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________________ आज के इस युग में बिना अधिकार के कोई भी कार्य मुश्किल है। | श्री चरणों में झुक गया। "बारह भावना" जहाँ मन को भायी तो और अधिकार प्राप्त करने के लिए लड़ना पड़ता है। वहीं दमा का उपचार वाला प्राकृतिक चिकित्सा पर आधारित प्रत्येक अंक का सम्पादकीय तो शोधपूर्ण होता ही है, | आलेख भी अच्छा लगा। शंका-समाधान भी काफी जानकारियाँ देता है। यह पत्रिका जैन | पत्रिका इसी तरह प्रकाशित होती रहे एवं प्रगति करती समाज में घर-घर में पहुँचानी चाहिए। रहे, इसी भावना के साथ। डॉ. अनेकान्त जैन प्रकाश जैन रोशन व्याख्याता जतारा, टीकमगढ़, म.प्र. लाल बहादुर शास्त्री संस्कृत विद्यापीठ, नई दिल्ली जिनभाषित का प्रत्येक अंक यथा समय प्राप्त हो रहा है। जिनभाषित जून 2002 का अंक मिला जिसमें आपने आचार्यश्री के मुनि दीक्षा दिवस पर समर्पित जुलाई 2002 का आचार्य श्री ज्ञानसागर जी के बारे में काफी विस्तार से बतलाया। अंक सारगर्भित एवं सच्चा दिग्दर्शन कराने वाला है। विशेषतः यह संपूर्णतः अच्छी और स्मरणीय पत्रिका साबित हुई है। मैं आपका सम्पादकीय, 'मूकमाटी: एक उत्कृष्ट महाकाव्य' ने श्रावकों पत्रिका में निरन्तर निखार देख रहा हूँ। की जिज्ञासा को एक नया आयाम दिया है। अपने आप में अद्वितीय इंजी. आलोक लहरी, इस उत्कृष्ट महाकाव्य को हृदयंगम करने में हम अल्पज्ञ अपने को HD-22, डायमंड सीमेंट,नरसिंहगढ़, दमोह (म.प्र.) पत्रिका जिनभाषित बेहद उपयोगी पत्रिका होती जा रही है असहाय पाते हैं, लेकिन आपकी टिप्पणी एवं व्याख्याओं के द्वारा जुलाई अंक के मुखपृष्ठ पर आचार्यश्री विद्यासागर महाराज जी का इसे समझना सरल हो जाता है। चित्र बहुत आर्कषक लगा। साथ ही अंदर के पृष्ठों पर मुनि श्री आचार्य श्री के साहित्य पर हो रहे शोध कार्य की विस्तृत क्षमासागर जी द्वारा आचार्यश्री के जीवन परिचय का प्रस्तुतीकरण जानकारी प्राप्त हुई। यदि इस संबंध में भोपाल में विद्वद्वर्ग का एक सेमीनार आयोजित किया जावे तो समाज के सभी वर्गों को तथ्यपरक बहुत भाया। इस अनुपम प्रस्तुति पर साधुवाद। श्रीपाल जैन, नेहरु वार्ड, गोटेगाँव (म.प्र.) जानकारी एवं धर्म लाभ प्राप्त होगा। इस संबंध में आपके द्वारा जून, 2002 की जिनभाषित पत्रिका प्राप्त हुई। इतने कम किये गए प्रयास से सभी लाभान्वित होंगे। दामों में इतनी सुन्दरता के साथ पाठकों के लिये प्रतिमाह बेहद पुनः जिनभाषित के उत्तरोत्तर विकास के लिए हमारी ज्ञानवर्धक पठनीय सामग्री देते रहना सचमुच सराहनीय कार्य है। | शुभकामनाएँ। इसके लिये पत्रिका के सम्पादक मण्डल के सदस्य, प्रकाशक व अरविन्द फुसकेले उपाध्यक्ष-पारस जन कल्याण संस्थान सम्मानीय संरक्षक सदस्य बधाई के पात्र हैं। एक सुझाव है कि ई.डब्ल्यू.एस.-541, कोटरा, भोपाल यदि यह पत्रिका माह के प्रथम सप्ताह में ही प्राप्त हो जाये तो इससे _ 'जिनभाषित' मई 2002 का सम्पादकीय "दोनों पूजा पाठकों को ज्यादा सांत्वना मिलेगी। पद्धतियाँ आगमसम्मत' वस्तुतः सम्यक विश्लेषण है। आपने इस महाकवि आचार्य श्री ज्ञानसागर जी महाराज के 30वें तरह समन्वय का जो प्रयास किया है वह तभी असरकारी होगा समाधि दिवस पर प्रकाशित आलेख सम्पादकीय के रूप में रुचिकर जब कि लोग पूजा के यथार्थ को समझेंगे। लगा। (आचार्य विद्यासागर महाराज) के गुरुवर के अन्य ज्ञानवर्धक दामोदर जैन, आलेख पढ़ते ही मन प्रफुल्लित हो उठा और परम पूज्य गुरुवर के । S-334, नेहरु नगर, भोपाल सुभाषित अपना उद्देश्य सिद्धि का नहीं, सिद्ध बनने का होना चाहिए। संयम और साधना आत्मदर्शन के लिए हो, प्रदर्शन के लिए नहीं। प्रदर्शन करने से दर्शन का मूल्य कम हो जाता है, यदि उसके साथ दिग्दर्शन और जुड़ जाये तो उसका मूल्य और भी कम हो जाता है। . साधन वही है जो साध्य को दिला दे। कारण वही है जो कार्य को सम्पादित करे। औषधि वही है जो रोग को दूर करे। तप वही है जो नर से नाराण बना दे। आचार्यश्री विद्यासागर 'सागर बूंद समाय' से -सितम्बर 2002 जिनभाषित 3 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524266
Book TitleJinabhashita 2002 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2002
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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