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उत्तम मार्दव
आचार्य श्री विद्यासागर जी
आज पर्व का दूसरा दिन है। कल उत्तम क्षमा के बारे में | पर कहा जाए कि आरोग्य लाओ, तो आरोग्य तो रोग के अभाव में आपने सुना, सोचा, समझा और क्षमा भाव धारण किया है। वैसे | ही आयेगा। रोग के अभाव का नाम ही आरोग्य है। इसी प्रकार देखा जाए तो ये सब दस-धर्म एक में ही गर्भित हो जाते हैं। एक | मुदुता को पाना हो तो यह जो कठोरता आकर छिपकर बैठी है के आने से सभी आ जाते हैं। आचार्यों ने सभी को अलग-अलग उसे हटाना होगा। जानना होगा कि इसके आने का मार्ग कौन सा व्याख्यायित करके हमें किसी न किसी रूप में धर्म धारण करने | है, उसे बुलाने वाला और इसकी व्यवस्था करने वाला कौन है? की प्रेरणा दी है। जैसे रोगी के रोग को दूर करने के लिये विभिन्न तो आचार्य कहते हैं कि हम ही सब कुछ कर रहे हैं। जैसे अग्नि प्रकार से चिकित्सा की जाती है। दवा अलग-अलग अनुपात के | राख से दबी हो तो अपना प्रभाव नहीं दिखा पाती, ऐसे ही मार्दव साथ सेवन करायी जाती है। कभी दवा पिलाते हैं, कभी खिलाते | धर्म की मालिक यह आत्मा कर्मों से दबी हुई है और अपने हैं और कभी इंजेक्शन के माध्यम से देते हैं। बाह्य उपचार भी | स्वभाव को भूलकर कठोरता को अपनाती जा रही है। करते हैं। वर्तमान में तो सुना है कि रंगों के माध्यम से भी चिकित्सा | | विचार करें, कि कठोरता को लाने वाला प्रमुख कौन है? पद्धति का विकास किया जा रहा है। कुछ दवाएं सुंघाकर भी अभी आप सबकी अपेक्षा ले लें। तो संज्ञी पञ्चेन्द्रिय के पाँचों इलाज करते हैं। इतना ही नहीं, जब लाभ होता नहीं दिखता तो | इन्द्रियों में से कौन सी इन्द्रिय कठोरता लाने का काम करती है? रोगी के मन को सान्त्वना देने के लिए समझाते हैं कि तुम जल्दी | क्या स्पर्शन इन्द्रिय से कठोरता आती है, या रसना इन्द्रिय से आती ठीक हो जाओगे। तुम रोगी नहीं हो। तुम तो हमेशा से स्वस्थ हो | है, या घ्राण या चक्षु या श्रोत, किस इन्द्रिय से कठोरता आती है? अजर-अमर हो। रोग आ ही गया है तो चला जायेगा, घबराने की | तो काई भी कह देगा कि इन्द्रियों से कठोरता नहीं आती। यह कोई बात नहीं है। ऐसे ही आचार्यों ने अनुग्रह करके विभिन्न धर्मों | कठोरता मन की उपज है। एक इन्द्रिय से लेकर असंज्ञी पंचेन्द्रिय के माध्यम से आत्म-कल्याण की बात समझायी है।
तक कोई भी जीव ऐसे अभिमानी नहीं मिलेंगे जैसे कि मन वाले प्रत्येक धर्म के साथ उत्तम विशेषण भी लगाया है। सामान्य | और विशेषकर मनुष्य होते हैं। थोड़ा सा भी वित्त-वैभव बढ़ जाए क्षमा या मार्दव धर्म की बात नहीं है, जो लौकिक रूप से सभी | तो चाल में अन्तर आने लगती है। मनमाना तो यह मन ही है। मन धारण कर सकते हैं। बल्कि विशिष्ट क्षमा भाव जो संवर और के भीतर से ही माँग पैदा होती है। वैसे मन बहुत कमजोर है, वह निर्जरा के लिए कारण है, उसकी बात कही गयी है। जिसमें | इस अपेक्षा से कि उसका कोई अङ्ग नहीं है लेकिन वह अङ्गदिखावा नहीं है, जिसमें किसी सांसारिक ख्याति, पूजा, लाभ की अङ्ग को हिला देता है। विचलित कर देता है। जीवन का ढाँचा आकांक्षा नहीं है। यही उत्तम विशेषण का महत्त्व है।
परिवर्तित कर देता है और सभी इन्द्रियाँ भी मन की पूर्ति में लगी दूसरी बात यह है कि क्षमा, मार्दव आदि तो हमारा निजी | रहती हैं। स्वभाव है, इसलिए भी उत्तम धर्म है। इसके प्रकट हुए बिना हमें मन सबका नियन्ता बनकर बैठ जाता है। आत्मा भी इसकी मुक्ति नहीं मिल सकती। आज विचार इस बात पर भी करना हे | चपेट में आ जाती है और अपने स्वभाव को भूल जाती है। तब कि जब मार्दव हमारा स्वभाव है तो वह हमारे जीवन में प्रकट मुदृता के स्थान पर मान और मद आ जाता है। इन्द्रियों को खुराक क्यों नहीं है? तो विचार करने पर ज्ञात होगा कि जब तक मार्दव | मिले या न मिले चल जाता है लेकिन मन को खुराक मिलनी धर्म का विपरीत मान विद्यमान है तब तक वह मार्दव धर्म को | चाहिये। ऐसा यह मन है। और इसे खुराक मिल जाये, इसके प्रकट नहीं होने देगा। केवल मृदुता लाओ, ऐसा कहने से काम | अनुकूल काम हो जाए तो यह फूला नहीं समाता और नित नयी नहीं चलेगा किन्तु इसके विपरीत जो मान कषाय है उसे भी हटाना | माँगें पूरी करवाने में चेतना को लगाये रखता है। जैसे आज कल पड़ेगा। जैसे हाथी के ऊपर बंदी का बैठना शोभा नहीं देता, ऐसे | कोई विद्यार्थी कॉलेज जाता है। प्रथम वर्ष का ही अभी विद्यार्थी है ही हमारी आत्मा पर मान का होना शोभा नहीं देता। यह मान कहाँ अभी-अभी कॉलेज का मुख देखा है। वह कहता है-पिताजी! से आया? यह भी जानना आवश्यक है। जब ऐसा विचार करेंगे तो हम कल से कॉलेज नहीं जायेंगे। तो पिताजी क्या कहें? सोचने मालूम पड़ेगा कि अनन्त काल यह जीव के साथ है और इस तरह | लगते हैं कि अभी एक दिन तो हुआ है और नहीं जाने की बात से जीव का धर्म जैसा बन बैठा है। इससे छुटकारा पाने के दो ही | कहाँ से आ गयी? क्या हो गया? तो विद्यार्थी कहता है कि पिताजी उपाय है या कहो अपने वास्तविक स्वरूप को पाने के दो ही | आप नहीं समझेंगे नयी पढ़ाई है। कॉलेज जाने के योग्य सब उपाय हैं। एक विधि रूप है तो दूसरा निषेध रूप है। जैसे रोग होने | सामग्री चाहिए। कपड़े अच्छे चाहिए। पॉकेट में पैसे भी चाहिए
-सितम्बर 2002 जिनभाषित 7
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