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________________ अनावर्ती कालो व्रजति कभी न लौटने वाला समय जा रहा है सिद्धान्तरत्न ब्र. सुमन शास्त्री साइरस के पास जो भी आदमी आता वह उससे कहता- | होते हैं और दस हजार गुजरे कल एक आज की बराबरी नहीं कर थोड़े में कह दीजिए, समय बहुत कीमती है।' कितना समयज्ञ था | सकते, इसका कारण है बीता हुआ समय कभी लौटकर नहीं वह भव्यात्मा, जी करता है उसके ये श्रेष्ठ-सुन्दर विचार भोजन के | आता। नदी के प्रवाह की तरह समय को कभी कोई लौटा नहीं रस की तरह अपने रक्त कणों में आत्मसात् कर लूँ। सका। समुद्र की ओर जाती गंगा को तो सबने देखा है किन्तु उसे जहाँ तक मैं समझती हूँ 'समय समयसार है, भगवद् | लौटते हुए कभी किसी ने नहीं देखा। सच तो यह है बहती धारा सम्पत्ति है और उसका अपव्यय महान् पाप है।' जो समय को नष्ट | में दो दफा कब-किसने नहाया है? मुँह से निकली बात, बीती करता है समय उसे ही नष्ट कर देता है: क्योंकि उचित समय पर | रात, कमान से छूटा तीर, देह से निर्गत आत्मा, बीता बचपन, किया गया कार्य उचित फल देता है और असमय अथवा कार्य का | गुजरी जवानी, टूटे तारे, टूटी टहनी, झड़ते फल-फूल-पत्र कभी समय निकल जाने पर किया गया कार्य कर्ता के श्रम और फल | पुनः अपने उद्गम पर नहीं लौटते, तब 'समय' नामा चक्र आगे दोनों को पी लेता है। एक बार श्रद्धालु धनिक ने अपने नगर में बढ़कर पीछे क्यों लौटेगा? पधारे एक साधु से पूछा-महात्मन् ! श्रेष्ठ कार्यों में समय लगाना तो अतीत को वर्तमान बनाना न तो इन्सान के हाथ की बात है आवश्यक है, किन्तु यदि कोई समयाभाव से वैसा न कर सके तो | न इन्द्र, धरणेन्द्र,चक्रेन्द्र कहलाने वाले अमर-नराधिपों की; क्योंकि क्या करना चाहिए? साधु जी साश्चर्य रहस्यभरी मुस्कान बिखेरते | वह न तो किसी की खुशामद का मुँहताज है, न धन व मिन्नताओं हुए बोले-श्रेष्ठि ! मुझे तो आज एक ऐसा कोई भी व्यक्ति नहीं का। वह ऐसा निर्लिप्त न्यायाधीश है जो कोटि-कोटि स्वर्ण मुद्राओं मिला, जिसे विधाता या स्वयं काल चक्र ने एक दिन में चौबीस | की रिश्वत भी ठुकरा देता है। उसका कोई गुरु नही; जिसकी घण्टे में एक पल भी कम समय दिया हो। फिर 'समय की कमी' आज्ञा शिरोधार्य करने पर वह विवश हो। उसका कोई मालिक से आपका क्या अभिप्राय है? नहीं, जिसके दबाब में उसे लौटना पड़े, एतदर्थ अथर्ववेद में काल सेठ सकपकाकर चुप हो गया। सन्त ने स्पष्टीकरण करते | को विश्वेश्वर कहा है 'कालो हि सर्वस्येश्वरः। किष्किन्धाकाण्ड हुए कहा-वत्स ! जिसे आप समयाभाव कहते हो वह वस्तुतः | में वाल्मीकि महात्मा फरमाते हैंसमय की कमी नहीं, समय की अव्यवस्था है। अनुपयोगी कार्यों न कालस्यास्ति बन्धुत्वं न हेतु न पराक्रमः। में अधिक समय व्यय हो जाने से उपयोगी कार्यों के लिए समय न मित्रज्ञातिसम्बन्धः कारणं नात्पनो वशः।। नहीं बचता इसलिए जरूरी है कार्य से पूर्व समय का मूल्यांकन काल किसी के साथ बन्धुत्व, मित्रता अथवा जात-पाँत करना सीखो। समय का मूल्यांकन अर्थात् समय का सम्यक् | का रिश्ता नहीं निभाता। उसे अधीनस्थ करने का कोई उपाय भी नियोजन, सम्यक् उपयोग, सदुपयोग। जो व्यक्ति समय का सम्यक् नहीं है। उस पर किसी के पराक्रम का जोर नहीं चलता क्योंकि नियोजन करना जानता है, समय उससे विजित हो जाता है और | 'कारण स्वरूप काल' किसी के वश में नहीं है। यही बात गीता में उसकी इस विजयश्री पर वह स्वयं हर्षोन्मत्त हो आनन्द और यश भी कही है 'न कालस्य प्रियः कश्चिन्न द्वेष्यः कुरुसत्तम।' हे पुञ्ज के गुलाबी/रक्त कुंकुम से उसका तिलक कर देता है। इसके कुरुत्तम! काल का न कोई प्रिय है, न ही द्वेषी। विपरीत जो समय का सम्यक् नियोजन नहीं जानते, वे समय की गुप्तचरों के समान समय के चरण अश्रव्य और नि:शब्द मार से हार जाते हैं और कराहते फिरते हैं मेरे पास समय नहीं है। हैं। चोर की भाँति चुपके से दबे पैर निकल जाने वाले इस शख्स समय उसी का साथ देता है जो उसका हाथ पकड़कर चलता है।। सेठ नतमस्तक हो गया। का गति क्रम अनवरत साम्य है, उसमें कोई नव्य परिवर्तन, कोई जीवन की सबसे बड़ी जीत है समय का सदुपयोग और नयापन नहीं है। वह मिश्री या लवण डली (प्रयोक्ता पर निर्भर) जीवन की सबसे बड़ी पराजय है समय का दुरुपयोग। उसे व्यर्थ के समान सार्वकालिक, सर्वत्र, सर्वतः मधुर और क्षारधर्मी है। गँवाना बहुत बड़ी सम्पत्ति खोना है। फ्रान्सीसी कहावत है 'सिवा इसकी गति को पहचानने वाला 'समय के फलक' पर वे आदर्श दिन-रात के हर चीज खरीदी जा सकती है। सच है वक्त का एक चित्र प्रतिबिम्बित कर जाता है जिससे हजारों-लाखों पीढ़ियाँ कल्पान्त निमिष स्वर्ण के हर तार की तरह कीमती है, सिर्फ इतना ही नहीं तक सबक लेती रहती हैं और जो समय की गति-कीमत नहीं सन्त पुरुषों की भाषा में 'आने वाले दो कल एक आज के बराबर | पहचानते वे क्या करूँ समय ही नहीं मिलता' का रोना रोते-रोते 10 अगस्त 2002 जिनभाषित - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524265
Book TitleJinabhashita 2002 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2002
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size6 MB
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