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________________ लौकिकी होती है, जबकि जैन मुनियों की प्रवृत्ति लौकिकी न | भवाभिनन्दी हैं, संसारावर्तवर्ती हैं, फलतः असंयत हैं और इसलिए होकर अलौकिकी हुआ करती है, जैसा कि श्री अमृतचन्द्राचार्य के असली जैनमुनि न होकर नकली मुनि अथवा श्रमणाभास हैं। दोनों निम्र वाक्य से प्रकट है: की कुछ बाह्य क्रियाएं तथा वेष सामान्य होते हुए भी दोनों को एक अनुसरतां पदमेतत् करम्बिताचार-नित्य निरभिमुखा। नहीं कहा जा सकता, दोनों में वस्तुत: जमीन आसमान का सा एकान्त विरतिरूपा भवति मुनीनामलौकिकी वृत्तिः॥13॥ | अन्तर है। एक कुगुरु संसार-भ्रमण करने-करानेवाला है तो दूसरा पुरुषार्थसिद्धयुपाय सुगुरु संसार बन्धन से छूटने-छुड़ाने वाला है। इसी से आगम में इसमें अलौकिकी वृत्ति के दो विशेषण दिये गये हैं- एक एक को वन्दनीय और दूसरे को अवन्दनीय बतलाया है। संसार के तो करम्बित (मिलावटी-बनावटी-दूषित) आचार से सदा विमुख मोही प्राणी अपनी सांसारिक इच्छाओं की पूर्ति के लिए भले ही रहने वाली, दूसरे एकान्ततः (सर्वथा) विरतिरूपा-किसी भी पर किसी परमार्थतः अवन्दनीयकी वन्दना, विनयादि करें- कुगुरु को पदार्थ में आसक्ति न रहने वाली। यह अलौकिकी वृत्ति ही जैन सुगुरु मान लें- परन्तु एक शुद्ध सम्यग्दृष्टि ऐसा नहीं करेगा। भय, मुनियों की जान-प्राण और उनके मुनि जीवन की शान होती है। आशा, स्नेह और लोभ में से किसी के भी वश होकर उसके लिए बिना इसके सब कुछ फीका और नि:सार है। वैसा करने का निषेध है। इस सब कथन का सार यह निकला कि निर्ग्रन्थ रूप से प्रव्रजित-दीक्षित जिनमुद्रा के धारक दिगम्बर मुनि दो प्रकार के | संदर्भ हैं- एक वे जो निर्मोही - सम्यग्दृष्टि हैं, मुमुक्षु-मोक्षाभिलाषी हैं, १. सद्दष्टिज्ञानवृत्तानि धर्म धर्मेश्वरा विदुः। यदीयप्रत्यनीकानि भविन्त भवपद्धतिः॥ रत्नकरण्डक श्रावकाचार । सच्चे मोक्षमार्गी हैं, अलौकिकी वृत्ति के धारक संयत हैं और २. दंसणभट्टा भट्टादसणभट्टस्स णथि णिव्वाणं। दसणपाहुड। इसलिए असली जैन मुनि हैं। दूसरे वे, जो मोह के उदयवश दृष्टि- मोहा मिथ्यादर्शनमुच्यते - रामसेन, तत्त्वानुशासन। ४. मुक्ति यियासता धार्य जिनलिङ्ग पटीयसा। योगसार प्रा.८-१ विकार को लिये हुए मिथ्यादृष्टि हैं, अन्तरंग से मुक्तिद्वेषी हैं, बाहर ५. भयाशास्त्रेहलोभाच्च कुदेवागमलिङ्गिनाम्। से दम्भी मोक्षमार्गी हैं, लोकाराधन के लिए धर्मक्रिया करने वाले प्रणामं विनयं चैव न कुर्यः शुद्धदृष्टयः॥ रत्नकरण्डक श्रावकाचार । बोध कथा कर सक) दयालु न्यायाधीश . बकरा एक जज साहब-कचहरी खुलने का समय हो जाने से | के हिलने से शरीर में लगा नाली का कीचड़ उचटकर पास में कार में तेजी से भागे जा रहे थे। बार-बार अपनी घड़ी देख रहे | खड़े जज साहब के कपड़ों पर जा गिरा। सारे कपड़ों पर कीचड़ थे। वे समय पर पहुँचने के लिए आतुर थे। जाते हुए मार्ग में | के धब्बे लग गये। वस्त्र मलिन हुए परन्तु जज साहब का मन उन्होंने देखा कि एक कुत्ता नाली में फँसा हुआ है। जीवेषणा | जरा भी मलिन नहीं हुआ। वे वस्त्र बदलने घर नहीं लौटे। उन्हीं (जीने की इच्छा) है उसमें किन्तु प्रतीक्षा है कि कोई आ जाये वस्त्रों में पहुँच गये अदालत में। और उसे कीचड़ से बाहर निकाल दे। अदालत में जिन्होंने जज साहब को मलिन वस्त्रों में जज साहब कार रुकवाते हैं और पहुँच जाते हैं उस कुत्ते | देखा वे सभी चकित हुए किन्तु जज साहब के चेहरे पर अलौकिक के पास। कुत्ते की वेदना देखकर जज साहब का हृदय दया से | आनन्द की आभा खेल रही थी। वे शांत थे। लोगों के बार-बार भर गया। उनके दोनों हाथ कुत्ते को बचाने के लिए नीचे झुक | पूछने पर वे बोले - 'मैंने अपने हृदय की तड़पन मिटाई है, मुझे गये। उन्होंने कुत्ते को नाली से बाहर निकाल कर सड़क पर | बहुत शांति मिली है।' खड़ा कर दिया। सच है सेवा वही कर सकता है, जो झुकना वास्तव में दूसरे की सेवा करने में हम अपनी ही वेदना जानता है। मिटाते हैं। दूसरे की सेवा हम कर ही नहीं सकते, दूसरे तो मात्र कुत्ते की स्थिति देखने के लिए सहज भाव से जज साहब | निमित्त बन सकते हैं। उन निमित्तों के सहारे अपने अंतरंग में कुत्ते के पास ही खड़े हो गये। नाली से बाहर सड़क पर आते ही | उतरना, यही सबसे बड़ी सेवा है। अपनी सेवा में जुट जाओ उस कुत्ते ने एक बार जोर से सारा शरीर हिलाया। उसके शरीर | अपने आपको कीचड़ से बचाने का प्रयास करो। 'विद्या-कथाकुञ्ज'] -जुलाई 2003 जिनभाषित 19 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524275
Book TitleJinabhashita 2003 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2003
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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