SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 23
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 'दण्डकारण्य वास में इन्द्रगिरी (विन्ध्यगिरि) पर लक्ष्मण ने अपनी गदा दंड की नोक से बड़े पर्वत की एक शिला पर एक जिनबिंब रेखाकिंत किया। वे रेखाएँ बाहुबलि की मूर्ति के समान (खड़गासन) दिखने लगीं। तब रामचन्द्र जी ने उसी मूर्ति की आकार रेखा को मूर्ति मानकर उसका दर्शन कर भोजन किया।' कदाचित इस खड़ी शिला पर अंकित ये वह बिंब हो जिसके साथ आज भी सैंधव लिपि के भाला, पीछी, त्रिशूल और सप्त तत्त्व अंकित हैं। कटवप्र पर जो सैंधव लिपि और संकेत दृष्ट थे वे सब यहाँ विन्ध्यगिरि पर भी प्रचुरता से अंकित हैं साथ ही यहाँ अन्य अनेक संकेत भी उपलब्ध हैं। विशेषकर तीन शीर्ष वाला घोडा (व्यन्तर/यक्ष) तथा मंदिर का पुराकालीन अस्तित्व। संपूर्ण विन्ध्यगिरि की चट्टान पर सैंधव लिपि 'कालीन' सी बिछी पड़ी है। आश्चर्य की बात यह विशेष है कि चट्टान की परतें उखाड़ी जाने पर नीचे वाली चट्टान में भी लिपि झलकती है। यह तभी संभव है जब पिछली चट्टान पर भी उकेर की गई हो। अथवा उकेर इतनी गहरी हो कि उस कड़ी चट्टान को बारीकी से भेद कर नीचे तक पहुंच गई हो। यह समझ से परे है कि उस काल में बारीक लेखनी का उपयोग करते हुए भला किस प्रकार इतनी । सुंदर लिपि उकेरी गई होगी? पत्थर पर अंकित यह पुरा लिपि विश्व का महान अचरज है जो अब तक अनदेखी उपेक्षित पड़ी थी यह तो मानना ही होगा। इसके समस्त सूत्र सिरि भूवलय में संभव हैं यह और भी बड़ा आश्चर्य है। जो अठारह महाभाषाएँ भूवलय में समाहित थीं वे हैंहंस, भूत, वीरयक्षी, राक्षसी, ऊहिया, यवनानी, तुर्की, द्रामिल, सैंधव, मालवणीय, किरीय, नाड्ड, देवनागरी, पारसी, वैविध्यन, लाड आमित्रिक एवं चाणक्य ! अर्थात् 'देवनागरी' आचार्य कुमुदेन्दु के काल से पूर्व से ही एक महाभाषा के रूप में प्रतिष्ठित थी। 'सैंधव' भी एक महाभाषा थी अत: देवनागरी का ऊँ विभिन्न रूपों में सिंधु घाटी सभ्यता में प्रभावी रहा हो विशेष आश्चर्य की बात नहीं है। उस काल की सैंधव कदाचित यही चित्र और संकेत लिपि रही हो सो भी असंभव नहीं है। उस स्थिति में जैन सिद्धांतों को प्रतिपादित और अभिव्यक्त करने वाली यह चित्र और संकेत लिपि अत्यंत महत्वपूर्ण बन जाती है जिसको जाने बिना किसी भी भाषाविद का ज्ञान अधूरा माना जाएगा। साधुओं के चिंतन का खेल यह सर्प सीढ़ी प्राचीन काल से भावों की उठान गिरान द्वारा गुणस्थान बतलाती है। यह गुणोन्नति का अंकन एक ओर आर्यिका तथा दूसरी ओर साधु की स्थिति दर्शाता है। यह चेलक अचेलक की तपोन्नति दर्शाता है। यह गुणोन्नति आर्यिका एवं वस्त्रधारी साधुओं की है। यह केवली समुदघात है जिसमें दंड, प्रतर और लोकपूरण की स्थितियाँ दृष्ट हैं। यह तपस्या का प्रतीक है जो कभी उपशम में गिरान भी दिला सकता है। यह भी उपशम का प्रतीक है। यह क्षयोपशम का प्रतीक है। यह रत्नत्रय पंचाचार में बदल रहा है। यह निश्चय और व्यवहार धर्म चार आराधन में बदल रहा है। यह रत्नत्रयी पंचाचार है इसे विद्वानों ने 'हस्त' पुकारा है। यह निश्चय व्यवहारी सप्त तत्त्व चिंतन है। यह लोक है लोक में सिद्ध शिला पर मक्खन सा तैरना शुद्ध जीव। लोक में चार अघातियों से घिरी, भवचक्र में फँसी जीवस्थिति लोक में चार गतियों की अष्टकर्मी भटकान भव चक्र में अष्ट कर्मी उलझन अंतहीन भटकान में पर्यायें बदलता जीव निकलने को राह नहीं। अंतहीन भटकान से जूझन रत्नत्रयी संसार रत्नत्रयी जम्बूद्वीप जम्बूद्वीप में मुक्ति का साधन, अर्ध्व उठान त्रिगुप्ति सामायिक atta xxAGOHD भरत ऐरावत में रत्नत्रय है चार आराधना वाले भरत ऐरावत क्षेत्र ये गुणस्थान है, उन्नति का मार्ग। यह भी गुणस्थान का संकेत देते हैं जो तद्भवी मोक्ष तक दर्शाता है जनवरी 2003 जिनभाषित 21 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524281
Book TitleJinabhashita 2004 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2004
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy