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बहुत ही तंगदिल हो गया है। मनुष्य के अन्दर जो प्रेम, भाई-चारा, । और 'सचित्त विचार' नामक पुस्तक में की है। ये कृतियाँ निश्चित आत्मीयता, संवेदनशीलता, सहानुभूति आदि तत्त्व, ऐसा लगता है, | रूप से हमारे जीवन को जहाँ एक ओर पवित्र बनाने का उपक्रम जैसे उसके जीवन से बहुत दूर चले गये हों। आज का मानव इतना | करती हैं, वहीं दूसरी ओर हमें इस बात की प्रेरणा देती हैं कि अधिक इन्द्रियलोलुप हो गया है कि उसे करणीय और अकरणीय | जीवन में वे कौन-सी वस्तुएँ हैं जो खाने योग्य हैं और कौन-सी का अन्तर ही समझ नहीं आता है। आचार्य ज्ञानसागर ने कर्त्तव्य | खाने योग्य नहीं है। ये कृतियाँ निश्चित रूप से जीवन के लिये पथ प्रदर्शन' नामक कृति के माध्यम से मनुष्य को यह संदेश दिया | अत्यन्त उपयोगी साबित हुई हैं। हैं कि कर्त्तव्यपालन के द्वारा व्यक्ति आत्मतोष की अनुभूति कर आचार्य ज्ञानसागर जी ने 'सरल जैन विवाह विधि' के सकता हैं और जीवन की ऊँचाइयों को हासिल कर सकता है। द्वारा विवाह जैसे पवित्र बन्धन को उलझनविहीन बनाने की दृष्टि जैनधर्म भावनाप्रधान है, भावना कर्तव्य की प्रेरणा देती है और से कुछ ऐसे सूत्र प्रदान किए हैं, जिन्हें अपनाकर हम अपना कार्य कर्तव्य हमारे जीवन को सुसज्जित करता है। कृति का वैशिष्ट्य | सरलतापूर्वक स्वयं सम्पन्न कर सकते हैं। शीर्षक से स्वमेव ही स्पष्ट हो जाता है।
निष्कर्षतः हम कह सकते हैं कि आचार्य ज्ञानसागर जी संत कहते हैं कि हम जैसी वस्तु को ग्रहण करते हैं, उसी की वे कृतियाँ, जो उन्होंने हिन्दी साहित्य को प्रदान की है, निश्चित के अनुरूप हमारा मन और आचरण प्रभावित होता है और जैसा | रूप से अमूल्य हैं, क्योंकि इन कृतियों का सम्बन्ध विशुद्ध रूप से ग्रहण करते हैं वैसी ही हमारी वाणी हो जाया करती है। मानव जीवन से है। साहित्य के केन्द्र में मानव ही सर्वोपरि माना कहावत है
गया है, मानव के उत्कर्ष से जुडे हुए जितने भी बिन्दु हैं, वे जैसा खावे अन्न, वैसा होवे मन।
आचार्य ज्ञानसागर जी के साहित्य में समाहित हैं। अतः यहाँ पर जैसा पीवे पानी, वैसी होवे वाणी॥
यह कहना ज्यादा उपयुक्त होगा कि आचार्य ज्ञानसागर जी की ऐसी स्थिति में मानव को चाहिए कि वह उन पदार्थों का |
कृतियाँ मानव कल्याण के लिए ऐसे अनुपम उपहार हैं, जिन्हें सेवन न करे जो जीवन के लिये अनुपयोगी और कष्टदायक हों। काल अपने प्रवाह में प्रवाहित नहीं कर सकता। उनकी कृतियाँ आचार्य ज्ञानसागर ने भक्ष्य-अभक्ष्य की विवेचना 'सचित्त विवेचन' | अक्षय निधि के रूप में हमेशा प्रणम्य रहेगी।
टीकमगढ़ (म.प्र.)
बालवार्ता
सजा किसे?
___डॉ. सुरेन्द्र कुमार जैन 'भारती' एक बार नेपोलियन बोनापार्ट अपनी सैनिक छावनी के | उत्तर सैल्यूट मारकर दे रहे हो?' पास से गुजर रहा था। उसने देखा कि एक सैनिक एक निश्चित सैन्य अधिकारी को अपनी भूल का अहसास हुआ दूरी से आता है और अपने सैन्य अधिकारी को सैल्यूट मारता है। और उसने उक्त सैनिक को क्षमा करते हुए पुनः ड्यूटी पर पुनः उसी स्थान पर जाता है और वापिस आकर फिर सैल्यूट जाने का आदेश दिया। उसे अच्छी तरह समझ में आ गया था मारता है।
कि जब हम दूसरों को दुःख देने की सोचते हैं या दुःख देते हैं, नेपोलियन ने उस सैन्य अधिकारी से पूछा-'यह क्या हो तब स्वयं भी दुःख उठाना पड़ते हैं। अत: दूसरों को दुःख देने रहा है?'
के स्थान पर समभाव रखना चाहिए। उस सैन्य अधिकारी ने ज्यों ही सेनापति नेपोलियन
सच बोनापार्ट को देखा तो हड़बड़ाकर सैल्यूट मारा और उत्तर दिया झूठ बोलना पाप है बच्चो सत्य कहो तो शान बढेगी, - 'सर! इसने सेना के नियमों को तोड़ा है। अतः मैंने इसे अपने झूठ एक संताप है बच्चो। झूठ कहो तो मान घटेगी। कर्तव्य (ड्यूटी) का उल्लंघन करने के अपराध में निश्चित दूरी एक झूठ सौ झूठ बुलवाता, सत्य सदा ही रहता आगे, से आकर 100 बार सैल्यूट मारने की सजा दी है।'
झूठ कभी न कभी पकड़ा जाता। झूठ सदा ही पीछे भागे।
तिरस्कार झूठे का होता नेपोलियन ने यह सुनकर उस सैन्य अधिकारी से कहा -
राम सत्य में रहे सदा ही,
झूठा सम्मान और आदर खोता। झूठ राम को चुभे सदा ही। 'तू बड़ा मूर्ख है। दूसरों को ऐसी सजा देने से क्या लाभ, जिसकी
झूठ की आदत कभी न डालो, सत्य मिलेगा महावीर की वाणी में, सजा तुम्हें भी भोगनी पड़े। उसे तो दण्ड मिला है इसलिए 100
सीधी स्पष्ट सच सदा कह डालो, झूठ मिलेगा अपयश की कहानी में। बार सैल्यूट मारने आना पड़ रहा है, किन्तु तुम किस अपराध की
सच्चे का होता बोलबाला, सत्य सदा जो रहेगा मन में, सजा भुगत रहे हो, जो उसके 100 बार की सैल्यूट का उत्तर देने
झूठ का मुँह होता काला॥ झूठ कहेगा चलता वन में। के लिए एक ही स्थान पर खड़े हो और बार-बार सैल्यूट का ।
.ओमप्रकाश बजाज .सुरेन्द्र 'भारती'
20 जून 2002 जिनभाषित
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