SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 22
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आकाश और स्थल में रहते हैं। पृथ्वी आदि से लेकर वनस्पतिपर्यंत बादर (स्थूल) काय और सूक्ष्मकाय – ये दोनों होते हैं। बादरकाय जीव आठ पृथ्वियों तथा विमानादि के सहारे रहते हैं। साथ ही सूक्ष्मकाय, जो अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण शरीर वाले होते हैं, वे जल, आकाश और पृथ्वी- सर्वत्र बिना आश्रय के रहते हैं । अर्थात् वे सूक्ष्म जीव संपूर्ण जगत में निरंतर रहते हैं । जगत का एक भी प्रदेश इनसे रहित नहीं है, किंतु बादर जीव लोक के एक भाग में रहते हैं । भविष्यवाणियों में वनस्पतियों का उपयोग : कुछ भविष्यवाणियों में वनस्पतियाँ का ऐसा अचूक प्रयोग सिद्ध हुआ है कि इनके सामने अन्य की भविष्यवाणियों तीरतुक्का जैसी लगती हैं। जैसे वर्षा होने या न होने संबंधी भविष्यवाणी को ही लें। प्रकृति के प्रांगण में उगने वाली सुनहरी लिली (ग्लोरिओसा सुपरवा-ग्लोरी लिली) को ही लीजिए - जब अच्छी वर्षा होने की स्थिति होती है तब इसमें रंगीन लबादा ओढ़े लालपीले फूल खिलते हैं और जब वर्षा नहीं होने वाली हो तो इसमें मात्र पत्तियाँ ही दृष्टिगोचर होती हैं। कुछ ऐसे ही गुण-धर्म सुगंधित पत्तियों वाले मधुमालती नामक वृक्ष में पाए जाते हैं। इसकी शाखाएँ कलियों के गुच्छों से हमेशा लदी रहती हैं। बादलों के घिर आने पर इसकी बंद कलियों का खिल जाना वर्षा के शुभागमन की सूचना देता है, किंतु बादलों की नीयत यदि कहीं अन्यत्र जाकर बरसने की हो तो ये उनका मनोभाव झट ताड़ जाती हैं और कलियाँ बंद रखकर वर्षा न होने कितना अच्छा हो यदि हमारा जीवन सरल हो जो हम बाहर दिखें वहीं अंदर हों जो कहें 20 मई 2004 जिनभाषित Jain Education International की भविष्यवाणी कर देती हैं। गठालू (डायोस्कोरिया) नामक बेल (लता) की स्थिति तो और भी विचित्र है। इसके ऊपरी कंदों की वृद्धि बंद हो जाए तो समझा जाता है कि आगे वर्षा नहीं होगी। जिस वर्ष वर्षा बिल्कुल न होने वाली हो और सूखे की संभावना हो, उस वर्ष तो इसके कंद, पहले से ही भूमि पर टपक-टपककर शोक संतप्तों की तरह दम तोड़ने लगते हैं। इस तरह हम देखते हैं कि सर्व सामर्थ्यवान माने जाने वाले मनुष्य से भी विलक्षण सामर्थ्य जीव जगत के सहचरोंसहजीवियों में विद्यमान हैं। जैन आगम साहित्य में वर्णित छह द्रव्यों के अंतर्गत 'जीव' द्रव्य की सांगोपांग विस्तृत विवेचना का सूक्ष्म दृष्टि से यदि वैज्ञानिक परिप्रेक्ष्य में अध्ययन किया जाए तो अनेक ऐसे नए तथ्य आ सकते हैं, जो विज्ञान जगत के लिए बहुत उपयोगी हो सकते हैं। विशेषकर पृथ्वी, अप, तेज, वायु, वनस्पति और त्रस-इन छह जीव संबंधी 'षट्जीवनिकाय' नाम से प्रसिद्ध अवधारणा का अध्ययन इस दिशा में बहुत महत्त्वपूर्ण है । वनस्पति संबंधी पूर्वोक्त जैनशास्त्रीय अध्ययन यद्यपि संक्षिप्त ही है, किंतु इतने में भी इस विषयक सूक्ष्म विवेचना का दिग्दर्शन तो हो ही जाता है। पर्यावरण के संरक्षण और उसके शुद्धीकरण में इन अध्ययनों का उपयोग तो संपूर्ण विश्व के लिए वरदान सिद्ध हो सकता है। जिंदगी अनेकान्त विद्या भवन, बी २३ / ४५ पी-६, शारदा नगर, कॉलोनी खोजवाँ, वाराणसी - २२१०१० वही आचरण करें वही महसूस करें दोयम जिन्दगी न जिएं, For Private & Personal Use Only डॉ. वन्दना जैन कार्ड पैलेस, वर्णी कॉलोनी, सागर www.jainelibrary.org
SR No.524285
Book TitleJinabhashita 2004 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2004
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy