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माना जाता है। क्योंकि जिस शरीर से अपनी स्त्री का आलिंगन। से पुत्र को लगाती है उस भाव से पति को नहीं। किया जाता है उसी से अपनी पुत्री का भी आलिंगन किया जाता | इस प्रकार हिंसा अहिंसा के मसले को समझने के लिये है। किन्तु दोनों क्रियायें बाहर से एक समान होते हुए भी भीतर | जैन शास्त्रों में बहुत ही गम्भीर विचार किया गया है। भावों का बड़ा अन्तर रहता है।
अहिंसा परमोधर्म:यतोधर्मस्ततोजयः। इसी तरह का एक और पद्य है
अहिंसा परमोधर्म: अहिंसा परमागति॥ सर्वासामेवशुद्धीनांभावशुद्धिः प्रशस्यते।
अहिंसा प्रतिष्ठायांतत्सन्निधौवैरत्यागः। अन्यथालिंग्यतेऽपत्यमन्यथालिंग्यतेपतिः।
(पातंजापयोगदर्शन) अर्थ- सब शुद्धियों में भावशुद्धि प्रधान है। एक महिला 'अप्रादुर्भावखलुरागादीनां भवत्यहिंसेति' पुत्र को भी छाती से लगाती है और पति को भी। किन्तु जिस भाव ।
(अमृत चंद्र) 'जैन निबन्ध रलावली' से साभार
सिद्धक्षेत्र गिरनार पर सौहार्द ः एक अभूतपूर्व उपलब्धि
डॉ. फूलचन्द्र जैन 'प्रेमी'
परमपूज्य आचार्यश्री विद्यासागर जी महाराज के परम । निश्चित ही वातावरण बदल सकता है। इस बार हम लोग शिष्य पूज्य मुनिपुंगव सुधासागर जी महाराज की सफल गिरनार | वन्दना करके वापिस लौटे, किन्तु मन खेद-खिन्न ही रहा। यात्रा के जो सुखद परिणाम सामने आये और सौहार्दपूर्ण वातावरण किन्तु फरवरी २००४ के द्वितीय सप्ताह में सम्माननीय बना, उससे सम्पूर्ण जैन समाज में प्रसन्नता की लहर फैलना | श्री रतनलाल जी बैनाड़ा से आगरा में पूज्य मुनिश्री की सफल स्वभाविक है। क्योंकि इस पवित्र सिद्धक्षेत्र से सम्पूर्ण जैन यात्रा के जैसे ही विस्तृत समाचार सुने तथा मार्च के जिनभाषित समाज की गहरी आस्थाएँ प्राचीन काल से ही जुड़ी हैं। इधर | में पढ़ा तो हम सभी के सुखद आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा। अनेक वर्षों से जैन तीर्थयात्रियों को वन्दना करते समय जो | मन खुशियों से झूम उठा। पाँचवीं टोंक पर भगवान नेमिनाथ के आस्थाएं आहत हो रही थीं, उससे कुछ-कुछ हताशा और निराशा | चरण चिन्हों का दुर्लभ पूजन-अभिषेक होना तथा सौहार्दपूर्ण की स्थिति बन रही थी।
वातावरण बनना अपने आप में अभूतपूर्व सफलता है। इसे हम पूज्य मुनिश्री के केकडी चातर्मास में अक्टबर २००३में सब यदि 'गिरनार विजय' की संज्ञा दें, तो कोई अत्युक्ति न 'पद्मपुराण' पर सम्पन्न राष्ट्रीय संगोष्ठी के बाद मुझे सपरिवार | होगी। सिद्धक्षेत्र गिरनार जी की वन्दना का सौभाग्य मिला। इस सिद्धक्षेत्र | वस्तुत: पूज्यमुनि श्री सुधासागर जी हैं ही श्रमण संस्कृति की वन्दना को तीस वर्ष बाद मेरे लिए दूसरा अवसर था। तथा तीर्थक्षेत्रों के सजग प्रहरी। वे जहाँ भी विहार क्रम में कुछ ब्रह्ममुहूर्त में हमने परिवार सहित जैसे ही पर्वत की यात्रा प्रारम्भ दिन विराजते हैं, उस क्षेत्र का 'कायाकल्प' और कुछ न कुछ की, जगह-जगह विभिन्न देवी-देवताओं के विग्रहों का अगणित | 'नया' होना जैसे निश्चित सा रहता है। सिद्धक्षेत्र गिरनार जी की सिलसिला, सजी हुई दुकानें, होटलें, ध्वनि विस्तारकों पर बजते | पाँचवी टोंक पर दर्शनादि की सुविधाओं हेतु सौहार्दपूर्ण वातावरण गीतों का शोरगुल, भीड़ और जैन यात्रियों की आस्थाओं का | तथा पहली टोंक पर त्रिकाल चौबीसी के निर्माण की पहल अपमान आदि देखकर मन वितृष्णा से भरता जा रहा था। लग | अपने आप में बहुत बड़ी उपलब्धियाँ हैं। अतः जहाँ हम सभी ही नहीं रहा था, हम किसी महान् पवित्र जैन सिद्धक्षेत्र की पूज्य मुनिश्री के प्रति सदा सविनय कृतज्ञता व्यक्त करते हैं वहीं वन्दनार्थ आगे बढ़े जा रहे हैं। तीस वर्ष पूर्व की और आज की | यही मंगलकामना करते हैं कि यह सौहार्द भाव स्थायी बना रहे, स्थिति में जमीन-आसमान का अन्तर दिख रहा था। यह सब | इसके लिए हम सभी को मिलजुलकर आगे भी सदा प्रयत्नशील स्थिति देखकर हम लोग आपस में चर्चा कर रहे थे कि ऐसे | रहना होगा, तभी इस महान् सिद्धक्षेत्र में हमारी आस्था तथा तीर्थों पर वातावरण सुधार हेतु पूज्य मुनिश्री सुधासागर जी जैसे | श्रमण संस्कृति की विशेष पहचान सुरक्षित रह सकेगी। सामर्थ्यशाली मुनिराज की आवश्यकता है। उनके आगमन से
बी-२३/४५, पी-६ शारदानगर कॉलोनी
खोजवाँ, वाराणसी - २२०१०
16 मई 2004 जिनभाषित
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