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छहढालाकार पं. दौलतराम जी
डॉ. सुरेन्द्र कुमार जैन जिनके कृतित्व से जिनवाणी का मर्म जन-जन तक पहुँचा, | करते थे। पंडित जी का विवाह अलीगढ़ निवासी सेठ चिन्तामणि ऐसी रसमयी मेधा के धनी कविवर, पंडितप्रवर दौलतराम जी को | की सुपुत्री के साथ हुआ जिनसे दो पुत्र उत्पन्न हुए। बड़े पुत्र कौन नहीं जानता? आज जैन समाज में यदि समयसार, तत्वार्थसूत्र, टीकाराम का जन्म संवत् १८८२ में हुआ तथा छोटे पुत्र का जन्म रत्नकरण्ड श्रावकाचार के बाद किसी अन्य ग्रन्थ की सर्वाधिक | संवत् १८८६ में हुआ। बड़े पुत्र टीकाराम लश्कर (ग्वालियर) में चर्चा होती है तो वह ग्रन्थ छहढाला ही है, जो पंडितप्रवर रहते हुए व्यापार करने लगे। छोटे पुत्र का असमय में ही निधन हो दौलतराम जी की कालजयी कृति है। यह कृति भाव, भाषा, छन्द | गया। मृत्यु के समय उसके एक पुत्री थी। युवावस्था में ही छोटी बद्धता, रसमयता, गेयता की दृष्टि से तो अनुपम है ही अनुभूति की बहू को वैधव्य का दुःख सहना पड़ा। पंडित जी के वंशज आज दृष्टि से भी अनुपम है। कृति वही सच्ची होती है जो कृतिकार के | भी लश्कर में निवास करते हैं। प्रति सम्मान से भर दे, साथ ही पाठकों को भी हितकारी हो। । श्री दौलतराम जी की विद्याध्ययन के प्रति रुचि थी अतः छहढाला तो 'गागर में सागर' के समान है जो चतुर्गति के दुःखों | वे मन लगाकर विद्याध्ययन करते रहे। पारिवारिक कपड़े का से परिचित कराते हुए इन दुःखों से बचने की प्रेरणा देती है। व्यवसाय उनके लिए सहज था किन्तु उसमें उनकी रुचि नहीं थी। गृहस्थ और मुनिधर्म का स्वरूप सरल शब्दों में बताने में यह कृति | 'दौल' समझ सुन चेत सयाने, काल वृथा मत खोवे,' की भावना समर्थ है।
रखने वाला कवि आखिर विद्या के प्रति अनुराग को कैसे छोड़ कविवर दौलतराम जी ने अनेक पदों की रचना की, जिन्हें | सकता था। कुछ दिन आपने हाथरस में बजाजी का कार्य किया। पढ़कर वैराग्य की अनुभूति होती है। वे लिखते हैं -
संवत् १८८२ में मथुरा के सेठ राजा लक्ष्मणदास जी के पिता सेठ जिया जग धोके की टाटी।
मनीराम जी, पं. चम्पालालजी के साथ किसी कार्य हेतु हाथरस झूठा उद्यम लोक करत है, जिसमें निशदिन घाटी॥१॥ आये। हाथरस के मंदिर जी में उन्होंने पं. दौलतरामजी को जान बूझकर अंधबने हो, आँखिन बाँधी पाटी॥२॥ | 'गोम्मटसार' ग्रन्थ का स्वाध्याय करते हुए देखा, देखकर वे अत्यन्त निकल जायेंगे प्राण छिनक में, पड़ी रहेगी माटी॥३॥ हर्षित हुए और उन्हें अपने साथ मथुरा ले गये। मथुरा में उन्होंने
'दौलतराम' समझमन अपने, दिलकीखोल कपाटी॥४॥ | पंडित जी को बड़े आदर के साथ रखा, परन्तु पंडितजी का मन निश्चित रुप से रचनाकार ने अपने को धोखे में नहीं रखा | मथुरा में नहीं लगा और वे वहाँ से लश्कर आ गये और वहाँ से और अपनी सर्जनात्मक प्रतिभा का उपयोग जैनागम सम्मत साहित्य | अपनी जन्मभूमि सासनी चले गये। सासनी से अलीगढ़ आकर के प्रणयन में किया। आज सम्पूर्ण जैन समाज उनके प्रति श्रद्धा से अपने पैतृक वस्त्र व्यवसाय से जुड़ा छींट छापने का कार्य करने नत है।
लगे। किन्तु जिनका मन धर्ममय हो चुका हो वह सांसारिक कार्यों छहढालाकार पंडितप्रवर दौलतराम जी का जन्म हाथरस | में रचपच नहीं सकता है, सो वे भी छींट छापते समय सामने के निकट सासनी ग्राम में हुआ था। उनके पिता का नाम श्री | चौकी पर गोम्मटसार, त्रिलोकसार, आत्मानुशासन आदि ग्रन्थ रख टोडरमल था। वे पल्लीवाल जैन जाति के थे। उनका गोत्र गंगीरीवाल | लेते और छींट छापने के साथ ही इन ग्रन्थों के श्लोक पढ़ते-रंटते था। वे 'फतेहपुरी' या फतहपुरिया के नाम से जाने जाते थे। इनका जाते। ऐसा करते हुए वे प्रति दिन ५० से ८० तक श्लोक याद कर जन्म संवत् १८५० से १८५५ के मध्य माना जाता है। ऐसा कहा | लेते। आपकी जैनागम के प्रति रुचि तो स्पष्ट थी ही अतः जाता है कि सन् १८५७ के गदर (प्रथम स्वतंत्रता आन्दोलन) के स्वाध्यायशीलता में रुचि बराबर बनी रही। कुछदिन बाद उनका समय भागते हुये इनकी जन्मपत्री परिजनों के हाथ से गिर गयी | अलीगढ़ भी छूट गया और वे देहली आ गये जहाँ उन्हें सामाजिक थी। इसलिए वास्तविक जन्म संवत् अज्ञात है। आपके पुत्र श्री | जनों का सहयोग भी मिला और तत्त्वजिज्ञासुओं, विद्वानों टीकाराम के कथनानुसार आपका जन्म विक्रम संवत १८५५ या | स्वाध्यायशीलों का सान्निध्य भी। अत: आपके जीवन का अभिन्न १८५६ में हुआ था। आपके पिता दो भाई थे। छोटे भाई का नाम | अंग शास्त्र स्वाध्याय बन गया। कहते हैं भावना भव नाशिनी होती चुन्नीलाल था। दोनों भाई हाथरस में रहते हुए कपड़े का व्यापार | है। जिनके विचार निजघर की तलाश कर रहे हों, उनका तो
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मई 2004 जिनभाषित 21
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