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________________ निश्चयनय का हेतु द्रव्यार्थिकनय है, और साधन अर्थात् व्यवहार का हेतु पर्यायार्थिकनय है। (आ.पा. 10) ये दोनों ही नय सर्वज्ञ द्वारा प्रणीत हैं। जैसा कि पंचास्तिकाय गाथा-4 की टीका में कहा गया है। दौ हि नयी भगवता प्रणीतौ व्यार्थिकः पर्यायार्थिकश्च तत्र न खलु एक नयायताः देशना, किन्तु उभयनयायत्ता ॥ अर्थ- दोनों ही नय भगवान् के द्वारा कहे गये हैं । द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक। इनमें से भगवान् का उपदेश एक के आश्रित नहीं। किन्तु उभयनयों के आश्रित हैं। श्री धवला जी में इस प्रकार कहा गया है कि तीर्थंकर के वचनों के सामान्य प्रस्तार का मूल व्याख्यान करने वाला द्रव्यार्थिकनय है और उन्हीं वचनों के विशेष प्रस्तार का मूल व्याख्याता पर्यायार्थिकनय है। शेष सभी नय इन दोनों नयों के विकल्प है। ये दोनों नय अपने-अपने विषय के कथन में समीचीन है । इस बात को बताने के लिए श्री जयधवला (पु. 1 / 351 ) में आचार्य वीरसेन स्वामी कहते है कि णिययणय णिज्जसच्चा सव्वणया पर वियालणे मोहा। ते उणेण दिन समओ, विभयई सच्चे व अलिएवा ॥, अर्थ- ये सभी नय अपने-अपने विषय के कथन करने में समीचीन है और दूसरे नयों के निराकरण में मूढ़ हैं। अनेकांत रूप समय के ज्ञाता पुरुष " यह नय सच्चा है और यह नय झूठा है" इस प्रकार का विभाग नहीं करते हैं । श्री जयधवला में (पु. 1/8 ) पर इस प्रकार कहा है । ववहारणयं पउच्च पुण गोदमसमिणा चुदवीसण्हमणियोद्दाराणमादीए मंगलं कदं ण ववहारणणओ चप्पलओ, तत्तो सिस्साणं उचित्तदंसणादो । जो बहुजीववाणुग्गहकारी ववहारणओ सो चेव समस्सिदब्बो त्ति मणेणावहारिय गोदमधेरेण मंगलं तत्थ कयं । "" अर्थ- गौतम गणधर ने व्यवहारनय का आश्रय लेकर कृति आदि चौबीस अनुयोगों द्वारों के आदि णमो जिणाणं" इत्यादि रूप से मंगल किया है यदि कहा जाय व्यवहारनय असतय है, सो भी ठीक नहीं है, क्योंकि उसमें शिष्यों की प्रवृत्ति देखी जाती है। अतः जो व्यवहारनय बहुत जीवों का अनुग्रह करने वाला है उसी का आश्रय करना चाहिये, ऐसा मन में निश्चय करके गौतम स्थविर (गणधर ) ने चौबीस अनुयोगद्वारों के आदि में मंगल किया है। श्री पद्मनंदि आचार्य ने पद्मनंदिपंचविंशतिका में तो व्यवहारनय को पूज्य कहा हैं । मुख्योपचार विवृतिं ववहारोपायतो यतः सन्तः । ज्ञात्वाश्रयन्ति शुद्धतत्त्वमिति व्यवहतिः पूज्या ॥ 608 ॥ अर्थ- क्योंकि सज्जन मनुष्य व्यवहारनय के आश्रय से मुख्य और उपचार कथन को जानकर शुद्धतत्त्व का आश्रय लेते हैं अतएव व्यवहारनय पूज्य है । उपरोक्त प्रमाणों से यह बिल्कुल स्पष्ट होता है कि व्यवहारनय असत्य नहीं है। और श्री, यदि व्यवहारनय को असत्य माना जायेगा तो अरहंत परमेष्ठी का सर्वज्ञ पना भी असत्य सिद्ध हो जायेगा । मार्च 2003 जिनभाषित 30 Jain Education International जैसा कि आचार्य कुन्दकुन्द महाराज नियमसार में लिखते हैं जाणदि पस्सदि सव्वं, ववहारणयेण केवली भगवन् । केवलणाणी जाणदि, पस्सदि नियमेण अप्पाणम् ॥ अर्थ- केवली भगवान् व्यवहारनय से सर्व लोकालोक को जानते है और देखते है। तथा निश्चयनय से अपनी आत्मा को ही जानते और देखते है । यहाँ यह बताना भी उचित होगा कि आगम में नयों का वर्णन किसलिये किया जाता है। इसका वर्णन श्री वीरसेन स्वामी ने जयधवला 1 / 225 में इस प्रकार किया है यह नय पदार्थों का जैसा स्वरूप हैं उस रूप से उनके ग्रहण करने में निमित्त होने से मोक्ष के कारण है इसलिए नय का अध्ययन किया जाता है। जो लोग व्यवहार को झूठा या हेय बताते हैं । उनको समझाने के लिये आचार्य अमृतचन्द्र स्वामी ने समयसार की टीका में निम्नगाथा कहीं है। जइजिणमयं पवज्जहतामा ववहारणिच्छये मुणह । एक्केण विणा छिज्जई, तित्वं अण्णेण उण तच्छं ॥ अर्थ- यदि तुम जैनधर्म का प्रवर्तन चाहते हो तो व्यवहार और निश्चय इन दोनों को मत छोड़ों क्योंकि एक नय (व्यवहारनय ) के बिना तीर्थ अर्थात् व्यवहार मार्ग का नाश हो जायेगा। और दूसरे (निश्चयनय) के बिना तत्त्व (वस्तु) का नाश हो जायेगा। अतः व्यवहारनय को असत्य नहीं कहा जा सकता। जहाँ तक व्यवहारनय का हमारे लिये प्रयोजनीय अथवा अप्रयोजनीय होने का प्रश्न है, इसके संबंध में समयसार गाथा 12 के भावार्थ में पंडित जयचन्द्र जी का मन्तव्य इस प्रकार है-' जब तक शुद्धभावों की प्राप्ति नहीं होती तब तक जितना अशुद्धनय का कथन है, उतना यथा पदवीं प्रयोजनीय है। तब तक यथार्थ ज्ञान श्रद्धान रूप सम्यक्तव की प्राप्ति ना हुई हो तब तक तो जिनसे यथार्थ उपदेश मिलता है। ऐसे जिनवचनों को सुनना, धारण करना, जिनवचन के कहने वाले श्री गुरु की भक्ति, जिनबिम्ब के दर्शन इत्यादि व्यवहार मार्ग में प्रवृत्त होना प्रयोजनीय है । और जिसके श्रद्धान ज्ञान हुआ हो, पर साक्षात् प्राप्ति ना हुई तब तक पूर्व कथित कार्य, पर द्रव्यों का आलम्बन छोड़न रूप अणुव्रत और महाव्रत का ग्रहण समिति, गुप्ति पंचपरमेष्ठी का ध्यान रूप प्रवर्तन तथा उसी प्रकार प्रवर्तन करने वालों की संगति करना और विशेष जानने के शास्त्रों का अभ्यास करना इत्यादि व्यवहार मार्ग में आप प्रवलन करना, तथा अन्य को प्रवृत्त कराना इत्यादि व्यवहारनय का उपदेश अंगीकार करना प्रयोजनीय है । व्यवहारनय को कथंचित असत्यार्थ कहा गया है। यदि कोई उसे सर्वथा असत्यार्थ जानकर छोड दे तो शुभापयोग रूप व्यवहार को छोड़ना है। और चूँकि शुद्धोपयोग की साक्षात् प्राप्ति नहीं हुई इसलिये उल्टा शुभोपयोग में ही आकर भ्रष्ट होगा। और यदि स्वेच्छा रूप प्रवृत्ति करेगा तो नरकादि गति को प्राप्त कर संसार में ही भ्रमण करेगा। इसलिये जो शुद्धनय का विषय शुद्धात्मा है। जब तक उसकी प्राप्ति ना हो, तत्र तक व्यवहारनय प्रयोजनीय है। ऐसा स्याद्वाद मत में श्री गुरुओं ने उपदेश दिया है। For Private & Personal Use Only 1/205, प्रोफेसर्स कॉलोनी आगरा- 282002 (उ.प्र.) www.jainelibrary.org
SR No.524271
Book TitleJinabhashita 2003 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2003
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size6 MB
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