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________________ अर्थ - धर्मध्यान कषायसहित जीवों के होता है यह किस ने श्री धवला पु. १, पृष्ठ ३८६ पर इस प्रकार कहा है 'लेश्या इति किमुक्तं भवति ?' कर्मस्कन्धैरात्मानं लिम्पतीति लेश्या । कषायानुरंजितैव योगप्रवृत्तिर्लेश्येति नात्र परिगृह्यते सयोगकेवलिनोऽलेश्यत्वापत्तेः । अस्तु चेन्न, 'शुक्ललेश्यः सयोगकेवली' इति वचनव्याघातात् । प्रमाण से जाना जाता है ? असंयत सम्यग्दृष्टि, संयतासंयत, प्रमत्तसंयत, अप्रमत्तसंयत क्षपक और उपशामक, अपूर्वकरणसंयत क्षपक और उपशामक, अनिवृत्तिकरणसंयत क्षपक और उपशामक तथा सूक्ष्मसांपराय संयत जीवों के धर्मध्यान की प्रवृत्ति होती है, ऐसा जिनदेव का उपदेश है। इससे जाना जाता है कि धर्मध्यान कषाय सहित चतुर्थ गुणस्थान से दसवें गुणस्थान तक के जीवों के होता है। आ. वीरसेन महाराज ने प्रथम शुक्ल ध्यान ११ वें तथा १२ वें दोनों गुणस्थानों में तथा द्वितीय शुक्लध्यान भी ११ वें तथा १२ वें दोनों गुणस्थानों में माना है। अर्थात् उपशम श्रेणी में ११ वें गुणस्थान के प्रारम्भ में प्रथम शुक्ल ध्यान और बाद में द्वितीय शुक्लध्यान होता है तथा क्षपक श्रेणी में १२ वें गुणस्थान के प्रारंभ में प्रथम शुक्ल ध्यान और बाद में द्वितीय शुक्ल ध्यान होता है। श्री धवला पु. १३, पृष्ठ ८१ पर कहा गया है 'उवसंतकसायम्मि एयत्तविदक्काविचारं । ' अर्थ- 'लेश्या' इस शब्द से क्या कहा जाता है ? जो कर्मस्कन्धों से आत्मा को लिप्त करती है उसे लेश्या कहते हैं । यहाँ पर 'कषाय से अनुरंजित योगप्रवृत्ति को लेश्या कहते हैं ' यह अर्थ नहीं गृहण करना चाहिए, क्योंकि इस अर्थ का ग्रहण करने पर सयोगकेवली के लेश्या रहितपने की आपत्ति प्राप्त होती है। यदि यह कहा जाए कि सयोगकेवली को लेश्यारहित मान लिया जाये तो क्या हानि है ? ऐसा नहीं माना जा सकता, क्योंकि ऐसा मान लेने पर 'सयोगकेवली के शुक्ल लेश्या पाई जाती है, इस वचन का व्याघात हो जाएगा।' इसलिए जो कर्मस्कन्धों से आत्मा को लिप्त करती है वह लेश्या है। श्री धवला पुस्तक १, पृष्ठ १५० पर आ. महाराज पुनः लिखते हैं अर्थ- उपशांत कषाय गुणस्थान में एकत्ववितर्क अविचार ध्यान होता है। इसी पृष्ठ पर आगे कहा है 'ण च खीणकसायद्धाए सव्वत्थ एयत्तविदक्काविचारज्झाणमेव अर्थ-क्षीणकषाय गुणस्थान के काल में सर्वत्र एकत्ववितर्क अविचार ध्यान ही होता है, ऐसा कोई नियम नहीं है। 'अर्थात् १२ वें गुणस्थान में पृथकत्व वितर्क शुक्लध्यान भी होता है ' भावार्थ - चौथे से दशमें गुणस्थान तक धर्मध्यान होता है । ११ वें तथा १२ वें दोनों गुणस्थानों में पृथकत्व वितर्क विचार तथा एकत्व वितर्क अविचार दोनों शुक्ल ध्यान होते हैं । अब प्रश्नकर्ता के प्रश्न पर विचार करते हैं उपरोक्त दोनों परम्पराओं के अनुसार पृथकत्व वितर्क वीचार नामक प्रथम शुक्ल ध्यान प्रतिपाति माना गया है। परन्तु द्वितीय शुक्ल ध्यान को प्रथम परम्परा अप्रतिपाति मानती है क्योंकि वह मात्र बारहवें गुणस्थान में होता है और वे मुनिराज वहाँ से नीचे नहीं उतरते। लेकिन द्वितीय परम्परा के अनुसार एकत्व वितर्क अविचार शुक्लध्यान भी प्रतिपाति कहा गया है क्योंकि द्वितीय शुक्लध्यान ११ वें गुणस्थान में भी माना है और यहाँ से मुनिराज अवश्य ही नीचे उतरते हैं । एक अन्य विषय भी विचारणीय है कि आचार्यों ने तृतीय शुक्ल ध्यान सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाती के साथ ही अप्रतिपाती विशेषण जोड़ा है, जो इस बात का परिचायक है कि इससे प्रथम के दोनों शुक्ल ध्यान प्रतिपाति हैं । इस प्रकार द्वितीय शुक्लध्यान के प्रतिपाति और अप्रतिपातिपने का दोनों परम्पराओं से विचार करना चाहिए। प्रश्नकर्ता - कु. कंचन जैन, अलवर जिज्ञासा - लेश्या तो कषाय और योग सहित होती है। लेकिन सयोग केवली के कषाय नहीं होती फिर उनके शुक्ल लेश्या किस अपेक्षा से कही गई है ? समाधान- उपरोक्त प्रश्न के संबंध में आ. वीरसेन स्वामी 28 जनवरी 2003 जिनभाषित Jain Education International 'कषायानुविद्धायोगप्रवृत्तिर्लेश्येति सिद्धम । ततोत्र वीतरागीणां योगी लेश्येति न प्रत्यवस्थेयं तन्त्रत्वाद्योगस्य न कषायस्तन्त्रं विशेष णत्व तस्तस्य प्रधान्याभावात् ।' अर्थ- 'कषायानुविद्ध योगप्रवृत्ति को लेश्या कहते हैं ' ऐसा सिद्ध हो जाने पर ग्यारहवें आदि गुणस्थानवर्ती वीतरागियों के केवल योग को लेश्या नहीं कह सकते हैं ऐसा निश्चय नहीं कर लेना चाहिए, क्योंकि लेश्या में योग की प्रधानता है, कषाय प्रधान नहीं है, कारण कि वह योग प्रवृत्ति का विशेषण है, अतएव उसकी कषाय की प्रधानता नहीं हो सकती है।' गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा ४८९ में इस प्रकार कहा हैलिंपइ अप्पीकीरइ, एंदीए णियअपुण्या पुण्णं च । जीवोत्ति होदि लेस्सा लेस्सागुणजाणयक्खादा ॥४८९ । अर्थ जिसके द्वारा जीव पुण्य और पाप से अपने को लिप्त करता है, उनके अधीन करता है, उसको लेश्या कहते हैं, ऐसा लेश्या के स्वरुप को जानने वाले गणधर देव आदि ने कहा है । उपरोक्त प्रमाणों के अनुसार लेश्या की परिभाषा में योग की प्रधानता है, कषाय की नहीं । इसी कारण १३ वे गुणस्थान योग प्रवृत्ति होने से शुक्ल लेश्या कही गई है। में प्रश्नकर्ता - श्री सविता जैन, नंदुरवार जिज्ञासा - लोक विनिश्चय ग्रन्थ के कर्ता कौन हैं, ? समाधान- लोकविनिश्चय ग्रन्थ के उद्धरण तिलोयपण्णत्त व अन्य ग्रन्थों में पाए जाते हैं, परन्तु यह ग्रन्थ वर्तमान में उपलब्ध नहीं है। इस ग्रन्थ के नाम से यह तो स्पष्ट होता है कि इस ग्रन्थ में तीन लोक का वर्णन किया गया होगा । परन्तु न तो ग्रन्थ ही उपलब्ध है और न इसके रचियता का नाम ही ज्ञात है। विद्वानों ने इस ग्रंथ का रचनाकाल ईसा की प्रथम शताब्दी के लगभग माना है। १/२०५, प्रोफेसर्स कॉलोनी, आगरा - २८२००२ For Private & Personal Use Only - www.jainelibrary.org
SR No.524281
Book TitleJinabhashita 2004 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2004
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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