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________________ समाचार एटा में आध्यात्मिक ज्ञान शिक्षण शिविर सम्पन्न । 3. दि. जैन समाज के किसी भी घटक को धर्मायतनों की परमपूज्य श्री 108 पुलक सागर जी महाराज के अशीर्वाद प्रभावना, सुरक्षा व उन्नति के उद्देश्य से कराये जाने वाले से बाल, किशोर, युवाओं, प्रौढ़ एवं महिलाओं में नैतिक सदाचार परिवर्तन/परिवर्धन में असहमति का कोई कारण बनता हो तो, ऐसे एवं जैनधर्म का बीजारोपण करने के लिए, जैनधर्म के प्रति आस्था मामलों में संबंधित पक्ष के साथ बैठकर सौहार्द्र पूर्ण चर्चा करके जाग्रत करने के लिए, जिनवाणी के तत्त्वों को समझने के लिए एटा समाधान लेना चाहिए। ऐसे प्रसंगों को सार्वजनिक व सामाजिक नगरी में अखिल भारतीय जैन महिला जागृति मंच के तत्त्वावधान पत्र-पत्रिकाओं द्वारा नहीं उछाला जाना चाहिए। क्योंकि इससे न में दिनांक 28/8/2002 से 3/9/2002 तक एक शिक्षण शिविर का केवल आपस में वैमनस्य बढ़ता है, वरन् अन्य समाजों के सामने आयोजन किया गया जिसमें करीब 250 शिविरार्थियों ने भाग भी हमारी व धर्म की अप्रभावना होती है। लिया। 4. दि. जैन समाज के धर्मायतनों की देख-रेख जिस समाज, ब्र. रीता जैन पंचायत व कमेटी के अधीन है, उसे उन धर्मायतनों की मरम्मत, सुरक्षा आवश्यकतानुसार परिवर्तन, परिवर्धन करने का अधिकार दि. जैन समाज अजमेर द्वारा पारित प्रस्ताव तो होता है। कमेटी द्वारा संपादित कार्यों में असहमति की दशा में धर्मायतनों में 'वास्तु' व पुरातत्त्व के प्रसंगों को लेकर उभय पक्ष अपने सुझाव देने तक सीमित रहें, यही न्याय संगत है। पिछले काफी समय से समाज में भ्रम-पूर्ण स्थिति के कारण जो प्रचार माध्यमों को ऐसे प्रसंग देकर, समाज का अहित नहीं किया मानसिक तनाव अनुभव किया गया है, इस पर सरल हृदय से जाना चाहिए। साथ ही इनमें धन का जो अपव्यय होता है, उसे निष्पक्ष चर्चा करने हेतु दिगम्बर जैन समाज, अजमेर के प्रबुद्ध व बचाकर उस धन को समाज की आवश्यकता व उन्नति में खर्च अनुभवी सदस्यों व पंचायतों के प्रमुख पदाधिकारियों की सभा का किया जावे, तो समाज एकजुट होकर आगे बढ़ सकता है। आयोजन दिनांक 17-9-02 को रात्रि में 8.00 बजे से अजमेर के 5. सांगानेर, चाँदखेड़ी, बैनाड़ा व रेवासा आदि क्षेत्रों में प्रतिष्ठित व वरिष्ठ वकील श्रीमान् माणकचन्द्र जी जैन (गदिया) | हुए विकास कार्य हम सभी को खुली आँखों से स्पष्ट नजर आते की अध्यक्षता में किया गया जिसमें खुली चर्चा के बाद निम्न हैं। इन सब के लिए हम इसके प्रेरणा स्रोत परम पूज्य मुनि 108 प्रस्ताव सर्वसम्मति से पारित किये गये। श्री सुधासागरजी साहब से प्राप्त आशीर्वाद के लिए सविनय उनके 1. दिगम्बर जैन समाज के जिनालयों व धर्मायतनों का चरणों में नमोस्तु करते हुए, अपनी कृतज्ञता ज्ञापित करते हैं, साथ निर्माण 'वास्तु-विधान' के