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________________ दिगम्बर प्रतिमा की पहचान पं. मूलचन्द लुहाड़िया दिनांक 9 जनवरी के जैन गजट के अंक में भा.दि. । के अंकन के ही पाई जाती हैं। उनके दिगम्बर प्रतिमा होने के जैन (धर्म संरक्षणी) महासभा की प्रबंध कारिणी समिति की प्रमाण में हम कहां से किन देवी-देवताओं को उपस्थित करेंगे। लखनऊ में दि. 28 व 29 दिसम्बर को हई बैठक की कार्यवाही के उन सब प्रतिमाओं के दिगम्बर होने का सुस्पष्ट उद्घोष तो उनकी विवरण में महासभा के उपाध्यक्ष मूर्धन्य विद्वान श्री नीरज जैन का नग्रता और वीतरागता ही कर रही है। विशाल प्रकृति जगत की निम्न कथन पढ़ने को मिला : स्वाभाविक निपट नग्नता को जैनेन्द्र मुद्रा का रूप कहा गया हैश्री नीरज जैन ने कहा कि भगवान के गर्भ में आने | "नग्रं पश्यत वादिनो जगदिदं जैनेन्द्र मुद्रांकितम्"। से पहले दवी-देवताओं की भूमिका प्रारंभ हो जाती है- इसलिए सुयोग्य विद्वान ने अपनी पीड़ा भरी चिंता व्यक्त जैन धर्म में शासन देवी-देवताओं का बड़ा महत्व है। लेकिन आज करते हुए कहा है "लेकिन आज की स्थिति को देखकर लगता की स्थिति को देखकर लगता है कि एक दिन वह आयेगा जब है कि एक दिन वह आयेगा जब दिगम्बर, श्वेताम्बर की पहचान दिगम्बर श्वेताम्बर की पहचान को लेकर खड़े होंगे तो दिगम्बरत्व के लिए एक ही प्रमाण मिलेगा वह है जैन देवी-देवता" मान्य की पहचान के लिए एक ही प्रमाण मिलेगा वह है जैन देवी विद्वान का उक्त कथन दिगम्बर बंधुओं को आज की स्थिति में देवता क्योंकि दिगम्बर व श्वेताम्बरों के देवी-देवता अलग अलग अपनी आराध्य दिगम्बर प्रतिमाओं के दिगम्बरत्व की सुरक्षा के हैं। इसलिए देवी-देवताओं का अंकन ही स्वत्व का प्रमाण होगा। प्रति विशेष सावधान होने का संदेश देता है। संभवतः हमारे हमारे मनीषी विद्वान के उक्त कथन के संबंध में सम्माननीय विद्वान महोदय का आशय यह है कि आज की स्थिति नीचे विचार करते हैं : में दिगम्बर प्रतिमाओं को भी श्वेताम्बर प्रतिमाओं के समान पुष्पाम्बर, 1 तीर्थकर भगवान के गर्भ में आने के पूर्व से ही चंदनांबर बना देने में हम इतना आगे बढ़ गए हैं कि उसका विशुद्ध देवता नगर में रत्न वर्षा करते हैं और देवियाँ माता की सेवा करती दिगम्बर स्वरूप सुरक्षित नहीं रह गया है और ऐसी दशा में दिगम्बर हैं इसलिए उन देवी-देवताओं का इतना महत्व तो है कि वे देव प्रतिमा की पहचान के लिए बाहर से सहज दिखाई देने वाला रत्न वर्षा करते हैं और देवियाँ माता की सेवा करती हैं। भगवान देवी-देवता वाला एक ही प्रमाण मिलेगा। हमें दुःख है कि हम की सेवा भक्ति तो अनेक देवी-देवता करते हैं, कुछ श्रद्धापूर्वक अपने भगवान की प्रतिमा के स्वरूप को भगवान के स्वरूप के करते हैं और कुछ केवल नियोग से। इसी प्रकार मनुष्य भी अपनी समान नहीं रख पा रहे हैं। हम अपने आचार्यों का उद्घोष "तत्किं सामर्थ्य के अनुसार भक्ति करते हैं। किन्तु यह बात ठीक से समझ भूषां वसन कुसुमैः किंन्च शस्त्रैरूदस्त्रैः" को भूल रहे हैं। क्या में नहीं आती है कि जैन धर्म में उन देवी-देवताओं का बड़ा हमारे लिए यह लज्जा का विषय नहीं होगा कि हम अपने भगवान महत्व किस प्रकार है। मनुष्य की भक्ति तो जिन मुद्रा धारण कर की प्रतिमा की पहचान में नग्नत्व तथा वीतराग्ता के स्थान पर स्वयं भगवान बन जाने की ऊँचाई तक पहुंच जाती है। फिर ऐसी सेवक देवी देवताओं के अंकन को प्रस्तुत करें? जिनेन्द्र मुद्रा एवं संयम को धारण करने की योग्यता रखने वाले मैं आदरणीय विद्वान के कथन का सम्मान करता मनुष्यों के लिए उन असंयमी देवी-देवताओं को आत्मोन्नति के साधन रूप जैन धर्म में क्या महत्व हो सकता है? बल्कि चारित्र हूँ कि जैन सिद्धांत में शासन देवी-देवताओं का महत्व केवल प्रधान जैन धर्म की दृष्टि से तो उन देवी-देवताओं के लिए मनुष्यों इतना ही है कि वे भी जिनेन्द्र भक्त हैं। किंतु असंयमी होने के का बड़ा महत्व अवश्य हैं। कारण वे हम श्रावकों के आराध्य कभी नहीं हो सकते हैं। दुर्भाग्यवश 2 संभवत: हमारे आदरणीय विद्वान दिगम्बर, श्वेताम्बर देवी-देवताओं की आकृतियों का अंकन भगवान के सेवक के प्रतिमाओं की पहचान के लिए उनमें अंकित देवी-देवताओं को रूप में भगवान की प्रतिमा के आजू-बाजू होने के बजाय अब मुख्य प्रमाण बताना चाह रहे हैं और इसलिए प्रतिमाओं पर देवी उनकी स्वतंत्र प्रतिमाएं स्थापित होकर वे हमारी पूजा अराधना के देवताओं का अंकन आवश्यक घोषित कर रहे हैं। वस्तुत: दिगम्बर मुख्य पात्र होते जा रहे हैं। हम विचार करें कि कहीं शासन देवीप्रतिमा की मुख्य पहचान तो वीतरागता, नग्नत्व, नासाग्रदृष्टि, देवताओं को महत्व देने के अतिलोभ के कारण हमारे वीतराग अपरिग्रहत्व है। श्वेताम्बर प्रतिमाएं कंडोरा, कोपीन, आभूषण, भगवान की वीतरागता और दिगम्बरत्व का महत्व हमारी आस्था संचेलत्व, चक्षु, पुष्प, चंदन आदि से पहचानी जाती है । इस प्रकार से खिसक तो नहीं रहा है? दिगम्बर प्रतिमा का श्वेताम्बर प्रतिमा से अलग पहचान कराने हम दिगम्बर हैं, हमारे भगवान दिगंबर हैं और वाला मुख्य लक्षण वीतरागता व ननत्व है न कि देवी-देवताओं हमारे गुरु दिगम्बर हैं। हमको हमारे दिगम्बर जैन होने का गौरव का अंकन। है। हमारा कर्तव्य है कि हम हमारे भगवान की प्रतिमा की मुख्य वर्तमान में लगभग 68 प्रतिशत, यह प्रतिशत पहचान दिगम्बरत्व को किसी भी कीमत पर सुरक्षित बनाए रखें। अधिक भी हो सकता है, दिगम्बर प्रतिमाएं बिना देवी-देवताओं | मदनगंज, किशनगढ़ (राज.) 14 मार्च 2003 जिनभाषित - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524271
Book TitleJinabhashita 2003 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2003
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size6 MB
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