SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 28
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सदाचार पूर्वक रहो तब विवाह प्रारंभ होते हैं, तभी से विवाह एवं । कारण होता है इसलिए इस लोक और परलोक में सुख को चाहने धर्म के संस्कार प्रारंभ होते हैं, अत: यह निश्चित है कि विवाह से | वाला पुरुष कभी भी स्त्री को उपेक्षा की दृष्टि से नहीं देखें। ही धर्म का निर्दोष पालन हो सकता है। पतिव्रता स्त्रियाँ धर्म, विभूति, सुख व कीर्ति का एक घर या ध्वजा पुत्र और कन्या के जन्म समय हर्ष, विषाद और शिक्षा देने | होती हैं - के समय भेद करते हैं जबकि दोनों ही शिक्षा प्राप्त कर प्रतिभावान शीलवती एवं कर्तव्यपरायण गृहणी सन्तानप्राप्ति करते ही बनते हैं। प्रथमानुयोग के ग्रंथों में अनेक स्थानों पर कन्या को माता के प्रतिष्ठित पद को सुशोभित करती है। माता की प्रतिष्ठा शिक्षित करने के अनेक उदाहरण देखने को मिलते हैं। सर्वप्रथम और महत्व प्राय: हर युग में रहा है क्योंकि माता गृहस्थ जीवन आदि प्रभु ऋषभदेव ने अपनी दोनों कन्याओं को लिपिविद्या एवं की धुरी है। उसके द्वारा किये गये संस्कार व्यक्ति को महापुरुषों अंकविद्या की शिक्षा दी और भी अनेक प्रसंग देखने को मिलते हैं की कोटि में बैठा देते हैं। प्रतिभावाना नारी पुरूषों को ही प्रतिभावान कन्या का योग्य शिक्षा के लिये गुरु के पास भेजा जाता था। बनाने में सक्षम होती है। पुरुष और स्त्री का समान महत्व और जैनागम की यह स्वस्थ परम्परा आज बहुत ही प्रासंगिक है। कन्या गौरव समान होता है। अधिकार भी समान होता है। आदि पुराण जितनी सुशिक्षित होगी मानव जीवन उतना ही सुखी एवं समृद्ध में भी आचार्य जिनसेन स्वामी ने पिता की सम्पत्ति पर पुत्र के होगा। आज स्त्रियां प्रत्येक क्षेत्र में उन्नतिशील हैं। प्राचीनकाल से | समान पुत्री का भी समान अधिकार माना है। नारी का सम्मान रहा है। जिस समाज में नारी का सम्मान रहता है पुत्र्यश्च संविभागर्हाः समं पुत्रैः समांशकैः 138/154 वह समाज सुशील एवं संस्कारित समाज होता है। जिस प्रकार आदिपुराण शिक्षित पुरुष की गरिमा होती है उसी प्रकार कन्या भी यदि अर्थात् - पुत्रों के समान पुत्रियों को भी समान भाग देना सुशिक्षित हो तो गरिमा होती है। इस प्रकार का उल्लेख आदि पुराण | चाहिए। कन्या का पिता अपनी बेटी को कभी भी भेंट देने में कमी नहीं करता। पुत्र और पुत्रियां माता-पिता को समान होते हैं। विद्यावान पुरुषों लोके संमतिं याति कोविदैः। गृहस्थ जीवन में वर और कन्या का भी समानता का नारी च तद्वती धत्ते स्त्री सृष्टे रग्रिमं पदम् ।। 