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________________ सामायिक की प्रासंगिकता श्रावक और श्रमण दोनों की आध्यात्मोन्नति का प्रथम सोपान सामायिक का जैनधर्म-दर्शन में महत्वपूर्ण स्थान है। आध्यात्मिकता के क्षेत्र में यह प्रवेश द्वार रूप होता है। यह आत्मकल्याण के साथ पर कल्याण में सहायक है। इससे मानव सावद्य योगों से विरति को प्राप्त होता है। पापकारी प्रवृत्तियों को दूर कर सद्गुणों के आचरण में सहकारी होता है, इसीलिए आचार्यों ने श्रावकों के लिए सुखी जीवन जीने की शिक्षा प्रदान करते हुए प्रथम शिक्षाव्रत के रूप में सामायिक का प्रतिपादन किया है। श्रावक जीवन में आत्मोन्नति करने में सहायक सामायिक को तृतीय प्रतिमा स्वीकार किया गया है। श्रमण के षडावश्यकों में सामायिक का प्रथम स्थान है। चारित्र के भेदों में भी सामायिक चारित्र है। सामायिक को विविध रूप में वर्णित करने का आशय यही है कि इसके बिना मोक्षमार्ग ही नहीं है। यह गृहस्थ और मुनि दोनों के लिए परोपकारी है। सामायिक के माध्यम से मानसिक अशान्ति और सामुदायिक अशांति के कारण कलह, दोषारोपण, चुगली, निंदा, मिथ्यात्व आदि से बचकर लाभ-अलाभ, सुख-दुःख, जीवन-मरण, निंदाप्रशंसा में समभाव हो जाता है, क्योंकि सामायिक में साधक के चित्तवृत्ति क्षीरसमुद्र की भांति पूर्णरूप से शांत रहती है। नवीन कर्मों का अनुबंधन न कर साधक आत्मस्वरूप में अवस्थित हो जाता है। इसलिए पूर्वसंचित कर्मों की निर्जरा भी करता है। सामायिक के माध्यम से युवक बृद्ध जैसी परिपक्वता की अनुभूति कर सकता है और बृद्ध युवक जैसी स्फूर्ति प्राप्त कर सकता है। अभिशापों को दूर कर जीवन को वरदान बनाया जा सकता है, सामायिक साधना के द्वारा । मानव अनेक कामनाओं के भंवरजाल में उलझा रहता है, जिससे उसका जीवन द्वंद्व व तनाव से ग्रस्त रहता है। बर्बरता, पशुता, संकीर्णता व रागद्वेष के विकार प्रति समय उसे प्रकृति से च्युत कर विकृति में फँसाए रखते हैं। जीवन की सभी विषमताओं से बचने के लिए और संतुलन बनाए रखने के लिए सामायिक की आवश्यकता है। सामायिक में साधक बाह्यदृष्टि का परित्याग कर अन्तर्दृष्टि को अपनाता है, विषमभाव का परित्याग कर समभाव में अवस्थित होता है, पर पदार्थों से ममत्त्व हटाकर निजभाव में स्थित होता है। जैन अनन्त आकाश विश्व के चराचर प्राणियों के लिए आधारभूत है, वैसे ही सामायिकसाधना आध्यात्मिक साधना के लिए आधारभूत है। सामायिक की साधना को केवल क्रिया तक सीमित नहीं समझना चाहिए वह एक विशेष साधना एवं उपासना है। 20 जुलाई 2003 जिनभाषित Jain Education International डॉ. श्रेयांसकुमार जैन, बड़ौत सामायिक का अर्थ और उद्देश्य प्राणीमात्र को आत्मवत्, अर्थ इस प्रकार है- समस्त जीवों पर मैत्रीभाव रखना साम है। सावद्ययोग अर्थात् पापमय प्रवृत्तियों का परित्याग और निरवद्ययोग अर्थात् अहिंसा, सत्य, समत्व आदि प्रवृत्तियों आचरण रूप जीव का शुद्ध स्वभाव सम कहलाता है। रागद्वेष के प्रसंगों में मध्यस्थ रहना विषम न होना। सम अर्थात् समता है यही सामायिक है। सामायिक में समय शब्द का अर्थ है सम्यक्त्व, ज्ञान, संयम और तप के साथ ऐक्य स्थापित करना। इस प्रकार अन्य परिणामों की वृत्ति बनाए रखना ही सामायिक है। अर्थात् राग और द्वेष का विरोध करके समस्त आवश्यक कर्त्तव्यों में समताभाव बनाए रखना ही सामायिक है। आचार्य अमृतचन्द्रसूरि ने समभाव की मुख्यता पूर्वक ही सामायिक का लक्षण बताकर उसके करने की प्रशस्त प्रेरणा प्रदान की है। " समस्त सजीव, निर्जीव मूर्त-अमूर्त पदार्थों पर रागद्वेष का परित्याग करके समभाव का अवलम्बन लेकर तत्त्वोपलब्धि (समत्व प्राप्ति) मूलक सामायिक अनेक बार करनी चाहिए। कारण यह है कि सामायिक से आत्मा की सावद्य योग (मन, वचन, काय की पापयुक्त प्रवृत्ति) से विरति रूप महाफल की प्राप्ति होती है। सांसारिक समस्त उपाधियों से हटाना सामायिक का सबसे बड़ा लाभ है जैसा कि कहा है: सामाइये नाम सार्वजजोग परिवजणं । निखजजोग पडिसेवणं च॥ अर्थात् सावद्ययोग का परित्याग और निरवद्ययोग का सेवन करना ही सामायिक है। आचार्य पूज्यपाद ने व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ बतलाते हुए कहा है कि सम उपसर्ग पूर्वक गत्यर्थक इण् धातु से समय शब्द निर्मित हुआ है। सम= एकीभाव, अय-गमन अर्थात् एकभाव के द्वारा बाह्य परिणति से पुनः मुड़कर आत्मा की ओर गमन करना "समय" है। समय का भाव ही सामायिक है। पंडित आशाधर जी ने सामायिक शब्द की व्याख्या इस प्रकार की है कि "समाये भवः सामायिकम् " अर्थात् सम राग द्वेष जनित इष्ट अनिष्ट की कल्पना से रहित जो अय-ज्ञान है, वह समाय कहलाता है और उस समय में जो होता है, उसे सामायिक कहते हैं । यह सामायिक शब्द का निरुक्तार्थ है और समता परिणति का होना वाच्यार्थ है । मूलाधार में सामायिक शब्द की निरुक्ति 'समय' शब्द से ही है। अनगार धर्मामृत में भी यही उल्लेख है। दर्शन, ज्ञान, तप, यम तथा नियम आदि में जो सम प्रशस्त अय-गमन है उसे समय कहते हैं और समय का नाम ही सामायिक है क्योंकि समय शब्द से स्वार्थ में ठण् (ठञ्) प्रत्यय होने से सामायिक शब्द की सिद्धि होती है। सम शब्द का श्रेष्ठ अर्थ है । अयन का अर्थ आचरण है। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524275
Book TitleJinabhashita 2003 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2003
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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