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________________ जैन गृहस्थाचार परम्परा का क्रमिक विकास डॉ. शीतलचन्द्र जैन श्रावक या गृहस्थ के लिए प्राकृत ग्रन्थों में सावय, सावग । कहलाता है। और उपासग तथा संस्कृत ग्रन्थों में श्रावक, उपासक और सागार ___ अन्तरंग में रागादिक के क्षय की हीनाधिकता के अनुसार शब्दों का प्रयोग किया जाता है। प्रकट होने वाली आत्मानुभूति से उत्पन्न सुख का उत्तरोत्तर अधिक उक्त आधार पर गृहस्थ के धर्म को सावयधम्म, श्रावकाचार, अनुभव होना ही है स्वरूप जिनका ऐसे और बहिरंग में त्रसहिंसा उपासकाचार, सागार धर्म आदि नाम दिये गये तथा गृहस्थाचार आदिक पांचों पापों से विधिपूर्वक निवृत्ति होना है स्वरूप जिनका विषयक ग्रंन्थों के श्रावकाचार, उपासकाध्ययन, उपासकाचार, ऐसे ग्यारह प्रतिमाओं को क्रमश: देशविरत नामक पंचम गुणस्थान सागारधर्मामृत आदि नाम रखे गये हैं। कुछ अन्य ग्रन्थ जिनमें के दार्शनिक आदि स्थानों-दरजों में मुनिव्रत का इच्छुक होता श्रावकाचार का वर्णन किया गया है, इनसे भिन्न नामों से भी हुआ जो सम्यग्दृष्टि व्यक्ति किसी एक स्थान को धारण करता है लिखे गये। जैसे समन्तभद्र का रत्नकरण्डक, अमृतचन्द्र का उसको श्रावक मानता हूँ अथवा उस श्रावक को श्रद्धा की दृष्टि से पुरुषार्थ-सिद्धयुपाय और पद्मनन्दि की पंचविंशतिका । देखता हूँ। श्रावक शब्द की व्युत्पत्ति - श्रावक के भेद श्रावक शब्द की व्युत्पत्ति करते हुए आशाधर ने लिखा है जैन वाङ्गमय में श्रावक के भेदों का विवेचन मुख्यतया शृणोति गुर्वादिम्यो धर्ममिति श्रावकः । निम्नलिखित चार आधारों पर प्राप्त होता हैअर्थात् जो श्रद्धापूर्वक गुरु आदि से धर्म श्रवण करता है 1. गुणस्थानों के आधार पर। वह श्रावक है। 2. व्रतों के आधार पर। सागारधर्मामृत में सागार की परिभाषा देते हुए आशाधर 3. प्रतिमाओं के आधार पर। • कहते हैं कि सागार-गृहस्थ अनादिकालीन अविद्या के दोष से 4. आशाधर के आधार पर। उत्पन्न चार संज्ञाओं-आहार, निद्रा, भय, मैथुन के ज्वर से पीड़ित, इस प्रकार श्रावक के भेद निम्नप्रकार से किये जा सकते हैंसदा आत्म ज्ञान से विमुख तथा विषयों में उन्मुख होता है। | 1. गुणस्थानों के आधार पर दो भेदअनादि अविद्या के साथ बीज और अंकुर की तरह 1. अविरत सम्यग्दृष्टि अर्थात् चतुर्थ गुणस्थानवर्ती। परम्परा से चली आयी ग्रन्थसंज्ञा को छोड़ने में असमर्थ प्रायः 2. देशविरत अर्थात् पंचम गुणस्थानवर्ती । विषयों में मूर्छित होता है। | 2. व्रतों के आधार पर तीन भेदश्रावक के लिए सम्यक्त्व की अनिवार्यता 1. व्रत रहित या अव्रती श्रावक। आचार्यों ने श्रावक के लिए सम्यक्त्व के लिए अनिवार्य 2. अणुव्रती श्रावक। बताते हुए कहा है कि इस अविद्या या मिथ्यात्व का पर्दा हटा तो 3. व्रती अर्थात् बारह व्रतों का पालन करने वाला श्रावक। आत्मज्ञान का उज्ज्वल प्रकाश होने लगता है। पर यह इतना |3. प्रतिमाओं के आधार पर ग्यारह भेदआसान नहीं है। इसके लिए आसन्न भव्यता, कर्महानि, संज्ञित्व, 1. दार्शनिक या प्रथम प्रतिमाधारी श्रावक । विशुद्धि तथा देशना आवश्यक है। 2. व्रतिक या दूसरी प्रतिमा को धारण करने वाला श्रावक । श्रावक की पूर्ण आचार संहिता इस प्रकार शेष नव प्रतिमाओं के आधार पर आगे के नव आशाधर ने एक सूत्र में पूरे श्रावकाचार को इस प्रकार | भेद किये जा सकते हैं। कहा है | 4. आशाधर के आधार पर तीन भेद"सम्यक्तवममलममलान्यणुगुणशिक्षाब्रतानिमरणान्ते। 1. पाक्षिक श्रावक। सल्लेखना च विधिना पूर्ण सागारधर्मोऽयम्॥' 2. नैष्ठिक श्रावक। अर्थात निर्मल सम्यग्दर्शन, निरतिचार अणुव्रत, गुणव्रत, 3. साधक श्रावक। शिक्षाव्रत और मरण समय विधिपूर्वक सल्लेखना, यह सम्पूर्ण प्राचीन ग्रंथों का विवेचन गुणस्थानों, व्रतों और ग्यारह सागारधर्म है। प्रतिमाओं के आधार पर ही मिलता है। आशाधर ने इस विवेचन आगे लिखा है कि पंच परमेष्ठी का भक्त प्रधानता से दान को अधिक व्यापक और व्यवस्थित करने की दृष्टि से श्रावक के और पूजन करने वाला भेद ज्ञान रुपी अमृत को पीने का इच्छुक | उपर्युक्त पाक्षिक आदि तीन भेद किये। तथा मूलगण और उत्तरगुणों को पालन करने वाला व्यक्ति श्रावक । पाक्षिक श्रावक संयम के लिये उद्यमी होता है, करता -अगस्त 2003 जिनभाषित 7 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524276
Book TitleJinabhashita 2003 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2003
Total Pages40
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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