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________________ की तरह आंसू बहाने लगता है। जब इस पर कोई प्रहार होता है, | अनंतकाय (साधारण) वनस्पति : तब भी यह रोने लगता है। इस तरह वनस्पति जगत में जहाँ जिसमें एक शरीर में अनंत जीव हैं अर्थात् अनंत जीवों के जीवत्व संबंधी अवधारणा की विज्ञान ने पुष्टि की, वहीं उसकी | सम्मिलित शरीर को अनंतकाय या साधारण शरीर कहते हैं। संवेदनशीलता तथा विविध शक्ति संपन्नता भी सिद्ध हुई। क्योंकि उस शरीर में अनंत जीवों का जन्म, मरण, श्वासोच्छ्वास जैन दर्शन की वनस्पति जीव संबंधी विवेचना की तरह | आदि साधारण (समान) रूप से होता है, अर्थात् एक साधारण ही 'शब्द' की पौद्गलिकता आदि अनेक जैन सिद्धांत जैसे जैसे शरीर के एक जीव उत्पन्न होता है, वहाँ अनंत जीवों की उत्पत्ति विज्ञान द्वारा सत्य सिद्ध होते जा रहे हैं, लोगों का विश्वास और | होती है तथा जिस शरीर में एक जीव मरता है, वहाँ अनंत जीवों लगाव जैन दर्शन और धर्म के प्रति गहरा होता जा रहा है। का मरण होता है। धवला के अनुसार बहुत जीवों का जो एक इसलिए यह कहना प्रासंगिक होगा कि जैन धर्म और दर्शन के | शरीर है- वह साधारण शरीर कहलाता है। उसमें जो जीव विभिन्न क्षेत्रों में गहन अध्ययन-अनुसंधान की आज के संदर्भ में निवास करते हैं वे साधारण शरीर जीव कहलाते हैं। इस साधारण पहले से कहीं अधिक आवश्यकता है। जीवों का आहार साधारण (समान) ही होता है और समान ही जैन धर्म और दर्शन के अनुसार जीव, पुद्गल, धर्म, श्वासोच्छ्वास ग्रहण करते हैं। अर्थात् एक साथ उत्पन्न जिन अधर्म, आकाश और काल - ये छह द्रव्य हैं। इनका विशेष अनंतानंत जीवों को आहारादि पर्याप्ति तथा उनके कार्य समान विवेचन आचार्य उमास्वामी कृत तत्त्वार्थसूत्र और इस पर लिखित काल में होते हों, उन साधारण जीवों का लक्षण साधारण कहा है। अनेक टीका ग्रंथों तथा जैन साहित्य के शताधिक ग्रंथों में उपलब्ध साधारण को ही निगोद और अनंतकाय भी कहते हैं। है। इन छह द्रव्यों में प्रथम जीवद्रव्य चेतन्यवान है। तत्त्वार्थसूत्र आचार्य वट्टकेर कृत शौरसेनी प्राकृत भाषा के प्राचीन ग्रंथ (२/८)में 'उपयोगो लक्षणम्' सूत्र के माध्यम से उपयोग (ज्ञान, | मूलाचार के अनुसार गूढ़सिरा अर्थात् जिनकी शिरा (नसें), संधि दर्शन, रूप-स्वभाव) को जीव का लक्षण कहा है। जीव के दो | (बंधन) तथा गाँठ नहीं दिखती, जिसे तोड़ने पर समान टुकड़े भेद हैं : संसारी और मुक्त। संसारी जीव के छह भेद हैं- पृथ्वी, | हो जाते हैं, दोनों भागों में परस्पर तंतु न लगा रहे तथा जिनका अप, तेज, वायु, वनस्पति और त्रस। इनमें प्रारंभ के पांच जीव | छेदन करने पर भी पुनः वृद्धि (अंकुरित) को प्राप्त हो जाए उसे स्थावर एवं एकेंद्रिय कहे जाते हैं। द्वीन्द्रिय से लेकर पंचेंद्रिय तक साधारण शरीर तथा इन सब लक्षणों के विपरीत को प्रत्येक शरीर के जीव त्रस कहलाते हैं। कहते हैं। लाटी संहिता के अनुसार भी जिसके तोड़ने में दोनों __ वनस्पतिकायिक जीवों के विषय में यदि जैनशास्त्रों का भाग चिकने और एक से हो जाएँ, वह साधारण वनस्पति है। जब सूक्ष्मतम, गहन तथा वैज्ञानिक दृष्टि से विश्लेषण किया जाए तो | तक उसके टुकड़े इसी प्रकार होते रहते हैं, तब तक उसे साधारण वनस्पति जगत संबंधी यह प्राचीन अध्ययन विश्व को जैन धर्म | वनस्पति समझना चाहिए। जिसके टुकड़े चिकने और एक से न का एक अनुपम और महत्त्वपूर्ण योगदान सिद्ध हो सकता है तथा | हों उन्हें प्रत्येक वनस्पति कहा जाता है। आज भी जैनशास्त्रों के इस संबंधी अनेक तथ्य विज्ञान के लिए | प्रत्येक वनस्पति के दो भेद: 'नवीन' हो सकते हैं। आचार्य नेमिचंद्र सिद्धांतचक्रवर्ती कृत शौरसेनी प्राकृत के वनस्पति : जैन धर्म की दृष्टि में स्वरूप विवेचन | 'गोम्मटसार' ग्रंथ में प्रत्येक वनस्पति के दो भेद बतलाए हैं- १. जिस जीव के वनस्पति नामकर्म का उदय रहता है, वही | सप्रतिष्ठित, २. अप्रतिष्ठित। जिन वनस्पतियों का बीज मूल, अग्र, जीव वनस्पति शरीर में जन्म लेता है। इसके केवल स्पर्शन इंद्रिय | पर्व, कंद अथवा स्कंध है, अथवा जो बीज से ही उत्पन्न होती हैं ही होती है तथा संस्थान नामकर्म के उदय से संस्थान होता है। | तथा सम्मूर्च्छन हैं, वे सभी वनस्पतियाँ सप्रतिष्ठित तथा अप्रतिष्ठित स्थावर जीवों में वनस्पति एकेंद्रियकाय जीव के दो भेद हैं- दो प्रकार की होती हैं। प्रत्येककाय और अनंतकाय या साधारणकाय वनस्पति। इनमें जिनका सिरा, संधि, पर्व अप्रकट हो और जिनको भंग प्रत्येककाय बादर या स्थूल ही होता है, पर साधारणकाय बादर करने पर समान भंग हो, दोनों भंगों में परस्पर तंतु न लगा रहे तथा और सूक्ष्म दोनों रूप होता है। छेदन पर भी जिनकी पुनः वृद्धि हो जाए, उनको सप्रतिष्ठित प्रत्येककाय वनस्पति : सामान्यतः एक जीव का एक | प्रत्येक वनस्पति कहते हैं। इससे विपरीत अप्रतिष्ठित प्रत्येक वनस्पति शरीर अर्थात् जिनका पृथक-पृथक शरीर होता है या एक एक होती है। शरीर के प्रति एक-एक आत्मा को प्रत्येककाय कहते हैं। जैसे खैर जिन वनस्पतियों के मूल, कंद, त्वचा, प्रवाल (नवीन (कत्था) आदि वनस्पति। जितने प्रत्येक शरीर हैं, वहाँ उतने | कोंपल), क्षुद्रशाखा (टहनी), पत्र, फूल तथा बीजों को तोड़ने से प्रत्येक वनस्पति जीव होते हैं, क्योंकि एक-एक शरीर के प्रति | समान भंग हो, उनको सप्रतिष्ठित प्रत्येक कहते हैं और जिनका एक-एक जीव होने का नियम है। अर्थात् एक शरीर में एक जीव | भंग समान हो उनको अप्रतिष्ठित प्रत्येक कहते हैं। जिस वनस्पति होने वाली वनस्पति को प्रत्येक वनस्पति कहते हैं। के कंद, मूल, क्षुद्रशाखा या स्कंध की छाल मोटी हो उसको 18 मई 2004 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524285
Book TitleJinabhashita 2004 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2004
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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