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________________ जन्म से लेकर समाधि तक वर्णी जी ब्र. त्रिलोक जैन जबलपुर के कमानिया गेट पर देश की आजादी के लिये आपने अपनी चादर दान दे दी थी जो देखते-ही-देखते आपके भक्तों ने हजारों रुपयों में खरीद ली थी, इस सभा में आपने कहा था मुझे विश्वास है, भारत माँ के वीर सूपत जेल से छूटेंगे और देश आजाद होगा और आगे चलकर वही हुआ। आपके जीवन में धर्म माता चिरोंजा बाई का ममतामयी आशीर्वाद सदा रहा, जिसकी छत्र छाया में आप प्रगति पथ पर चलते रहे। बुन्देली माटी के अनोखे लाल पूज्य श्री गणेशप्रसाद वर्णीजी .को गुजरे कई वर्ष हो गये पर उनकी मधुर स्मृतियाँ जन मानस के हृदय पटल पर आज भी सुरक्षित हैं। यद्यपि मैंने वर्णीजी को नहीं देखा पर उनके प्रिय शिष्य डॉ. पन्नालालजी साहित्याचार्य की छत्रछाया में रहने का गौरव मुझे प्राप्त है, जिस प्रकार आकाश को छूते वृक्ष की शाखाएँ पाताल को छूती जड़ों की सूचना देती हैं इसी प्रकार श्रद्धेय पंडितजी की शांत स्वभावी छवि वर्णी जी के मुस्कराते चेहरे की झलक दिखाती है। वर्णीजी का जन्म हसेरा गांव में एक असाटी परिवार में हुआ था पर प्रभु राम के सम्यक् चरित्र का वर्णन करने वाले जैन ग्रन्थ पद्मपुराण की कथा सुनकर आपकी रुचि जैनधर्म में जाग्रत हो गई, आपने रात्रि भोजन एवं अनछने जल का त्याग कर दिया और आपके कदम धर्म की सम्यक् खोज में आगे बढ़ने लगे । आपने अपनी ज्ञानपिपासा शांत करने जहाँ संपूर्ण बुन्देलखण्ड में भ्रमण किया तो जयपुर जाकर भी धर्मग्रन्थों का अवलोकनअध्ययन किया। आप बनारस में संस्कृत पढ़ने दर-दर भटके, अध्यापकों का तिरस्कार सहा पर आप अपने उद्देश्य के प्रति सदा सजग रहे, आपने ज्ञान प्राप्ति के क्षेत्र में आने वाली हर बाधा को राधा समझा और पारा बनकर बहते गए जिसका सुपरिणाम ये निकला कि आज बनारस सहित भारतवर्ष में वर्णीजी की प्रेरणा से स्थापित कई गुरुकुल समाज में धर्म का आलोक बिखेर रहे हैं । इसकी कहानी भी बड़ी रोचक है, वर्णीजी जब बनारस किसी संस्कृत अध्यापक से जैन साहित्य का कोई ग्रन्थ पढ़ने गये तो अध्यापक के ये व्यंग्यबाण कि तुम जैनियों का है ही कहाँ कोई संस्कृत साहित्य जो तुम्हें पढ़ाऊँ, वर्णी जी के अंदर चुभ गये और वर्णीजी ने संकल्प कर लिया कि इसी बनारस के अंदर संस्कृत विद्यालय की स्थापना करके ही चैन से बैठूंगा, इसी संकल्प के साथ वर्णीजी ने एक रुपये के चौंसठ पोस्टकार्ड चौंसठ महानुभावों को डाले और परिणामस्वरूप बनारस में स्याद्वाद विद्यालय की स्थापना हुई और इस विद्यालय के वर्णीजी ही प्रथम छात्र हुए। वर्णीजी ने विद्या अध्ययन के बाद जब समाज में भ्रमण किया तो कुरीतियों एवं अंधी मान्यताओं से ग्रसित मानवता की मुक्ति के लिए कमर कस ली और जन-जन में व्याप्त अंधकार को दूर भगाना ही आपका उद्देश्य बन गया, आपने गाँव-गाँव में धार्मिक पाठशाला एवं गुरुकुलों की स्थापना की एवं स्त्री-शिक्षा पर जोर दिया। इस विषय में आपके