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________________ महाराजों को लिखा - औषधि लाने वाले के बारे में लिख भेज | ब्र. चन्द्रशेखर जी आश्रम के अधिष्ठाता जैसे पद पर रहकर कभी दिया। | बड़ेपन की बात नहीं की। इसी का परिणाम था कि पूज्य आचार्य प्रात:काल कटनी से समाचार आया औषधि प्रात:काल ८ | श्री ने विनयशील ब्र. चन्द्रशेखर जी को २० अप्रैल १९९६ अक्षय बजे दी गई है। मात्र दवा और थोड़ा सा पानी ही लिया गया है। तृतीया के दिन तारंगाजी में हम सभी सात ब्रम्हचारी क्रमश: ब्र. १० बजे समाचार आया लघुशंका हुई, स्वास्थ्य अच्छा सा लग | विनोदजी, ब्र. प्रदीपजी, ब्र. स्वतंत्रजी, ब्र. चद्रशेखरजी, ब्र. रहा है। इस दवाई की शर्त थी कि यदि लघुशंका हो जाती है तो शांतिकुमार जी, ब्र. पायप्याजी, ब्र. मनोजजी इस प्रकार क्रमश: वह काम कर रही है। समाचार था- महाराज में नई चेतना सी | सातों जनों को क्षुल्लक दीक्षा प्रदान की, जिनका नाम क्रमशः क्षु. आई है। पर यह चेतना अपने भीतर से जागृत होने की थी, - प्रज्ञासागर, क्षु. प्रबुद्धसागर, क्षु. प्रशस्तसागर, क्षु. प्रवचनसागर, क्षु. सावधानी की थी। हम दोनों महाराज आहारचर्या को उठ गये। पुण्यसागर, क्षु. पायसागर, क्षु. प्रभावसागर नाम रखे। जिनमें मुनि लेकिन जैसे ही आहारचर्या करके ११.३० बजे आया जो समाचार | श्री का चौथा नम्बर था। उनकी ऐलक दीक्षा १९ दिसम्बर १९९६ मिला वह बहुत दुःखद् था- बताया, 'महाराज श्री प्रवचनसागर | गिरनार जी सिद्ध क्षेत्र में पांचवी टोंक पर हुई। पर मेरी ऐलक जी की समाधि हो गई,' अपने आपको रोक नहीं पाया और आँखों दीक्षा नहीं हो सकी उन्हें बड़ा विकल्प रहा, पर सर्दी के कारण में से आँसू आ गये, ऐसा लगा जैसे वज्राघात हो गया हो। जाकर | साहस नहीं कर सका। मैं छोटा हो गया उन्हें बड़ा विकल्प रहता एकांत में बैठ गया और पुरानी स्मृतियों को स्मरण करने लगा। था। आगे चलकर १६ अक्टूबर १९९७ शरद पूर्णिमा को नेमावर मैं सामायिक में बैठ गया पर प्रवचनसागर जी की पुरानी | चातुर्मास में उनकी मुनि दीक्षा हो गई। उस समय भी उन्होंने स्मृतियाँ हमारे चारों ओर जिनमें से एक वह स्मृति है- जिस | हमसे कहा पर उस समय शारीरिक अस्वस्थ्यता एवं कुछ नियम व्यक्ति ने कभी भी अपने आवश्यकों में शिथिलता से कभी भी के कारण में साहस नहीं कर पाया। आगे चलकर मेरी इसी समझौता नहीं किया। नवम्बर-दिसम्बर सन् १९९५ की बात है, | नेमावर में ग्रीष्मकालीन प्रवास २२ अप्रैल १९९९ गुरुवर को हम हम उस समय ब्रह्मचारी विनोद की पर्याय में और महाराज श्री ब्र. | २३ महाराजों की मुनि दीक्षा हुई। हम दीक्षा में उनसे १८ माह चंद्रशेखर जी के रुप में थे। मैं और ब्र. अशोक, ब्र. अभय तीनों को २२ दिन छोटे थे। पर वे हमेशा कहते, 'हमारे बड़े महाराज तो आप आचार्य श्री से आशीर्वाद लेकर तारंगा जी में इन्द्रध्वज महामंडल | हैं।' मुझसे आयु में बड़े होने और दीक्षा में बड़े होने पर अपने आपको विधान कराने जाना था। हम लोग सनावद जिला-खरगोन से | छोटा कहते थे। पर मैं तो बडा मानता था और वे आचार्य श्री से आशीर्वाद लेकर इन्दौर आ गये। यहाँ से दूसरे दिन | अपने आपको कभी बड़ा नहीं माना। एक संस्मरण हैशाम ४-५ बजे करीब बस के द्वारा अहमदाबाद जाना था। मैंने मैं आचार्य श्री से पृथक होकर प्रथम बार हरदा में ग्रीष्मकाल रात्रि में ब्रम्हचारी चंद्रशेखर जी से कहा, 'भैयाजी ! हमने मक्सीजी | करके नेमावर आया, सभी महाराज लोग मुझे लेने आये, मैंने सभी क्षेत्र के दर्शन नहीं किये प्रात:काल के समय आप हमें वहाँ के के चरणस्पर्श किये जैसे ही इनकी ओर झुका हाथ पकड़ लिये पैर दर्शन करा दो।' उन्होंने कहा, 'ठीक है। पर कितने बजे चलना नहीं छूने दिये। आचार्य श्री के पास ३-४ दिन रहा। गुरुदेव का है?' हमने कहा, 'सुबह ६ बजे चलें।' उन्होंने तुरन्त कहा, 'तुम | संकेत था तुम्हें और ऐलक जी को बैरसिया (भोपाल) चातुर्मास लोग चले जाओ, हम तो ६.३० बजे के पहले नहीं जा सकते हैं।' को जाना है। फिर नेमावर से विहार हुआ सभी महाराज लोग मैंने कहा, 'नहीं आपको चलना पढ़ेगा,' 'ठीक है ६.३० बजे | छोड़ने आये, सभी अग्रज मुनियों के चरणस्पर्श पूर्वक नमोस्तु चलेंगे।' तभी एक ब्र. भाई ने कहा, '६ बजे क्यों नहीं चलोगे?' | किया। मुनि श्री प्रवचनसागर जी के जैसे करने लगा तो फिर हाथ उन्होंने सीधा कहा, 'हमारे पाठ आदि पूरे नहीं होते हैं, पूरे करके | पकड़ लिये, बोले, 'बड़े महाराज से हम चरण स्पर्श नहीं कराते।' ही चलूँगा।' उन्होंने कहा, 'गाड़ी में बैठकर पूरे कर लेना।' हमने बहुत प्रयास किया, समझाया, 'बड़े तो आप हैं लेकिन अंत उन्होंने तुरन्त उत्तर दिया, 'अभी गाड़ी में बैठकर पाठ करना, फिर | में मुझे बिना चरण छुए जाना पढ़ा। ऐसे महान गुणों से सम्पन्न पूजा करने लगना। धीरे-धीरे आगे जाकर गाड़ी में बैठे-बैठे महान साधक हम सबके आदर्श महानता की महामूर्ति के बारे में भोजन भी करने लगना।' ब्रह्मचारी जी मौन रहे उत्तर नहीं दे | जितना लिखो बहुत कम है। आज हमारे बीच में नहीं हैं। अपने सके। ऐसे ब्रम्हचारी अवस्था में उनकी आवश्यकों के प्रति सदा | चरम लक्ष्य को विकट परिस्थिति के समय में सावधान रहकर तत्परता रहती थी। उदासीन आश्रम इंदौर के अधिष्ठाता के पद पर अपने लक्ष्य को प्राप्त किया, ऐसे महान साधक के चरणों में रहते हुए उन्होंने कभी अपने आवश्यकों में शिथिलता नहीं आने बारम्बार अपने आपको नतमस्तक करता हूँ, नमन करता हूँ और दी। पूरे आश्रम को अच्छे अनुशासन में रखते हुए स्वयं अनुशासित | अपने प्रभु और अपने गुरु से यही भावना करता हूँ कि जैसे हमारे होकर रहते हैं। पूज्य गुरुदेव के प्रत्येक संकेत को अपने पास रखते अपने साधर्मी ने अपने लक्ष्य को प्राप्त किया वैसे हम भी अपने लक्ष्य को प्राप्त करें, इसी भावना के साथ कलम को विराम देता हूँ.... । पूज्य आचार्य श्री की प्रत्येक आज्ञा निर्देश में चलने वाले । ओम शांति! 14 मई 2004 जिनभाषित थे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524285
Book TitleJinabhashita 2004 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2004
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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