SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 6
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ क्षेत्र में अराजकता का उन्माद फैलाने का प्रयास किया, जिसका तीर्थक्षेत्र कमेटी ने करारा जवाब दिया था। हो सकता है इस प्रस्ताव के पीछे उनकी उस समय का बदला लेने की भावना रही हो । हमारे समाज ने धराशायी, उजड़े हुए तीर्थक्षेत्र को प्राणों की बाजी लगाकर तेरह वर्ष तक संघर्ष कर बचाया है तब हमारी सहायता करने कोई भी नहीं आया। आज जब इस क्षेत्र का विकास हो रहा है तो विकास में सहयोग करने के बजाय महासभा तीर्थक्षेत्र कमेटी को समाज में भ्रमित करने पर तुली हुई है। अंशांति फैलाने वाले उनके कथित नेता श्री बसंतीलाल चौधरी, भीलवाड़ा के भ्रामक प्रस्ताव पर विचार करने से पूर्व तीर्थं क्षेत्र कमेटी से सम्पर्क कर उसकी जानकारी प्राप्त करनी चाहिये थी। जानकारी प्राप्त करने के बजाय महासभा ने प्रस्ताव पारित कर अपने द्वेष एवं अहम् की मात्र तुष्टि करनी चाही है। महासभा समाज को भले ही भ्रमित करना चाहे पर इसमें सफल नहीं हो सकेगी, क्योंकि तीर्थक्षेत्र पर आने वाले हजारों बाल वार्ता S 4 " अति संग्रह पाप का कारण है इसमें एक ओर जहाँ तन मन उलझा रहता है वहीं संगृहीत पदार्थों के उपयोग से दूसरे प्राणी भी वंचित रह जाते हैं, " यह सोचकर नगर सेठ धनीराम ने अपनी संगृहीत वस्तुओं- धनादिक को गरीबों में बाँटना प्रारम्भ कर दिया। यह क्रम वर्षों तक चला। जरूरतमंद आते गये और धनीराम से प्राप्त धन लेकर अपने को उपकृत करते रहे। अन्त में जब सब कुछ समाप्त हो गया तो साथ में एक थाली, एक लोटा और एक लँगोटी धारण करके वे बनवासी हो गये। कहने को तो धनीराम के पास अत्यल्प परिग्रह था, किन्तु उन्हें लंगोटी धोने और बर्तन माँजने में टीस होती। वे सोचते"काश, इनका भी कोई विकल्प होता तो सुख से रहते ?" बहुत विकल्पों पर विचार किया, किन्तु किसी निर्णय पर नहीं चे । एक दिन जब धनीराम नदी पर स्नान कर रहे थे तो उन्होंने देखा कि एक ग्वाले का लड़का आया और नदी किनारे हाथ पर रोटियाँ रखकर खाने लगा। जब रोटियाँ खा चुका तो चुल्लू से नदी का जल पी लिया। ऐसा करते समय बालक के चेहरे पर बड़ा तृप्ति का भाव था, मानो संसार में ऐसी कोई निधि नहीं है जो इस समय उसके पास न हो । यह देखकर धनीराम ने विचार किया कि भोजन करने | मात्र के लिए यह लोटा, थाली का परिग्रह रखना उचित नहीं। भोजन तो हाथ में लेकर भी किया जा सकता है और पानी पीने के लिए हाथ की अँजुलि पर्याप्त है, उन्होंने तुरन्त निर्णय लिया और वह थाली लोटा उसी ग्वाले को दे दिया तथा स्वयं मात्र लँगोटी धारण किय घूमने लगे । अक्टूबर-नवम्बर 2002 जिनभाषित Jain Education International तीर्थ यात्री यहाँ के विकास कार्यों की सराहना कर रहे हैं एवं तनमन-धन से सम्पूर्ण सहयोग भी कर रहे हैं । महासभा के तथाकथित कर्णधार श्री निर्मलकुमार सेठी की अध्यक्षता में पारित दुर्भावनापूर्ण प्रस्ताव से हमारे क्षेत्र के सम्पूर्ण समाज में रोष व्याप्त है। हमारे क्षेत्र के पूरे समाज ने महासभा के इस दुष्कृत्य को तीर्थक्षेत्र की गरिमा को ठेस पहुंचाने वाला माना है। हमारे यहाँ सभी कार्य सर्व सम्मति से होते हैं, हम पूछना चाहते हैं कि महासभा ने बिजौलिया क्षेत्र के विकास के लिये क्या किया? यदि विकास में सहयोग नहीं कर सकते तो विकास कार्यों में बाधा उत्पन्न नहीं करें। आशा है सेठीजी एवं उनकी महासभा को सद्बुद्धि प्राप्त होगी। स्वावलम्बन मंत्री पार्श्वनाथ दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र कमेटी बिजौलिया जिला भीलवाड़ा (राज.) डॉ. सुरेन्द्र कुमार जैन 'भारती' एक दिन उसी वन में एक नग्न दिगम्बर मुनिराज पधारे। जिनके नग्न वेष, निराकुल मन और मुख पर व्याप्त अति तेज देखकर धनीराम उनके सामने आया और जिज्ञासा भाव से उनके समक्ष बैठ गया । उसे मन ही मन लग रहा था कि यह भी एक रूप है जो कपड़ों का मोहताज नहीं है। तृष्णा, विकार, वासना एवं दोषों को जीतने का आधार यही रूप हो सकता है। इसके बिना स्वावलम्बन कैसा? मुनिदर्शन से ही जिसके मन में सन्तोष का भाव जागृत हुआ है, ऐसा धनीराम मुनिराज के समक्ष नतमस्तक हो नग्नता का कारण पूछने लगा । प्रत्युत्तर में मुनिराज ने उसे बताया कि "जब व्यक्ति का मन भोगों से उदासीन हो जाता है, इन्द्रियाँ नियंत्रित हो जाती हैं तभी यह विकार रहित बालकवत् स्थिति प्राप्त होती है। मूलतः नग्नता स्वावलम्बन के लिए हैं। प्रत्येक देहधारी स्वावलम्बन के सहारे आत्मबली एवं आत्मजयी बन सकता है । वत्स ! तुम्हें भी यह लँगोटी छोड़कर स्वावलम्बी बनना चाहिए। स्वावलम्बन में ही जितेन्द्रियता है।" धनीराम के कानों में यह शब्द सुमधुर संगीत की तरह सुनाई दिये। वह तो मन ही मन निश्चय कर ही चुका था, अतः उसने तुरन्त लंगोटी छोड़ दी उसका लक्ष्य अब वीतरागता थी और उसे पाने के लिए वह उन्हीं मुनिराज के साथ चल पड़ा था आत्मजयी बनने के लिए। कदम-दर-कदम उसे अनुभव हो रहा था कि बाह्य वैभव में सुख नहीं, सुख तो अन्तर में हैं, नग्नता में है, स्वावलम्बन में है। For Private & Personal Use Only एल-65, न्यू इन्दिरा नगर, ए, बुरहानपुर (म. प्र. ) www.jainelibrary.org
SR No.524267
Book TitleJinabhashita 2002 10 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2002
Total Pages40
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy