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________________ शेषांश बारह भावना श्री मंगतराय जी एकत्व भावना रूप तुम्हारा, सबसे न्यारा, भेद ज्ञान करना। जौ लों पौरुष थके न तौ लों, उद्यम सों चरना ॥ 13 ॥ जन्मे मरे अकेला चेतन सुख-दुख का भोगी। अर्थ : मैं चेतन हूँ, मैं ज्ञानी हूँ, यह शरीर अचेतन है, और किसी का क्या इक दिन यह देह जुदा होगी। पौद्गलिक है। ये शरीर और आत्मा अनादिकाल से मिले हुए हैं, कमला चलत न पैंड मरघट तक परिवारा। परन्तु पुरुषार्थ करने पर अलग-अलग होते हैं जैसे दूध और पानी अपने-अपने सुख को रोवे पिता-पुत्र-दारा ॥10॥ गर्म करने पर अलग-अलग हो जाते हैं। हे आत्मन् ! तुम्हारा रूप अर्थ - यह आत्मा जन्म एवं मरण अकेला ही करता है, तो अन्य सब द्रव्यों से अलग है। तुम निरंतर भेद ज्ञान करो तथा सुख-दुख को भोगने वाला भी अकेला है। अन्य पदार्थ क्या, यह जब तक शरीर में शक्ति है तब तक चारित्र में सदैव उद्यम करो। शरीर भी आयु पूर्ण होने पर यहीं छूट जावेगा। उस समय पत्नी भी 'देहली' (चौखट) तक ही आवेगी उससे बाहर न निकलेगी, अशुचि भावना परिवार के लोग श्मशान घाट तक ही जावेंगे एवं माता-पिता व तू नित पौखे यह सूखे ज्यों धोवै त्यों मैली । स्त्री जो विलाप कर रहे हैं वे सब स्वार्थ-अपने सुख के खातिर रो निश दिन करे उपाय देह का रोग दशा फैली॥ रहे हैं। मात-पिता रज वीरज मिलकर बनी देह तेरी। ज्यों मेले में पंथीजन मिल नेह फिरें धरते । मांस हाड़ नश लहू राधकी प्रगट व्याधि घेरी ॥14॥ ज्यों तरवर पै रैन बसेरा पंछी आ करते ॥ अर्थ : हे आत्मन् ! तू अपने शरीर को प्रतिदिन पुष्ट करता कोस कोई दो कोस कोई उड़ फिर थक-थक हारे। है, परन्तु फिर भी यह सूखता जा रहा है। जैसे ही इसे धोता है वैसे जाय अकेला हंस संग में कोई न पर मारे ॥11॥ ही यह मैला हो जाता है। दिन-रात शरीर को स्वस्थ रखने का अर्थ : जैसे मेले में राहगीर / मित्रादि लोग मिल जाते हैं उपाय करता है परन्तु फिर भी यह रोगी बना रहता है। माता के एवं स्नेह से यहाँ से वहाँ घूमते रहते हैं और जैसे रात्रि में वृक्ष पर रज और पिता के वीर्य के मिलने से यह तेरी देह बनी है। यह पक्षी आकर निवास कर लेते हैं फिर उड़कर कोई एक कोस, कोई मांस, हाड़, नश, रक्त व पीप आदि कुधातुओं से भरी हुई है एवं दो कोस तक जाते हैं फिर थक-थक कर कहीं निवास करने लग प्रत्यक्ष में ही रोगों से व्याप्त रहती है। जाते हैं, वैसे ही यह जो हमारे परिवार के लोग हैं, आज एक साथ काना पौड़ा पड़ा हाथ यह चूसै तो रोवे । हैं, आयु पूरी होते ही हम मरण को प्राप्त हो जायेंगे और अकेली फलै अनंत जु धर्म ध्यान की भूमि विषै बोवै॥ आत्मा अन्य पर्याय में उत्पन्न हो जावेगी, कोई किसी के साथ जन्म केसर चंदन पुष्प सुगंधित वस्तु देख सारी । या मरण नहीं करता है! देह परसते होय अपावन निशदिन मल जारी ।।15।। अन्यत्व भावना शब्दार्थ : कानापौड़ा-गन्ने की पोर जो बोने पर उगती है (सुखा गन्ना), पड़ा मिला, परसते - स्पर्श से, मलजारी- मल मोह रूप मृग तृष्णा जग में मिथ्या जल चमकै। बहता रहता है। मग चेतन नित भ्रम में उठ-उठ दौड़े थक थक कै॥ अर्थ - यदि काना गन्ना प्राप्त हो जावे और उसे चूसें तो जल नहिं पावै प्राण गमावै भटक-भटक मरता । दाँतों में दर्द होने से रोना आ जावेगा परन्तु उससे फल कुछ भी वस्तु पराई माने अपनी भेद नहीं करता ॥ 12 ॥ प्राप्त नहीं होगा। और यदि उसे जमीन में बो देंगे तो बहुत से मीठे अर्थ : जिस प्रकार रेगिस्तान में, बालू की चमक को पानी गन्ने प्राप्त हो जावेंगे। उसी प्रकार इस शरीर को यदि धर्मध्यान रूपी मानकर, प्यासा हिरन, दौड़-दौड़ कर, पानी न मिलने से, थक कर भूमि में बो देंगे तो अनंत फल रूप अनंत चतुष्टय प्राप्त हो जावेगा। मरण को प्राप्त हो जाता है, उसी तरह यह संसारी जीव भी, मोह ऐसा नहीं करेंगे तो संसार में ही रोते रहेंगे। एवं मिथ्यात्व के कारण, अन्य वस्तु को अपनी मानता हुआ तथा | केशर, चंदन, पुष्प आदि जितनी भी सुगन्धित वस्तुएँ देखी निज और पर से भेद को नहीं जानता हुआ सुख के अभाव में, जाती हैं, वे सब शरीर का स्पर्श करते ही अपवित्र हो जाती हैं। इस भ्रमण करता रहता है। शरीर से दिन-रात नव द्वारों से मल झरता रहता है । इस प्रकार यह तू चेतन अरु देह अचेतन, यह जड़ तू ज्ञानी । शरीर अत्यन्त अपवित्र है। इससे प्रीति न करके, इसे धर्म में मिले अनादि यतन सों, बिछुड़े,ज्यों पय अरु पानी। । लगाना चाहिये। 24 अगस्त 2002 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524265
Book TitleJinabhashita 2002 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2002
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size6 MB
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