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________________ 781 Em.F2 है। 800 को यह अर्हत सिद्ध हैं। क्रिया दर्शाते हैं। यह निश्चय और व्यवहार धर्म है। यह सल्लेखी को दर्शाता है, जो संकल्प बद्ध 000000 यह रत्नत्रय है। है। यह चार अनुयोग और चार आराधना हैं। यह पत्ती शाकाहार दर्शाती है। यह पंच परमेष्ठी और पंचाचार हैं। यह पत्ती नहीं पीच्छी है जो महाव्रती दर्शाती यह पंचाचारी हैं। यह षट् द्रव्य हैं। यह देशव्रती संयमी है अणुव्रती है। यह सप्त तत्त्व हैं और सप्त तत्त्व चिंतन। यह महाव्रती है। सकलव्रती है। ये सप्त नय हैं। यह शिखर तीर्थ है। यह अष्ट मद पतन कराने वाले हैं (कुल, यह मांगी तुंगी तीर्थ है। गोत्र, रूप, ज्ञान, तप, धन, शक्ति, सत्ता पद) यह तद्भवी मोक्षपथी हैं। ये अष्ट वैभव हैं यह स्वयंतीर्थ है। ये नौ पदार्थ हैं यह स्वयंतीर्थ दिग-दिगन्त तक धर्म संदेश ये चार गतियाँ है पहुंचा रहा है संभवतः यह क्षेत्र श्रमण ये चार दुर्ध्यान हैं बेलगोला है। जहाँ पर्वत पर अनादि काल से ये नौ देवता हैं सल्लेखी पहुंचकर अपनी तप साधना करते ये नौ योनिस्थान हैं रहे हैं। ये द्वादश तप हैं यह नदी के तट पर साधना रत आर्यिका है। ये बारह भावनाएँ हैं यह बंद घर या आश्रम है/संघ है। प्रतिमा ये दश धर्म हैं DH संयम है। ये ग्यारह प्रतिमाएँ हैं यह संघ का नेता है। ये ग्यारह प्रतिमा व्रत हैं यह आचार्य हैं जिनके कंधों पर श्रावक संघ ये सोलह कारण भावनाएँ हैं। और श्रमण संघ का भार है। ये २४ तीर्थंकरों के प्रतीक हैं। यह चार अनुयोगी आचार्य हैं। ये खड़गासन में मुक्ति का प्रतीक हैं। यह निकट भव्य है। (कायोत्सर्गी सल्लेखना) यह ऊलचूल है जो चातुर्मास/चौमासा दर्शाता यह जाप है। है। वहाँ इसकी आवश्यकता है। यह अर्धचक्री है यह भव्य हैं। यह चक्री है। यह भी भव्य है। यह छत्रधारी या छत्री है जो अपने छत्र के यह मेरूपर्वत सहित ढाई द्वीप है। अंदर सबकी रक्षा करता है। यह जम्बूद्वीप है। यह तीन छत्र तीर्थंकर के प्रतीक हैं जो कभी ये अष्टपद है। ५ और कभी ७ भी दिखते हैं यह तीर्थंकर का द्योतक है। मध्य में यह हर जैन बच्चे को इन संकेतों से लिंग पुल्लिंग है। यह गुणस्थान भी दर्शाता । परिचित होना चाहिए ताकि जहाँ-कहीं ये प्राचीन तीर्थ क्षेत्रों पर दिखाई दें इनको प्रकाश में लाया जा सके। ये चिन्ह अनछूती यह सब तीर्थंकरत्व के द्योतक हैं। अरिहंत | चट्टानों पर, गुफाओं में और प्राचीन मूर्तियों पर दिखाई देना संभव हैं। चित्र-१ में दृष्ट संकेतों की भांति इनका महत्व अति विशेष है यह सल्लेखना दर्शाते हैं। ११ जो जैनधर्म की पुरातनता का सजीव प्रमाण हैं। यह केवलत्व है। सिरिभूवलय ग्रंथ में एक ऐसा भी वर्णन आता है कि यह केवली द्वारा समुद्घात की लोकपूरन uu unimum BHAHEB Ko inthians mhin JAMINE है। हैं। 20 जनवरी 2003 जिनभाषित - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524281
Book TitleJinabhashita 2004 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2004
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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