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________________ पंच कल्याणक क्यों और कैसे! डॉ. (श्रीमती) ज्योति जैन यह जीव अनादि काल से संसार में भ्रमण करता | के अनुसार जो गृहस्थ वीतराग मुद्रा के दर्शन कर अपने वीतराग हुआ दु:ख उठा रहा है। वह सुख की कामना करता है और दुःखों स्वभाव की ओर दृष्टिपात करता है उसे सम्यग्दर्शन की प्राप्ति होती से भयभीत भी है। पं. दौलतराम जी ने लिखा है - है। आचार्य पूज्यपाद स्वामी ने जिनबिम्ब दर्शन को सम्यग्दर्शन की जे त्रिभुवन में जीव अनन्त, उत्पत्ति का बाह्य साधन बताया है। प्रतिमा तीर्थंकरों की बनाई सुख चाहें दुख तें भयवन्त। जाती है और चूंकि तीर्थंकर गर्भ, जन्म, तप, ज्ञान और निर्वाण इन तातें दुखहारी सुखकार, पाँच कल्याणकों से युक्त होते हैं। इसीलिए स्थापना निक्षेप से कहें सीख गुरु करुणाधार॥ प्रतिमा में भी पाँच कल्याणकों की स्थापना की जाती है। जगत में द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भाव रूप पाँच | विधिपूर्वक पंचकल्याणक से प्रतिष्ठित मृर्ति पृज्य होती है. अकल्याण हैं। पंचकल्याणकों द्वारा उनका नाश किया जाता है। | और उसमें अनेक अतिशय अवतीर्ण होते हैं। पंचकल्याणक पृजा तीर्थंकर भगवन्तों के पाँचों कल्याणक होते हैं किन्तु अन्य मोक्षगामी को इन्द्रध्वज पूजा भी कहा जाता है, इसमें पूजक अपने आप में जीवों के ज्ञान और निर्वाण ये दो ही कल्याणक होते हैं। इन्द्र की कल्पना करता हुआ भक्ति विभोर होकर पूजा करता है। पंचकल्याणक उसी महान् आत्मा के होते हैं जो दर्शन | विशुद्ध भावों से की गई यह पूजा सातिशय पुण्य बन्ध का कारण विशुद्धि आदि सोलह भावनाओं के द्वारा अपने आपको पवित्र बना | होती है। लेता है। दर्शन विशुद्धि के काल में अपाय विचय धर्म-ध्यान के । आजकल यह प्रश्न उठाया जाता है कि पंचकल्याणक द्वारा जब यह लोक कल्याण की शुभ भावना से युक्त होता है तब | प्रतिष्ठा बहुत खर्चीली हो गई है और उसमें बहुत आडम्बर करना उस शुभराग के फलस्वरूप उसे तीर्थकर प्रकृति का बन्ध होता है। पड़ता है। हमारे आचार्यों ने कहा है कि "सावद्यलेशो बहुपुण्य तीर्थंकर तीर्थ अथात् धर्म के प्रवर्तक कहलाते हैं। तीर्थ राशि" जिसमें पाप बहुत थोड़ा हो और असीम पुण्य का बन्ध हो का अर्थ घाट भी होता है अत: जिसके द्वारा संसाररूपी सागर से वह कार्य अवश्य करना चाहिए। पार हुआ जाए वह तीर्थ है और उसका प्रवर्तन करने वाले तीर्थकर पंचकल्याणक को धूमधाम से करने का प्रयोजन यह भी भगवन्त हैं। तीर्थंकर भगवान् अपनी दिव्य ध्वनि द्वारा मोक्षमार्ग | है कि सभी लोग इसमें सम्मिलित हों और अपने भावों से पुण्य का उपदेश देकर संसार चक्र में फंसे प्राणियों के शाश्वत कल्याण अर्जन करें। हम राग-रंग के कार्यों में तो लाखों-करोड़ों खर्च का मार्ग प्रशस्त करते हैं। तीर्थंकर अपने समय में संसार के समस्त करते हैं फिर ये तो धर्मिक आयोजन है। इतना अवश्य है कि पूजा प्राणियों द्वारा पृज्य होते हैं और निर्वाण के पश्चात् प्रतिमा, जिनबिम्ब ख्याति लाभ की दृष्टि से नहीं करनी चाहिए। आज शहरों में नई या मूर्ति के माध्यम से सदैव पूजित रहते हैं। नई कालोनियाँ बन रही हैं, मन्दिर बन रहे हैं, अत: पंचकल्याणक अरिहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, साधु, जिनधर्म, भी आवश्यक हैं। एक बात और कहना चाहूंगी कि जहाँ पहिले से जिनागम, जिनप्रतिमा और जिनमन्दिर ये नवदेवता हैं जिनमें | ही मन्दिर जीर्ण-शीर्ण अवस्था में हैं, सैकड़ों मूर्तियाँ हैं और पूजाजिनप्रतिमा परिगणित है। प्रतिमायें तदाकार और अतदाकार कैसी व्यवस्था नहीं है वहाँ पंचकल्याणक की जगह जीर्णोद्धार कल्याणक भी हों वे तभी पृज्य होती हैं जब उसका निर्माण प्रतिष्ठा शास्त्र के अवश्य होना चाहिए। आज भगवान् के साथ भक्तों और प्रतिमा के अनुसार हुआ हो तथा उनकी मन्त्रों द्वारा विशेषत: दिगम्बर मुनि | साथ पूजा करने वालों की संख्या बढ़ाने की परम आवश्यकता है। द्वारा प्रदत्त सृरिमन्त्र से प्रतिष्ठा कर दी गयी हो। प्रतिष्ठा की परिभाषा करते हुए आचार्य नेमिचन्द्र जिनप्रतिमा की यह प्रतिष्ठा पंचकल्याणक प्रतिष्ठा के बिना | सिद्धान्तचक्रवर्ती ने लिखा है "प्रतिष्ठा स्थापना न्यासी जिनादे: नहीं हो सकती अत: मूर्ति को प्रतिष्ठित करने के लिए दूसरे शब्दों प्रतिमादिपु" अर्थात् प्रतिमादिक में जिनेन्द्र भगवान के न्यास अथवा में उसकी प्राण प्रतिष्ठा के लिए पंचकल्याणक महोत्सव आवश्यक | स्थापना को प्रतिष्ठा कहते हैं। मूर्ति में जब जिनेन्द्र भगवान् की ही नहीं अपरिहार्य है। जिनप्रतिमा के बिना गृहस्थ की क्रियायें । स्थापना हो जाती है तब साधक की दृष्टि में वह धात. पाषाण आन्ति पूरी नहीं हो सकतीं। भावशुद्धि के लिए गृहस्थ को देवदर्शन और की मूर्ति न रहकर साक्षात् जिनेन्द्र भगवान की प्रतिकृति बन जाती जिनपृजन आवश्यक है जो प्रतिमा के बिना सम्भव नहीं। आगम | है। उस प्रतिष्ठित मूर्ति के पास पहुँचकर साधक यह सोचता है कि -मार्च 2003 जिनभापित 23 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524271
Book TitleJinabhashita 2003 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2003
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size6 MB
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