________________
आचार्यश्री ज्ञानसागरजी महाराज का व्यक्तित्व एवं कृतित्व
ब्र. शान्ति कुमार जैन आचार्य श्री ज्ञानसागर जी महाराज गृहस्थ अवस्था के श्री । कर्नाटक से आए हुए एक युवा को तलाश कर तराशा और भूरामलजी छाबड़ा का जन्म जयपुर एवं सीकर के बीच राणोली | आचार्य विद्यासागर बनाकर गए। तराशने के कार्य में भी बहुत नगर में हुआ। व्यवसायी घराना में जन्म लेकर भी वे कभी भी अल्प समय लगा। उस युवा बाल ब्रह्मचारी मुनि विद्यासागर पर अध्यवसाय में नहीं फँसे। उन्होंने सही व्यवसाय आत्म का कल्याण इतना विश्वास था कि उनको अपने आचार्य पद से अभिषिक्त के मार्ग को ही चुना। विवाह किया नहीं। बड़े परिवार के थे। करके स्वयं सामान्य शिष्य बनकर सल्लेखना ग्रहण कर ली थी। विद्याभ्यास बनारस में किया। अनेक संस्कृत साहित्य का सृजन समाज में उस वक्त भारी विरोध हुआ। पर आज उनके उस भी किया। उनका भी छद्मनाम शान्ति कुमार था। हम भी उसी कृतित्व आचार्य श्री विद्यासागर जी को देखकर श्रद्धा से मस्तक ग्राम के थे। मेरे पिताजी और वे आपस में परम मित्र थे। मेरा नत हो जाता है आचार्य श्री विद्यासागर जी के इस अभूतपूर्व नामकरण भी उन्हीं का किया हुआ है।
अद्वितीय अनुकरणीय कृतित्व के लिए। इतिहास में ऐसी मिसाल धनोपार्जन का लोभ उन्हें जरा भी नहीं हुआ था। अत्यन्त और कहीं नहीं मिलती। गौर वर्ण के थे। ज्ञान का क्षयोपशम अपूर्व था। अपनी धुन के । उनकी समाधि पर भी अपने आप में निरतिचार, निर्दोष पक्के थे। उनका व्यक्तित्व अद्वितीय था। आचार्य वीरसागरजी थीं। उसकी तुलना वर्तमान में एकमात्र चारित्र चक्रवर्ती आचार्य महाराज एवं आचार्य शिवसागर जी महाराज के संघ में साधु, श्री शान्तिसागर जी की समाधि से ही की जा सकती है। राजस्थान साध्वी, त्यागी, व्रती, ब्रह्मचारी, ब्रह्मचारिणियों को अध्ययन भी की ज्येष्ठ माह की भीषण गर्मी में उन्होंने अपनी सल्लेखना निर्विघ्न कराया करते थे।
सम्पन्न की थी जिसकी वैयावृत्ति आचार्य विद्यासागरजी ने ऐसी आचार्य शिवसागर जी महाराज से मुनि दीक्षा वृद्धावस्था की कि आज समाधि सम्राट माने जाने लगे। अनेक समाधियाँ में ली थी। साधना तपस्या में कठोर थे। गुरु के आदेश से संघ से | करा चुके हैं। आचार्य ज्ञानसागर जी महाराज श्रेष्ठतम व्यक्तित्व पृथक होकर चर्या करने लगे। चारित्र चक्रवर्ती आचार्य श्री शान्तिसागर के धनी थे एवं उनका श्रेष्ठतम कृतित्व है आचार्य श्री विद्यासागर जी की परम्परा का निर्दोष पालन करते थे। मुनि चर्या के लिए जी महाराज! महापुरुष पगडंडियाँ बनाकर चले जाते हैं, योग्य शिथिलाचार से समझौता कभी नहीं किया। उस समय की श्रमण | शिष्य उन्हें राजमार्ग बना देते हैं। परम्पराओं में सूर्य के समान सर्वदा दैदीप्यमान रहे।
आचार्य श्री ज्ञानसागर जी महाराज ने मुनि दीक्षा के उनका कृतित्व तो आज आचार्यश्री विद्यासागरजी महाराज | पश्चात् अपनी लेखनी से कोई लेख, पुस्तक ग्रंथ नहीं लिखे। के रूप में सर्वजन सुविदित है। खदान से निकले हुए पाषाण में | उनकी सम्पूर्ण रचनाएँ मुनि दीक्षा के पूर्वकालवर्ती हैं। कोहिनूर हीरे को देख पाना दैविक दृष्टि से ही सम्भव होता है।।
(आचार्य श्री विद्यासागर संघस्थ)
आदिपुराण के सुभाषित
ताः संपदस्तदैश्वर्यं ते भोगा स परिच्छदः।
दीक्षा रक्षा गुणा भृत्या दयेयं प्राणवल्लभा। ये समं बन्धुभिर्भुक्ताः संविभक्तसुखोदयैः।
इति ज्यायस्तपो राज्यमिदं श्लाध्यपरिच्छदम्॥ भावार्थ : सम्पत्तियाँ वही हैं, ऐश्वर्य वही है, भोग वही
भावार्थ - जिसमें दीक्षा ही रक्षा करने वाली है, गुण ही
सेवक हैं और दया ही प्राण प्यारी स्त्री है, इस प्रकार जिसकी सब है और सामग्री वही है जिसे भाई लोग सुख के उदय को बाँटते ।
सामग्री प्रशंसनीय है ऐसा यह तप रूपी राज्य ही उत्कृष्ट राज्य है। हुये साथ-साथ उपभोग करें।
वरं वनाधिवासोऽपि वरं प्राणविसर्जनम्। अयं खलु खलाचारो यद्वलात्कारदर्शनम्।
कुलाभिमानिनः पुंसो न पराज्ञा विधेयता ॥ स्वगुणोत्कीर्तनं दोषोद्भावनं च परेतु यत्॥
भावार्थ - वन में निवास करना अच्छा है और प्राणों भावार्थ - अपनी जबरदस्ती दिखलाना वास्तव में दुष्टों
का त्याग देना अच्छा है, किन्तु अपने कुल का अभिमान रखने
| वाले पुरुष को दूसरे की आशा के अधीन रहना अच्छा नहीं है। का काम है तथा अपने गुणों का वर्णन करना और दूसरों में दोष
पं. सनतकुमार विनोद कुमार जैन, रजवाँस प्रकट करना भी दुष्टों का काम हैं।
12 अगस्त 2002 जिनभाषित -
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org