________________
महाश्रमण दिगम्बराचार्य श्री शांतिसागर जी महाराज
48वीं पुण्य तिथि के अवसर पर
अहिंसा और सत्य की खाद से संपुष्ट भारतीय संस्कृति के । पौध का संरक्षण और संवर्धन करने में श्रमण परम्परा, संत धारा का अपना एक महत्वपूर्ण योगदान है, जिसे भूलाना नहीं अपितु बुलाना, स्मृति में बनाये रखना ही सत्पुरुषों के प्रति आस्था और समर्पण का प्रतीक है "सर्वजन सुखाय सर्वजन हिताय" के सर्वोदयी उद्देश्य के साथ ही निज कल्याण के हेतु अनेकों आत्माओं ने इस भूमि पर साधना की, और साधना के बल पर तड़पती मानवता को समय-समय पर आध्यात्म और प्रेम वात्सल्य के शीतल जल से स्नपित कराते हुए सुख और शांति प्रदान की।
ऐसी ही श्रमण परम्परा के उज्जवल नक्षत्र " चारित्र चक्रवर्ती आचार्य श्री शांतिसागर जी महाराज" हुए। जिन्होंने लगभग 82 वर्ष पूर्व भौतिक सुख-सुविधाओं, इंद्रियजन्य विषय कषायों से मुख मोड़, सन् 1919 में समस्त आरम्भ और परिग्रह को त्याग कर प्रकृति पुरुस्कृत दिगम्बरत्व को अंगीकार किया तथा "परोपकाय सतविभूतय:" इस सूक्ति के अनुसार इस नश्वर देह को परोपकार जैसे सत्कार्यों में वीतमोह होकर समर्पित कर दिया।
सन् 1872 दक्षिण प्रांत के येलगुल ग्राम में माँ सत्यवती की कोख से द्वितीय किन्तु अद्वितीय बालक का जन्म, नामकरण हुआ 'सातगौडा', ज्योतिषाचार्यों की घोषणा बालक एक महान संत बनेगा प्राणि मात्र का अभय प्रदाता। हुआ यूं ही "पूत के गुण पालने में" वाली कहावत चरितार्थ होती चली, बालक करुणा प्रेम, समवृत्ति, गंभीरता आदि गुणों के साथ-साथ दूज के चाँद की तरह यौवन की दहलीज पर पहुँच गया। शौच को जाते हुए सातगौड़ा ने देखा कि एक सर्प मेढ़क को खाने दौड़ रहा है तुरंत पत्थर पर लोटा दे मारा सर्प विपरीत दिशा में भाग गया, घर लौटने पर फूटा लोटा देख माँ ने पूछा, समाधान मिलने पर माँ की आँखों से अश्रुधारा बह पड़ी और गौरवान्वित हुई वह माँ कह पड़ी धन्य है बूटा तूने कोख सफल कर दी। करुणा हृदयी पुरुष पक्षियों को भी कभी खेतों से नहीं उड़ाता पास ही छना हुआ शुद्ध जल भी रख देता पीने के लिये परिणाम स्वरूप फसल कम नहीं ज्यादा ही पैदा होती थी "वसुधैव कुटुम्बकम्" की भावना जो मन में थी।
आध्यात्मिक विकास के लिये आवश्यक होती है देह के प्रति निस्पृहता, निरीहता की, जिसका विकास होता है दृढ़ संकल्प से, सादा जीवन उच्च विचार से 18 वर्ष की उम्र से ही आराम दायक गादी का त्याग कर माँ के द्वारा काते खादी के वस्त्र पहनते हुए 25 वर्ष की उम्र में पादत्राण का भी त्याग कर दिया सहिष्णुता की वृद्धि के लिये। अभी त्याग का क्रम टूटा नहीं 32 वर्ष की उम्र
Jain Education International
मुनि श्री निर्वेगसागर जी
44
में ही घी व तेल का आजीवन त्याग कर दिन में मात्र एक बार ही शुद्ध सात्विक भोजन ग्रहण करने की दृढ़ प्रतिज्ञा/ आखिर, अंततोगत्वा यह माटी का पुतला माटी में ही मिलना है क्यों न इसके द्वारा कुछ चेतन की शाश्वत सत्ता का विकास किया जाए। और वैराग्य भीतर ही भीतर बढ़ता ही चला गया कि सन् 1914 में गुरु देवेन्द्रकीर्ति से निवेदन किया गया कि मुझे श्रमण दीक्षा प्रदान की जाए, पर " बेटा तलवार की धार पर चलने के समान यह व्रत है। धीरे-धीरे कदम बढ़ाने पर पतन का भय नहीं रहता, इसलिये पहले उत्कृष्ट श्रावक के व्रत अंगीकार करो।" गुरु के इस उपदेश को आदेश मान शुल्लक दीक्षा स्वीकार की। भगवान नेमिनाथ की निर्वाण भूमि गिरनार जी सिद्ध क्षेत्र में ऊपरी वस्त्र का त्याग कर मात्र एक लंगोटीधारी का पद स्वीकार किया तथा आजीवन सवारी का भी त्याग कर दिया।
अतः
तात्कालिक क्षेत्रीय तथा सामयिक प्रतिकूलताओं के बावजूद भी आगमिक चर्या का निर्दोष पालन करते हुए, अपने गुरु को ही पुनः दीक्षित कर "गुरुणां गुरुं " का दायित्व स्वीकार किया । कठोर तपश्चर्या मुनि जीवन में धारणा पारणा अर्थात् एक उपवास एक आहार निरन्तर, कभी लगातार 2, 3, 4,5 से लेकर लगातार 16 दिन तक निराहार निर्जल रहकर देह को तपाग्नि में तपाकर आत्मा को कुन्दन की तरह निर्मल और प्रकाशमान बनाने की साधना स्वरूप 35 वर्ष के मुनि जीवन में लगभग 10,000 (दस हजार ) उपवास किये।
.........
उपसर्ग और परीषहों को अपवर्ग की प्राप्ति का साधन मान सहर्ष स्वीकारते हुए समता का नित्य प्रति विकास करते रहे। बस्ती से सुदूर एकांत गुफा में ध्यान मग्न वे साधक भिखारी के द्वारा रोटी माँगते हुए रोटी न मिलने पर कील लगी लकड़ी से मारते हुए लहूलुहान होने पर भी विदेही की तरह शान्त और निराकुल, निष्प्रतिकारक भावों से सहन करते हुए, "शांति सागर " इस नाम को सार्थक कर रहे थे। चीटियों, दंस मशक, क्षुद्र कीट, मकोड़े तथा बिच्छू आदि की प्रदत्त पीड़ा तो मानो आपकी साधना विकास / कर्म निर्जरा में सहयोगी ही बना रही हो तथा नग्न देह पर घंटों सर्प का लिपटना, सिंह का सामने बैठे रहना, मानो आपके प्रेम और अहिंसक भावों से वे मित्रता को प्राप्त हो रहे हो, और राजाखेड़ा की वह शत्रु द्वारा प्रहार की घटना के बावजूद भी शत्रु के प्रति भी वही अनुकम्पा का भाव आपकी हृदय की विशालता, "पापी से नहीं पाप से घृणा करो" कहावत को प्रतिबिम्बत करता है।
रमता जोगी बहता पानी, परोपकार के सत् उद्देश्य से निरन्तर -सितम्बर 2002 जिनभाषित
5
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org