकर्मफल माहिंन राचै, ज्ञान सुधारसपीजे। यद्यपि पं. प्रवर दौलतराम जी का नश्वर शरीर हमारे बीच हेजिन.॥३॥ नहीं है किन्तु 'छहढाला' के रूप में उनकी भाव-आत्मा से हम मुझ कारज के तुम कारन वर, अरज 'दौल' की लीजे। | रोज परिचित होते हैं। यही कृति और कृतिकार का सुयश है। . हे जिन. ॥४॥ प्रधान सम्पादक -पार्श्व ज्योति ' यद्यपि दौलतराम जी के पदों की भाषा खड़ी बोली श्री अ.भा.दि. जैन विद्वत्परिषद्, बुरहानपुर हिन्दी है किन्तु उस पर ब्रजभाषा का प्रभाव स्पष्ट दिखाई देता है। थी 22 मई 2004 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524285
Book TitleJinabhashita 2004 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2004
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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