98।। | स्थान है। विवाह के समय कन्या देने वाले की कभी उपेक्षा नहीं अर्थात् - इस लोक में विद्यावान पुरुष पण्डितों के द्वारा भी करना चाहिए वह बड़ा उपकारी है। जो वर के गृहस्थ जीवन का सम्मान को प्राप्त होता है और विद्यावती स्त्री भी सर्व श्रेष्ठ पद को आधार स्वरूप कन्या प्रदान करता है। कन्या के साथ कन्या का प्राप्त होती है। सुशिक्षित, संस्कारयुक्त एवं साहसी कन्याएँ श्रेष्ठ अभिभावक अपनी शक्ति के अनुसार और भी अनेक भेंट देता है। वधू, भार्या, गृह लक्ष्मी आदि पदों को धारण करती हैं। जैन यह उस की मानता है। साहित्य में पत्नी की भूमिका गृहस्थ जीवन में सहचरी के रूप में जो व्यक्ति भेंट की वस्तु को ही सब कुछ मानकर वस्तु को रही है। वह अपने पति की मित्र, सलाहकार एवं संरक्षिका के रूप श्रेष्ठ और व्यक्ति को निम्न मानने लगते हैं, वे अपने साथ विश्वासघात में प्रतिष्ठित थी। पति के साथ मन, वचन काय से रहना नारियों का करते हैं। क्योंकि जो सहर्ष दिया जाय वह श्रेष्ठ होता है और जो परम कर्तव्य है। पत्नी के समान व्यक्ति का कोई बन्धु नहीं है, कोई जबरदस्ती खींचतान करके लिया जाय वह पाप है। दहेज की गति नहीं है और धर्म-आराधना में भार्या के समान कोई सहायक परिभाषा आज परिवर्तित होती जा रही है। धर्म, अर्थ और काम नहीं है । वैवाहिक जीवन को सार्थक और सुखमय बनाने के लिए पुरुषार्थ की सिद्धि में विवाह- जैसे गृहस्थ धर्म में भी हमें पुण्य पति-पत्नी में सामंजस्य और आपसी प्रेम व्यवहार होना आवश्यक पाप जैसे कार्य की विवेचना करना चाहिए। अपनी बेटी की तरह हैं । यदि पति-पत्नी में कोई कमी है, तो उसे स्नेहपूर्ण व्यवहार और दुसर की भी बेटी है, ऐसा चिन्तन पुण्य और कठोर हृदय से रुपये सत्प्रेरणा से दूर किया जा सकता है। पत्नी को धर्म संस्कारों में समेटना दयाभाव का अभाव होना पाप है। अग्रणी होना चाहिए। क्योंकि यदि पत्नी धार्मिक संस्कारों से सहित होगी तो पति सहित पूरे परिवार को धार्मिक कर देगी। जिस प्रकार पुराणों में कन्या की मांग करना पाया जाता है किन्तु कन्या चेलना रानी ने अपने बौद्ध धर्मावलम्बी पति को जैन बना लिया के साथ धन की याचना का कोई उल्लेख नहीं मिलता। दहेज के था। विषय वासना एवं पापों में आसक्त स्त्री पति सहित पूरे विकराल रूप ने समाज को पतन की राह दिखा दी है। प्रत्येक परिवार को ले डूबती है। पति को हमेशा पत्नी से प्रेम करते हुए व्यक्ति यदि विवाह की विशेषता को गम्भीरता से सोचे तो वह धर्म के क्षेत्र में उत्साहित करते रहना चाहिए। गृहस्थ सुख प्राप्त दहेज को महत्व नहीं देगा और हमारा समाज एक आदर्श समाज करने वाले को पत्नी का आदर करना चाहिए। बनेगा। स्त्रीणां पत्युरूपेक्षवं परं वैरस्य कारणम्, संस्कारित समाज ही प्राणियों का उपकार करने में समर्थ तन्नोपेक्षेत जातु स्त्री वाञ्छंल्लोक द्वयेहितम् ।27। सा.ध. | हाता है। समाज का आधार विवाह ह । विवाह प्रवृ होती है। समाज का आधार विवाह है। विवाह प्रवृत्ति रूप गृहस्थ अर्थात - स्त्रियों के पति का अनादर ही विशेष बैर का | धर्म का प्रारंभ है। यही प्रवृत्ति रूप धर्म, निवृत्ति रूप में परिवर्तित 26 मार्च 2003 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524271
Book TitleJinabhashita 2003 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2003
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy