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________________ 10-15 में महाव्रती के रत्नत्रय का प्रतीक है। सम्यक् दर्शन, सम्यक ज्ञान और सम्यक चारित्र। अब सात खड़ी लकीरें सप्त तत्त्वों की द्योतक हैं जो जीव, अजीव, आस्त्रव, बंध, संवर, निर्जरा और मोक्ष की द्योतक हैं जो जैन अध्यात्म का मूल हैं और जिन्हें महाव्रती प्रतिक्षण याद रखता है। तपस्वी का साक्षात् कायोत्सर्गी रहना यह बतलाता है कि वह आत्मस्थ है। विन्ध्यगिरि की खड़ी शिला पर यह अंकन एक बहुत बड़ी उपलब्धि है जो विश्व के सम्मुख सर्वप्राचीन मानव सभ्यता की कुंजी स्वरूप सैंधव लिपि के रहस्य उद्घाटित करती है। यह कि १. सैंधव लिपि जिनशासन की महत्ता दर्शाती एक प्राचीन लिपि है। २. जो संकेत यहाँ जीवंत हैं उन्हें ही सैंधव संस्कृति में छोटी-छोटी मुहरों के रूप में दर्शाया गया है। वह संस्कृति इसी तरह दूर-दूर तक फैली। ३. सैंधव लिपि को एक मात्र जैनाधार से ही समझा जा सकता है। ४. ऋग्वेद, गायत्री सुत्र, माहेश्वर सत्र और अनष्टभ छंद के द्वारा ऐड़ी-चोटी की भरपूर मेहनत के बाद भी वह लिपि पढ़ी नहीं जा सकी है। यही इस बात का साक्षी है कि सैंधव लिपि जन-जन के हितार्थ चित्रों और संकेतों का आधार लेकर हमारी पुरा पीढ़ियों द्वारा हम तक प्रेषित की गई है। इसे सुरक्षित रखते हुए जन-जन तक पहुँचाना हमारा कर्त्तव्य है। इसके संकेताक्षर अक्षर ही नहीं शब्द और महासूत्र हैं जो ___ अपने अंदर गंभीर अर्थ संजोए हैं यथा MENUAR/ +RYm यह वातावरण जंगल का द्योतक है जिसे सैंधव प्रतीकों में अथवा रूप में तपस्वी के साथ दर्शाया है। कलाकार द्वारा इसे सहज रूप में दर्शाया जाता रहा है जो वैराग्य, वानप्रस्थ और तप का द्योतक है इसी को अनेक लकीरों द्वारा अलग-अलग भूमिका में उपयोग किया गया है। यह वैराग्य लिंग का द्योतक है अथवा दिगम्बरत्व का। यह योगी है जो कायोत्सर्ग करता दर्शाया गया है। यह दिगम्बर है। यह एक वस्त्रधारी है या आर्यिका अथवा ऐलक है। यह क्षुल्लक या क्षुल्लिका है क्योंकि दो वस्त्र धारी हैं। यह तपस्वी है जो दिगम्बर है। यह करवट से सोता तपस्वी है जो सल्लेखना मुद्रा में है यह सल्लेखना झूला या उसी सेवा गोझी है। (स्ट्रेचर) लाने ले जाने वाली। यह स्वास्तिक के केन्द्र से उठती पंचमगति है। चार गतियाँ केंद्र से सटकर हैं। यह स्वसंयम का भाला है जो तपस्वी अपने ही लिए उपयोग करता है। यह स्वसंयमी है जिसने भाला अपने अंदर से निकाला है। यह रुद्र का त्रिशूल नहीं रत्नत्रय है। ये धार्य है, हिंसा का शस्त्र नहीं। यह पुरुषार्थ का धनुष है। यह प्रतिमाधारण का पुरुषार्थ है। ये विद्याधर हैं जो उड़ सकते थे। यह काल चक्र, छह खंडीय है। यह अवसर्पिणी, उत्सर्पिणी की ३ चक्रीय रेखा है। यह उत्सर्पिणी काल रेखा है। यह अवसर्पिणी काल रेखा है। यह तितली नहीं चंचल मन है। यह तीन धर्मध्यान हैं। यह दो अथवा चार शुक्लध्यान हैं। यह अष्टकर्म हैं। HTHE द्वारा घर और चौखट या दहलीज़ हैं जिसके द्वारा घर और गृही का बोध होता है। ओखल और मूसल हैं जिनके बिना धान्य उपलब्धि नहीं। ये आरंभी गृहस्थ के द्योतक हैं। आरंभी गृहस्थ के ओखल मूसल, चूल्हा, चक्की, बुहारी और सूपा आवश्यक जीवनोपयोगी साधन हैं जिन्हें जैन भाषा में पांच सून कहा गया है। ये भी आरंभी गृहस्थ के साधन हैं। इनसे आरंभी हिंसा होती है। यह वातावरण का द्योतक है इसे विद्वानों ने 'पैमाना' कहा है। ve -जनवरी 2003 जिनभाषित 19 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524281
Book TitleJinabhashita 2004 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2004
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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