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________________ जिज्ञासा-समाधान पं. रतन लाल बैनाड़ा प्रश्नकर्ता - आलोक कुमार शास्त्री धारण करने पर भी, आहार के बिना कुछ भी आकुलता नहीं थी जिज्ञासा- तीर्थंकर प्रभु क्षुधा की पीड़ा होने पर आहार | परन्तु अन्न भी धर्म का साधन है, अतः इस भरत क्षेत्र में, शासन को उठते हैं या अन्य कारण है ? की स्थिरता के लिये, मैं आहार के इच्छुक मनुष्यों को निर्दोष समाधान- उपरोक्त प्रश्न के समाधान में निम्न प्रसंग आहार ग्रहण करने की विधि दिखलाता हूँ। ऐसा विचारकर, विचारणीय है यद्यपि भगवान् क्षुधादि के दूर करने में स्वयं समर्थ थे, तो भी १. पद्मपुराण पृष्ठ ५७, चतुर्थपर्व श्लोक नं. १ परोपकार के अर्थ उन्होंने गोचरवृत्ति से अन्न ग्रहण करने की हिताय जगते कर्तुं, दान धर्मं समुद्यतः ॥१॥ इच्छा की। अर्थ - भ. ऋषभदेव जगत के कल्याण के निमित्त दान । उपरोक्त सभी प्रसंगों से यह स्पष्ट होता है कि तीर्थंकर धर्म की प्रवृत्ति करने के लिये उद्यत हुये। प्रभु, क्षुधा की वेदना के निवारणार्थ चर्या नहीं करके, भव्यों को २. पद्मपुराण पृष्ठ ५८, चतुर्थपर्व श्लोक नं. २१ दान विधि बताने के लिये चर्या करते हैं। अथ प्रवर्तनं कृत्वा, पाणिपात्रव्रतस्य सः। शुभ ध्यानं प्रश्नकर्ता - सौ. ज्योति लोहाड़े, कोपरगांव समाविष्टो, भूयोपि विजितेन्द्रियः ॥२॥ जिज्ञासा- एकत्ववितर्क अविचार शुक्ल ध्यान प्रतिपाती अर्थ- अथानंतर इन्द्रियों को जीतने वाले भ. ऋषभदेव, | है या अप्रतिपाती ? दिगम्बर मुनियों का व्रत कैसा है? उन्हें किस प्रकार आहार दिया | समाधान - कौन सा शुक्ल ध्यान किस गणस्थान में होता जाता है, इसकी प्रवृत्ति चलाकर पुनः शुभ ध्यान में लीन हो गये।२१।। है, इस संबंध में आचार्य की दो परम्पराएँ आगम में वर्णित हैं। ३.श्री वीरवर्धमान चरिते (ज्ञानपीठ) पृष्ठ १२४, श्लोक २-३ | प्रथम परम्परा के अनुसार वृहद् द्रव्य संग्रह गाथा - ४८ की टीका अर्थ- अथानंतर महावीर स्वामी यद्यपि छहमासी उपवास | में इस प्रकार कहा है- 'तच्चोपशम श्रेणिविवक्षायाम पूर्वोपशमका आदि तपों के करने में अतीव समर्थ थे, तो भी अन्य मुनियों को | निवृत्युपशमक सूक्ष्मसाम्परायोपशमकोपशान्त कषाय उत्तम चर्या मार्ग बतलाने के लिये, पारणा के दिन धृति और धैर्य | पर्यन्तगुणस्थानचतुष्टयेभवति। क्षपक श्रेण्यांपुनरपूर्वकरणक्षपका से बलशाली, शरीर-भोगादि में अत्यन्त निस्पृह प्रभु ने शरीर स्थिति | निवृत्तिकरणक्षपकसूक्ष्मसाम्प राय क्षपकाभिधानगुणस्थानत्रये चेति में बुद्धि की अर्थात् गोचरी के लिये उद्यत हुये। २-३। प्रथमं शुक्लध्यानं व्याख्यातम्।' । ४.