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________________ 'जिनभाषित' का अप्रैल अंक प्राप्त कर प्रसन्नता हुई।। प्राचार्य जी द्वारा की गई समता, सहअस्तित्व, संयम एवं आत्ममहावीर को बहुत पढ़ा-सुना-गुना गया। अब उनको जीने का युग | स्वातंत्र्य जैसे व्यावहारिक मूल्यों की प्रस्तुति अत्यधिक सराहनीय आ गया है। आज जो महावीर को नहीं जीयेगा, वह जीवन के | है। सामान्य व्यक्ति सरलता एवं सहजता से इन बिन्दुओं को समझकर अभीष्ट से वंचित रहेगा। महावीर को कैसे जिया जाए, 'जिनभाषित' | और विवेक के साथ पालन कर अपनी भौतिक, शारीरिक, इसी संदर्भ को स्पष्ट करने का युगोचित प्रयत्न कर रहा है और | भावनात्मक एवं आत्मिक प्रगति कर सकता है। तदनुकूल सामग्री का परिवेषण भी इसके द्वारा तत्परतापूर्वक किया मुझे विश्वास है कि ऐसे लेखों के माध्यम से जिनभाषित जा रहा है। इससे जैनाजैन पाठकों को ज्ञानोन्मेषकारी अभिनव | पत्रिका सदैव अपनी उत्कृष्ट छवि बनाए रखेगी। दृष्टि प्राप्त हो रही है। सुरेश जैन पं. रतनलाल जी बैनाड़ा द्वारा प्रस्तुत 'जिज्ञासा-समाधान' आई.ए.एस. उनकी आर्हत् दार्शनिक दृष्टि की गम्भीरता का परिचायक है। 30, निशात कालोनी भोपाल (म.प्र.) उनकी चिन्तन-मनीषा नमस्य है। साधुवाद सहित। किसी-किसी जातक का उदय ब्राह्ममुहुर्त जैसे शुभ मुहूर्त डॉ.श्री रंजन सरिदेव पी.एन. सिन्हा कॉलोनी, और लग्न में होता है तो वह जातक 'जिनभाषित' जैसा सर्वहितकारक भिखनापहाडी, पटना - 800006 और मार्गदर्शक बनता है। निःसन्देह 'जिनभाषित' के मनीषी 'जिनभाषित' वर्ष -1, अंक-3, अप्रैल 2002 के संपादकीय स्वाध्यायी, चिन्तक, सम्पादक डॉ. रतनचन्द्र जैन ने इसे सिद्ध भी में आपकी तथ्यात्मक प्रस्तुति पाठकों में सामाजिक चेतना का कर दिया है। 'जिनभाषित' के अग्रलेख अपूर्व, असाधारण और संचार करती है। आपकी अभिव्यक्तियाँ अत्यधिक शोधपूर्ण, प्रभावक होते हैं। फरवरी से मई, 2002 के सभी अंकों की सामग्री प्रेरणास्पद एवं अनुकरणीय है। आध्यात्मिक जगत की इस साफ- को ध्यानपूर्वक पढ़ा है। समीक्षा में कुछ कहना हो तो 'तुलसी' से सुथरी पत्रिका ने बहुत कम अवधि में ही अपनी स्वतंत्र पहचान कहलाना पडेगा- 'को बड़-छोट कहत अपराधू'..... । सब-कुछ स्थापित कर ली है। तो सम्पादक द्वारा जाँचा-परखा और चुनिंदा संचयन में हैं, फिर इस अंक में प्रकाशित पूज्य गुरुजनों ने अपने लेखों में भी मेरा अन्त:करण' जिनभाषित' के अग्रलेख"नई पीढ़ी धर्म से अपनी अनुभूतियों और भावनाओं का प्रभावी ढंग से प्रस्तुतीकरण विमुख क्यों?" पर सम्पादक को बधाइयाँ देने को बाध्य कर रहा कर जैन संस्कृति की गरिमा को वृद्धिगत किया है। है। इसमें लेखक की सूक्ष्म दृष्टि, अनुभव की गहनता और मानस मन्थन से निकला नवनीत है। मैं समझता हूँ इस लेख के मनोवैज्ञानिक छतरपुर स्थित स्नातकोत्तर महाविद्यालय के प्राध्यापक डॉ. सुमति प्रकाश जैन के मार्गदर्शन में लिखित सुश्री रजनी जैन का तथ्यों के आधार पर पुरानी पीढ़ी के धर्म-धुरन्धरों को अपनी आलेख 'शाकाहार एवं मांसाहार : एक तुलनात्मक आर्थिक सन्तति को निहारना चाहिए। तब "दूध का दूध और पानी का विश्रेषण' आर्थिक एवं वैज्ञानिक तथ्यों पर आधारित है। जैन पानी" दृष्टिगोचर हो जाएगा। इसी प्रकार मार्च के अंक में एक गजट 9 मई, 2002 से जानकारी मिली है कि डॉ. जैन के निर्देशन उपयोगी और सामयिक लेख है - "आहारदान की विसंगतियाँ।" अब हमारे साधकों के चार्तुमास की स्थापनाओं के दिवस आने में कु. श्वेता जैन ने भी 'भारतीय अर्थव्यवस्था में शाकाहार की वाले हैं। किसी समर्थ पाठक-दातार द्वारा यदि उन-उन स्थानों पर उपादेयता : एक मूल्यांकन' विषय पर लघु शोधप्रबंध प्रस्तुत कर इस लेख की प्रतियाँ छपवाकर गृहस्थों-श्रोताओं आदि में वितरित एम.कॉम. की प्रावीण्य सूची में प्रथम स्थान प्राप्त किया है। कराई जावें तो कुछ न कुछ सुधार की संभावनाएँ हैं। लेख में कोई भारतीय आहार की प्रणालियों एवं रहन-सहन की पद्धतियों अत्युक्ति नहीं है। का राष्ट्रीय स्तर पर वैज्ञानिक/आर्थिक शोध अत्यावश्यक है। इस दिशा में किए गए सराहनीय प्रयास के लिए युवा प्राध्यापक डॉ. इस प्रकार सभी अंकों में उपयोगी सामग्री है। सबके जैन और दोनों युवा शोध छात्राएँ रजनी एवं श्वेता बधाई के पात्र | सन्दर्भ में लिखना एक नया लेख बनाने जैसा हो जावेगा। है। यह आवश्यक है कि हमारा आध्यात्मिक एवं सामाजिक हृदय की शल्यचिकित्सा (बाईपास सर्जरी) के बाद की नेतृत्व ऐसे प्राध्यापकों एवं छात्रों को इस प्रकार के शोधों के लिए प्रक्रिया ने प्राप्ति स्वीकृति से वंचित रखा। भोपाल की धरती पर प्रभावी ढंग से प्रेरित करे, जिससे वे विश्व के समक्ष अपने वैज्ञानिक | लोकोत्तर आत्मा के चरण' और जिनभाषित के माध्यम से उन जीवनमूल्यों को आधुनिक ढंग से प्रस्तुत करने में सफल हो सकें। चरणों की रज हम पाठकों तक पहुँचाने के लिये पुनः आप के प्राचार्य निहालचन्द्र जैन ने भगवान महावीर द्वारा उपदेशित | आभारी। शाश्वत जीवन मूल्यों को सहज एवं सरल ढंग से आधुनिक भाषा डॉ. प्रेमचन्द्र जैन में प्रस्तुत किया है। शास्त्रीय एवं तकनीकी भाषा का मोह छोड़कर 3118/71 एस.ए.एस. नगर, चण्डीगढ़-160071 2 जून 2002 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524263
Book TitleJinabhashita 2002 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2002
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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