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और यूनिवर्सिटी बहुत दूर है, रास्ता बड़ा चढ़ाव वाला है इसलिए | हानि होना आवश्यक है। यदि मान की हानि हो जाती है तो मार्दव स्कूटर भी चाहिए। उस पर बैठकर जायेंगे इसके बिना पढ़ाई | धर्म प्रकट होने में देर नहीं लगती। सम्भव नहीं है।
आप शान्तिनाथ भगवान के चरणों में श्रीफल चढ़ाते हैं तो यह कौन करवा रहा है? यह सब मन की ही करामात है। भगवान श्रीफल के रूप में आपसे कोई सम्मान नहीं चाहते न ही यदि इसके अनुरूप मिल जाए तो ठीक अन्यथा गड़बड़ हो जायेगी। हर्षित होते हैं, बल्कि वे तो अपनी वीतराग मुद्रा से उपदेश देते हैं जैसे सारा जीवन ही व्यर्थ हो गया, ऐसा लगने लगता है। कपड़े | कि जो भी मान कषाय है वह सब यहाँ विसर्जित कर दो। यह जो चाहिए ऐसे कि बिल्कुल टिनोपाल में तले हुए हों हाँ जैसे पूरियाँ | मन, मान कषाय का स्टोर बना हुआ है, उसे खाली कर दो। तलती है। यह सब मन के भीतर से आया हुआ मान-कषाय का | जिसका मन, मान कषाय से खाली है वही वास्तविक ज्ञानी है। भाव है। सब लोग क्या कहेंगे कि कॉलेज का छात्र होकर ठीक | उसी के लिये केवलज्ञान रूप प्रमाण-ज्ञान की प्राप्ति हुआ करती कपड़े पहनकर नहीं आता। एक छात्र ने हमसे पूछा था कि सचमुच | है। वही तीनों लोकों में सम्मान पाता है। ऐसी स्थिति आ जाती है तब हमें क्या करना चाहिए? तो हमने हम पूछते हैं कि आपको केवलज्ञान चाहिये या मात्र मानकहा कि ऐसा करो टोपी पहन लेना और धोती पहनकर जाना, वह कषाय चाहिये? तो कोई भी कह देगा कि केवलज्ञान चाहिए। हँसने लगा। बोला यह तो बड़ा कठिन है। टोपी पहनना तो फिर लेकिन केवलज्ञान की प्राप्ति तो अपने स्वरूप की ओर, अपने भी सम्भव है लेकिन धोती वगैरह पहनूँगा तो सब गड़बड़ जो | मार्द्रव धर्म की ओर प्रयाण करने से होगी। अभी तो हम स्वरूप से जायेगी। सब से अलग हो जाऊँगा। लोग क्या कहेंगे? हमने कहा | विपरीत की प्राप्ति होने में ही अभिमान कर रहे हैं। वास्तव में देखा कि ऐसा मन में विचार ही क्यों लाते हो कि क्या कहेंगे? अपने को | जाए तो इन्द्रिय ज्ञान, ज्ञान नहीं है । इन्द्रिय ज्ञान तो पराश्रित ज्ञान है। प्रतिभा सम्पन्न होकर पढ़ना है। विद्यार्थी को तो विद्या से ही स्वाश्रित ज्ञान तो आत्म-ज्ञान या केवलज्ञान है। जो इन्द्रिय ज्ञान प्रयोजन होना चाहिये।
और इन्द्रिय के विषयों में आसक्त नहीं होता, वह नियम से अतीन्द्रिय आज यही हो रहा है कि व्यक्ति बाहरी चमक-दमक में | ज्ञान को प्राप्त कर लेता है; सर्वज्ञ दशा को प्राप्त कर लेता है। ऐसा झूम जाता है कि सारी की सारी शक्ति उसी में व्यर्थ ही व्यय 'मनोरपत्यं पुमान्निति मानवः' कहा गया है कि मनु की होती चली जाती है और वह लक्ष्य से चूक जाता है। यह सब मन संतान मानव है। मनु को अपने यहाँ कुलकर माना गया है। जो का खेल है। मान कषाय है। मान-सम्मान की आकांक्षा काठिन्य | मानवों को एक कुल की भाँति एक साथ इकट्ठे रहने का उपदेश लाती है और सबसे पहले मन में कठोरता आती है, फिर बाद में | देता है, वही कुलकर है। सभी समान भाव से रहें। छोटे-बड़े का वचनों में तदुपरान्त शरीर में भी कठोरता आने लगती है। इस भेदभाव न आवे तभी मानव होने की सार्थकता है। अपने मन को कठोरता का विस्तार अनादिकाल से इसी तरह हो रहा है और वश में करने वाले ही महात्मा माने गये हैं। मन को वश में करने आत्मा अपने मार्दव-धर्म को खोता जा रहा है। इस कठोरता का, | का अर्थ मन को दबाना नहीं है, बल्कि मन को समझाना है। मन मान कषाय का परित्याग करना ही मार्दव धर्म के प्रकटीकरण के | को दबाने और समझाने में बड़ा अन्तर है। दबाने से तो मन और लिए अनिवार्य है।
अधिक तनाव-ग्रस्त हो जाता है, विक्षिप्त हो जाता है। किन्तु मन आठ मदों में एक मद ज्ञान का भी है। आचार्यों ने इसी। को यदि समझाया जाये तो वह शान्त होने लगता है। मन को कारण लिख दिया है कि-ज्ञानस्य फलं किं? उपेक्षा, अज्ञाननाशो समझाना, उसे प्रशिक्षित करना, तत्त्व के वास्तविक स्वरूप की वा' उपेक्षा भाव आना और अज्ञान का नाश होना ही ज्ञान का फल ओर ले जाना ही वास्तव में, मन को अपने वश में करना है। है। उपेक्षा का अर्थ है रागद्वेष की हानि होना और गुणों का आदान जिसका मन संवेग और वैराग्य से भरा है। वही इस संसार से पार (ग्रहण) होना। यदि ऐसा नहीं होता तो वह ज्ञान कार्यकारी नहीं हो जाता है। जैसे घोड़े पर लगाम हो तो वह सीधा अपने गन्तव्य है। 'ले दिपक कुएँ पड़े' वाली कहावत आती है कि उस दीपक | पर पहुँच जाता है। ऐसे ही मन पर यदि वैराग्य की लगाम हो तो के प्रकाश की क्या उपयोगिता जिसे हाथ में लेकर भी यदि कोई | वह सीधा अपने गन्तव्य मोक्ष तक ले जाने में सहायक होता है। कूप में गिर जाता है। स्व-पर का विवेक होना ही ज्ञान की सभी दश धर्म आपस में इतने जुड़े हुए हैं कि अलगसार्थकता है। पर को हेय जानकर भी यदि पर के विमोचन का अलग होकर भी सम्बन्धित हैं । मार्दव धर्म के अभाव में क्षमा धर्म भाव जागृत नहीं होता और ज्ञान का मद आ जाता है कि मैं तो रह पाना संभव नहीं है, और क्षमा धर्म के अभाव में मार्दव धर्म ज्ञानी हूँ तो हमारा यह ज्ञान हमारा एकमात्र बौद्धिक व्यायाम ही टिकता नहीं है। मान-सम्मान की आकांक्षा पूरी नहीं होने पर ही कहलायेगा।
तो क्रोध उत्पन्न हो जाता है। मुदृता के अभाव में छोटी सी बात से ज्ञान का अभिमान व्यर्थ है। ज्ञान का प्रयोजन तो मान की | मन को ठेस पहुँच जाती है और मान जागृत हो जाता है। जब मान हानि करना है, पर अब तो मान की हानि होने पर मानहानि का | जागृत हो जाता है तो क्रोध की अग्नि भड़कने में देर नहीं लगती। कोर्ट में दावा होता है। मार्दव धर्म तो ऐसा है कि जिसमें मानकी । द्वीपायान मुनि रत्नत्रय को धारण किये हुए थे। वर्षों की 8 सितम्बर 2002 जिनभाषित
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