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________________ अनंतजीव (सप्रतिष्ठित प्रत्येक) कहते हैं। जिस योनिभूत जीव में । थूहर आदि। वही जीव या कोई अन्य जीव आकर उत्पन्न हो वह और मूलादि | बीजरूह : जिसके मूलबीज में ही बीज रहता हैं जैसे प्रथम अवस्था में अप्रतिष्ठित प्रत्येक होती है। गेहूँ आदि चौबीस प्रकार के अन्न। लाटी संहिता के अनुसार मूली, अदरक, आलू, अरबी, सम्मूर्च्छन : जो वनस्पति अपने-आप पैदा होता है। रतालू, जमीकंद आदि मूल, गंडरीक (एक प्रकार का कडुआ तृण : तृण आदि घास रुप। जमीकंद) के स्कंध, पत्ते, दूध और पर्व - ये चारों अवयव, आक बेल वनस्पति : चंपा, चमेली, ककड़ी, खरबूजा आदि का दूध, करीर, सरसों आदि के फूल, ईख की गांठ और उसके | की लताएँ। आगे का भाग, पांच उदंबर फल (बड़, पीपल, ऊमर, कठूमर वस्तुतः वनस्पति जाति के दो प्रकार हैं- १. बीजोद्भव और पाकर फल) तथा कुमारीपिंड (गवारपाठा)की सभी शाखाएँ तथा २. सम्मूर्च्छन। बीजोद्भव वनस्पति के अंतर्गत मूलज, अग्रज, आदि साधारण वनस्पति हैं। वृक्षों पर लगी कोंपलें भी साधारण | पर्वत आदि हैं। दूसरी सम्मूर्च्छन के अंतर्गत कंदकाय, मूलकाय, हैं, पकने पर प्रत्येक हो जाती हैं। शाकों में चना, मेथी, बथुआ | त्वक्काय आदि हैं। सम्मूर्च्छन वनस्पति की उत्पत्ति में पृथ्वी, हवा आदि कोई साधारण है, तो कोई प्रत्येक। किसी-किसी वृक्ष की | और जल-ये उपादान कारण होते हैं। प्रायः देखा भी जाता है कि जड, किसी-किसी के स्कंध, शाखाएँ, पत्ते, फूल, पर्व तथा फल | श्रृंग (सींग) से शर (एक प्रकार का सफेद सरकंडा या घास) आदि साधारण होते हैं। तथा गोबर से शालूक उत्पन्न हो जाते हैं। ये बीज के बिना ही मूलाचारकार के अनुसार मूलबीज, अग्रबीज, पोर (पर्व), | उत्पन्न होते हैं, इसी प्रकार कुछ ऐसी वनस्पतियाँ भी हैं जिनमें बीज, कंदबीज, स्कंधबीज, बीजरूह आदि तथा सम्मूर्च्छन (जड़ पुष्प के बिना ही फल उत्पन्न हो जाते हैं, उन्हें फल वनस्पति के अभाव में भी जिनका जन्म संभव है) वनस्पतियाँ प्रत्येक और | कहते हैं। कुछ में पुष्प तो उत्पन्न होते हैं, पर फल उत्पन्न नहीं अनंतकाय (साधारण शरीर) दोनों ही प्रकार की होती हैं । सूरण | होते- उन्हें पुष्प वनस्पति कहते हैं तथा कुछ में पत्र ही उत्पन्न आदि कंद, अदरक आदि मूल, छाली (त्वक्) स्कंध, पत्ता, | होते हैं, पुष्प फलादिक नहीं उन्हें पत्र वनस्पति कहते हैं। पल्लव, पुष्प, फल, गुच्छा, गुल्स (करंज, कंथरादि), बेल तृण | दशैवकालिकसूत्र में वनस्पति शब्द को वृक्ष, गुच्छ, गुल्म तथा पर्वकाय (ईख, बेंत आदि) ये सम्मूर्छन वनस्पतियाँ भी | आदि सभी प्रकार की हरियाली का वाचक माना गया है। कुंदकुंदकृत प्रत्येक और अनंतकाय हैं । बेल, वृक्ष, तृण आदि वनस्पतियाँ तथा | माने जाने वाले 'मूलाचार' आगम ग्रंथ में वनस्पति, वृक्ष, ओषधि, सभी प्रत्येक और साधारण वनस्पतियाँ हरितकाय होती हैं। विरुध, गुल्म और वल्ली इनके विभाजनपूर्वक इस प्रकार अर्थ श्वेताम्बर सम्मत आगम परंपरा के प्रज्ञापनासूत्र में प्रत्येककाय | बताए हैं - जिसमें फली लगती है, उसे वनस्पति कहते हैं। बादर वनस्पतिकायिक जीव के अंतर्गत बारह भेद बतलाए हैं- | जिसमें पुष्प और फल उत्पन्न होते हैं, उसे वृक्ष कहते हैं। फलों के वृक्ष, गुच्छ, गुल्म, लता, वल्ली, पर्वग (पर्व वाले) तृण, वलय | पक जाने पर जो नष्ट हो जाते हैं, ऐसी वनस्पति को औषधि कहते (केला आदि जिनकी छाल गोलाकार हो), हरित, ओषधि, जलरूह हैं। गुल्म और वल्ली को विरुध कहते हैं। जिसकी शाखाएँ छोटी (जल में पैदा होने वाली वनस्पति) और कुहणा (भूमिस्फोट)। | तथा जड़ (मूल) जटाकार हैं, उस झाड़ी को गुल्म कहते हैं, तथा इसी ग्रंथ में इन्हीं बारहों के अनेक-अनेक भेदों का उल्लेख है, | वृक्ष पर वलयाकार रूप से चढ़कर बढ़ने वाली वेल या लता को जिनका अध्ययन वनस्पतिशास्त्र-विज्ञान की दृष्टिसे अत्यंत महत्त्वपूर्ण | वल्ली कहते हैं । आयुर्वेदिक साहित्य के अंतर्गत 'सुश्रुत-संहिता' ग्रंथ में स्थावर औषधि में इन्हीं चार भेदों की गणना की है- १. इस विवेचन के आधार पर जैनशास्त्रों के अनुसार वनस्पति | जिनके पुष्प न हों, किंतु फल होते हैं- उन्हें वनस्पति, २. जिनके के दस प्रकार फलित हुए- मूल, कंद, स्कंध, त्वचा, शाखा, | पुष्प और फल दोनों आते हैं- उन्हें वृक्ष, ३. जो फैलने वाली या प्रवाल, पत्र, पुष्प, फल और बीज। गुल्म के स्वरूप की हो उन्हें विरुध तथा ४. जो फलों के पकने मूलबीज आदि वनस्पतियों के उपर्युक्त भेदों के आधार पर | तक ही जीवित या विद्यमान रहती हों- उन्हें औषधि कहते हैं। वनस्पतिकायिक जीवों के उत्पन्न होने के निम्नलिखित आठ | बादरकायिक और सूक्ष्मकायिक वनस्पति: । 'प्रधान स्थान माने जा सकते हैं। शैवाल (काई) पणक जमीन पर, ईंटों तथा वामी आदि में मूलबीज : जिसके मूल में बीज लगता हो या मूल ही । उत्पन्न (केण्णग या केणग) वर्षाकाल में कूड़ा आदि में उत्पन्न जिनका बीज (उत्पादक भाग) हो, जैसे कंद आदि। छत्राकार वनस्पति जिसे कुकुरमुत्ता आदि भी कहते हैं, कवक - अग्रबीज : जिस वनस्पति के सिरे पर बीज लगता हो | सींग में उत्पन्न होने वाली छत्ररूप जटाकार वनस्पति और कुहण अर्थात् आगे का हिस्सा ही जिनका बीज हो, जैसे कोरंटक। (बासे आहार काजिक आदि में उत्पन्न पुष्पिका या फफूंद)- ये पर्वबीज : गांठ ही जिनका बीज हो, जैसे ईख आदि। | सब बादर (स्थूल) कायिक वनस्पति हैं तथा जल, पृथ्वी, हवा, स्कंधबीज : जिसके स्कंध या जोड़ ही बीज हों, जैसे | अग्नि आदि भी बादरकायिक हैं। सूक्ष्मकाय जीव सर्वत्र जल । मई 2004 जिनभाषित 19 भार वल्ली इनके प्रथ में वनस्पति बताए हैं - है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524285
Book TitleJinabhashita 2004 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2004
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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