विचार थे कि मनुष्य की जन्मदात्री ही यदि अशिक्षित रहेगी तो मनुष्य का विकास तीन काल में संभव नहीं है। आप कोरे उपदेशक नहीं थे, आपका संपूर्ण जीवन त्यागमयी गौरवगाथा है। आप एक बार कड़ाके की ठंड में किसी दूसरे गाँव से अपने घर लौट रहे थे, रास्ते में ठंड से काँपती बुढ़िया को अपनी चादर देकर स्वयं नंगे बदन घर वापिस आ गये थे और 10 अक्टूबर-नवम्बर 2002 जिनभाषित Jain Education International एक बार की घटना है कि बस कंडक्टर ने आपको फ्रंट सीट से उठाकर पीछे की सीट पर बैठने को कहा जिसके परिणामस्वरूप आप बस से नीचे उतर पड़े और आजीवन काल बस का त्याग कर मोक्ष मार्ग के पथिक बन गये। मोक्ष मार्ग की इस कठिन यात्रा के दौरान आपको पन्नालालरूपी रत्न मिला जिसको तराशकर आपने इतना चमकीला बना दिया कि जिसकी चमक से सारा जैन समाज गौरवान्वित है। पंडितजी ने अनगिनत जैन ग्रंथों का हिन्दी अनुवाद कर जो महान कार्य किया है उसे देखकर वर्णीजी स्वर्ग में आज भी आनंद विभोर होते होंगे। वर्णीजी को कृपा से भारत को कई विद्वान मिले और आज भी मिल रहे हैं. क्योंकि वर्णीजी का जीवन अज्ञान अंधकार को नष्ट करने के लिए ज्ञान सूर्य के समान था, जिसका आलोक संस्कारधानी में वर्णों गुरुकुल आज भी बिखेर रहा है। इस प्रकार वर्णीजी का जीवन संघर्ष के साथ-साथ त्याग एवं वैराग्य की ऐसी अनोखी कहानी है जिसे पढ़कर हमारा जीवन भी प्रकाश से भर सकता है। आपका त्याग इतना महान था कि एक बार एक गाँव में समस्त ग्रामवासियों ने मांस-मछली का त्याग कर दिया था। यह कहानी इस प्रकार है: वर्णीजी किसी गाँव में अध्ययनरत थे, जिस समय आप भोजन करने बैठते उसी समय मछली का बघार होता जिसकी दुर्गंध से वर्णीजी का खाना हराम हो जाता, जिससे वर्णीजी दिनों दिन कमजोर होते गये। बात जब मुखिया को मालूम हुई तो मुखिया ने आदेश दिया कि जब तक यह बालक गाँव में रहेगा तब तक कोई मांस-मछली का सेवन नहीं करेगा। इस प्रकार से हसेरा गाँव से ही वही ज्ञान गंगा जन-जन की प्यास बुझाते हुए अनंतानंत सिद्धों की निर्वाण स्थली सम्मेद शिखर के ईसरी उदासीन आश्रम में आत्मसागर में लीन होकर समाधि को प्राप्त हुई। इस धरती के वीर सपूत जिसने अपने जन्म से 'आसोज कृष्णा ४ संवत् १९३१ विक्रमाब्द में हसेरा के अंक से निकलकर जन-जन को हर्षाने वाला सुख का निलय, मुक्ति का सोपान, ज्ञान का प्रकाश अपने आभा मंडल से बिखेरा, जिसे विनोबा जी ने सतयुगी संत कहा तो जन-जन ने वर्णीजी के नाम से जाना' ऐसे महान संत को कोटिकोटि प्रणाम करते हुए श्रद्धा के ये सुमन समर्पित हैं। For Private & Personal Use Only वर्णी दि.जैन गुरुकुल, पिसनहारी की मढ़िया, जबलपुर - 3 ( म.प्र.) www.jainelibrary.org
SR No.524267
Book TitleJinabhashita 2002 10 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2002
Total Pages40
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size6 MB
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