अनुसार होना विधि सम्मत तो है ही | ही वहाँ की कमेटी व संबन्धित पक्षों को बधाई देते हुए मुक्त कंठ साथ ही धर्मप्रभावना, सामाजिक शान्ति व प्रगति हेतु भी आवश्यक से प्रशंसा करते हैं। है। यदि पूर्व निर्मित ऐसे स्थलों में, इस विषय के विशेषज्ञों द्वारा यह खेद की बात है कि ऐसे उत्कृष्ट कार्यों की व्यर्थ कहीं कोई दोष अनुभव किया जाता है तो उसके निराकरण का | आलोचना की जाती है जिससे धर्म क्षेत्रों में कार्य करने वाले संबंधित-पक्षों द्वारा अवश्य प्रयत्न होना ही चाहिए। सम्पूर्ण समाज | हतोत्साहित होते हैं। जिसकी क्षति अंततोगत्वा समाज को भुगतनी के सामूहिक हित व शान्ति के उद्देश्य से किये गये प्रयासों को | पड़ती है। आलोचना का विषय नहीं बनाया जाना चाहिए। हमारी पुरा संस्कृति के मन्दिर आदि आज भी सार-सम्हाल 2. प्राचीन धर्मायतनों को जो, जीण-शीर्ण अवस्था को | के अभाव में उत्तरी व दक्षिण भारत के जंगलों में बिखरे पड़े हैं। प्राप्त हो रहे हों, अथवा समाज की वर्तमान अपरिहार्य आवश्यकताओं हमारे धर्म, संस्कृति और इतिहास के विषय में स्कूली कक्षा के अनुरूप कोई परिवर्तन आवश्यक महसूस किया गया हो, अथवा पुस्तकों में गलत चित्रण किया हुआ है। उनमें किसी भी प्रकार की निर्माण संबंधी त्रुटी समझ में आ रही हमारे मन्दिर अन्य समाजों के कब्जे में हैं, कई जगह हो, तो ऐसे भवनों की सुरक्षा, समाज की आवश्यकता पूर्ति व त्रुटि | झगड़े चल रहे हैं। राजनैतिक सुविधाओं में भी हमारा समाज के निवारण के उद्देश्य से उसकी व्यवस्था कमेटी अथवा समाज, | पिछड़ा हुआ है। यह संस्कृति रक्षा मंच कुछ क्षेत्रों का विकास उसमें सुधार, परिवर्तन, परिवर्धन कराती हैं तो ऐसे प्रसंगों में, | अपने हाथ में ले और वहाँ अपनी शक्ति लगाये, तो यह समाज के उभय पक्षों द्वारा, पुरातत्त्व सुरक्षा के नाम पर, अनावश्यक आलोचना । लिए सकारात्मक उपलब्धि होगी और वे धन्यवाद के पात्र होंगे। व हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए। ऐसी आलोचनाओं से समाज में | इस मंच द्वारा "पुरातत्त्व के विध्वंस की कहानी" नामक पुस्तक अशान्ति का वातावरण बनता है। यह ध्यान रखा जाना चाहिए कि | के तथ्यों को असत्य व भ्रामक मानते हुए हम सर्व सम्मति से उसे 'पुरातत्त्व' कोई स्थाई या सर्वकालिक परिभाषा नहीं है, क्योंकि | नकारा करते हैं। जैन दर्शन प्रत्येक वस्तु' के स्वाभाविक परिवर्तन को स्वीकार प्रस्तावक करता है। भागचन्द्र गदिया, ज्ञानचन्द दनगसिया, माणकचन्द जैन एडवोकेट 36 अक्टूबर-नवम्बर 2002 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524267
Book TitleJinabhashita 2002 10 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2002
Total Pages40
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size6 MB
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