श्रीआदिपुराण (ज्ञानपीठ) पर्व-२०, श्लोक नं. २-३-४ | अर्थ- यह प्रथम शुक्लध्यान उपशम श्रेणी की विवक्षा में 'अर्थ- तब यतियों की चर्या अर्थात् आहार लेने की विधि | अपूर्वकरण उपशमक, अनिवृत्तिकरण उपशमक, सूक्ष्मसांपराय बतलाने के उद्देश्य से, शरीर की स्थिति के अर्थ, निर्दोष आहार उपशमक और उपशान्त कषाय इन चार गुणस्थानों में होता है और ढूंढने के लिये उनकी इस प्रकार बुद्धि उत्पन्न हुई, वे ऐसा विचार | क्षपक श्रेणी की विवक्षा में अपूर्वकरण क्षपक, अनिवृत्तिकरण करने लगे। २। कि बड़े दुःख की बात है कि बड़े-बड़े वंशों में क्षपक और सूक्ष्मसांपराय क्षपक, इन तीन गुणस्थानों में होता है। उत्पन्न हुये ये नवदीक्षित साधु समीचीन मार्ग का परिज्ञान न होने | इस प्रकार प्रथम शुक्लध्यान का व्याख्यान हुआ। के कारण, इन क्षुधा आदि परिषहों से शीघ्र भ्रष्ट हो गये। ३। 'यत्तदेकत्ववितर्कावीचारसंज्ञं क्षीणकषाय गुणस्थान सभवं द्वितीय इसलिए अब मोक्ष का मार्ग बतलाने के लिये और सुख पूर्वक | शुक्लध्यानं भण्यते। मोक्ष की सिद्धि के लिये शरीर की स्थिति के अर्थ आहार लेने की अर्थ-वह क्षीणकषाय गुणस्थान में संभव'"एकत्ववितर्क विधि दिखलाता हूँ।४।। अवीचार' नामक दूसरा शुक्लध्यान कहलाता है। ५.महापुराण (ज्ञानपीठ)कवि पुष्पदंत विरचित पृष्ठ १८३, भावार्थ - प्रथम शुक्ल ध्यान ८ वें से ११ वें गुणस्थान संधि ९ तक तथा द्वितीय शुक्लध्यान १२ वें गुणस्थान में होता है। भगवती तब भगवान ऋषभदेव सोचने लगे कि में शुद्ध भोजन | आराधना, सर्वार्थसिद्धि, ज्ञानार्णव, कार्तिकेयानुप्रेक्षा आदि ग्रन्थों में पाणि रुपी पात्र से खाऊं एवं चर्या का आचरण संसार को बताऊं।। भी इस परम्परा का अनुसरण किया गया है। यदि मैं किसी प्रकार इसी तरह रहता हूँ और भोजन नहीं करता हूँ २. द्वितीय परम्परा धवलाकार आ. वीरसेन स्वामी की है। तो जिस प्रकार ये ४००० साधु नष्ट हो गये उसी प्रकार दूसरा मुनि | जिसके अनुसार धवला पु. १३ पृष्ठ ७४ पर ऐसा कहा हैसमूह भी नष्ट हो जायेगा। तब वे योग छोड़कर विहार करते हैं। । 'धम्मज्झाणं सकसाएसु चेव होदि त्ति कधं णव्वदे? ६. हरिवंशपुराण (ज्ञानपीठ) सर्ग ९, पृष्ठ १७७ श्लोक नं. | असंजदसम्मदिट्ठि संजदासंजद पमत्तसंजद अप्पमत्तसंजद १३५-१४० अपुव्वसंजदअणियट्ठिसंजद सुहमसांपराइय खवणोवसामएसु अर्थ - उन भगवान ऋषभदेव को ६ माह से प्रतिमा योग | धम्मज्झाणस्स पवुत्ती होदित्ति जिणोवएसादो।' - जनवरी 2003 जिनभाषित 27 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524281
Book TitleJinabhashita 2004 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2004
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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